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मन की आँखे खोल

योगेश पंथी
भोपाल (भोजपाल) मध्यप्रदेश
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चहरे का तो रंग उड़ा है
नस नस में है कपट भरा।
चला ठाट से तीरथ करने
घरमें है अंधकार पड़ा॥

चार जीव का दिल जलता हैं
चला है शान दिखाने को।
यारों के संग मौज मनाता
घर में नही हैं खाने को॥

घर की परवाह उसे कहाँ
सिर्फ दिखावा प्यारा है।
जब पैसे की खनक बड़े
तब हो जाता न्यारा है॥

लगा सके न जहा रुपईया
तंग हाल में, वो घर प्यारा हैं।
सिर छुपाने जगह नही तो
तब होता वहीं गुज़ारा है॥

कटे विधुत खंडहर हो घर
उसकी आँख नही झुकती।
नाक कटे दुनिया भर में
पर डिन्गा फांक नही रुकती॥

दिल दुखते हो लोगों के
तो खुद खुशहाल नही होते।
तीरथ कर लेने से केवल
खुश भगवान नही होते॥

दुराचार की संगत से तो
यज्ञ भी नष्ट हो जाते हैं।
मन मे छल हो तीरथ से
क्या दूर कष्ट हो जाते हैं॥

जितना कष्ट देता सब को
तेरा परिवार भी झेल रहा।
ईश्वर खेल रहा हैं तुझसे
तू क्या सब से खेल रहा॥

सकल देखकर, भी न जाना
नट धर्मी की रंगत से।
धर्मी के सब कर्म नष्ट हो
इक कपटी की संगत से॥

चलो तीर्थ या धर्म करो
पुण्य करो या कर्म करो।
घर में पहाड़ हो विपदा का
कर्म करो क्या धर्म करो॥

सारे तीरथ घरमें होंगे
सब दुःख, सुख में ढल जाएंगे।
तुझसे सारे खुश होंगे जब
सारे दिल, खिल जाएंगे॥

भटक रहा है अंधकार मे
मन की आँखे खोल जरा।
तू प्रेम रखेगा सब से तो
जगदीश यही मिल जाएंगे॥

परिचय :- योगेश पंथी
निवासी : टीलाजमालपुरा भोपाल (भोजपाल) मध्यप्रदेश
राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच से लेखन यात्रा प्रारंभ ….
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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