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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – २३

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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दूसरे दिन स्कूल जाते वक्त सुशिलाबाई मुझे एक बार फिर स्कूल जाने का बोल कर गयी। मैंने उनकी बात का कोई जवाब ही नहीं दिया पर स्कूल के समय चुपचाप तैयार होकर सुरेश के साथ स्कूल गया। बीच की छुट्टी में मैंने सुरेश को सब बताया। मैं सुरेश को एक तरफ ले गया और उससे कहा, ‘तुम्हें मालूम है क्या कि इन सुशिलाबाई की इच्छा अपने दादा से शादी करने की है?’
‘करने दो। अपने को क्या करना है?’ सुरेश का जवाब मुझे निराश करने वाला था।
‘अरे, पर इससे तो वें हमारी सौतेली माँ हो जाएंगी?’
‘होने दो। हमें क्या फर्क पड़ने वाला है?’
अरे, पर वो तो घर का कुछ भी काम ही नहीं करती?’
तो माँजी होती है ना साथ में। वही तो करती है सब काम।’ सुरेश बोला।
‘पर मुझे वें दोनों बिलकुल अच्छी नहीं लगती।’ मैंने कहां।
‘पर दादा को तो ताई अच्छी लगती है? एक दिन दादा राजाभाऊ को कह रहे थे की उन्हें वें बहुत अच्छी लगती है और उन दोनों का एक दूसरे के ऊपर बहुत प्रेम भी है और वें आपस में शादी भी करना चाहते है।’
‘पर मुझे वें दोनों पसंद नहीं और मुझे यहां रहना भी नहीं है। मुझे काकी के और नानाजी के पास ग्वालियर जाना है। मुझे उनकी बहुत याद आ रही है।’ मैं रोने लगा।
‘तू मत रो।’ सुरेश बोला,’ हम दादा को चिट्ठी लिखेंगे। तू भी अलग से नानाजी को पोस्टकार्ड भेज कर उसमें सब लिखदें। वों तेरे को यहां से आकर ले जाएंगे। मेरी बात अलग है मुझे तो जहां दादा कहेंगे और रखेंगे वहां रहना पड़ेगा। बचपन से दादा के पास रहता आया हूं अब मैं कहां जाऊँगा?’
कुल मिलाकर मेरा सफ़र मेरा अकेले का ही थी पर मेरा तो रास्ता भी अनजान और सुनसान था। लेकिन सुरेश ने मुझे एक मार्ग बता दिया था। मैंने ग्वालियर नानाजी को पोस्टकार्ड लिख कर भेजने का तय किया। माँजी ने दिनकर से पोस्टकार्ड मंगवाए थे। मैंने और सुरेश ने एक एक पोस्टकार्ड उनसे मांग लिए थे। माँजी ने भी ख़ुशी ख़ुशी हमें एक एक पोस्टकार्ड दे दिया था। दिनकर से ही सुरेश ने अच्छे अक्षरों में दादा का और मैंने नानाजी का पता लिखवाकर रख लिया था। मैंने अपना कार्ड अपने बस्ते में रखा था।
अगला दिन कुछ और भी अलग था। सुशिलाबाई के स्कूल जाते ही माँजी ने मेरे सामने झाड़ू रखी और बोली, ‘आज से दोनों कमरों में और छत पर झाड़ू तुम्हें लगानी है। कचरा इकठ्ठा कर नीचे सडक पर कोने में जहां कचरे की जगह है वहा डाल कर आना। बाद में दोनों कमरों में और छत पर पोछा भी लगाना। यह काम रोज बिना नागा होना चाहिए।’
मैं तो माँजी की ओर देखता ही रहा। मुझे उनसे यह उम्मीद ही नहीं थी। मैं कुछ भी नहीं बोला और नाहि अपनी जगह से हिला। बाद में तो मैंने उनकी ओर से अपना मुंह भी फेर लिया। फिर माँजी ने सुरेश को काम बताया कि बर्तनवाली ने जो बर्तन मांजकर और धोकर नीचे रखे है वें ऊपर लाना और उन्हें फिर से धोकर जगह पर जमा कर रखना। उसके बाद नीचे से ही बाल्टी बाल्टी से पीने के पानी का मटका और रसोई के लिए पीतल का हंडा भर कर रखना। इसके बाद रोज इस्तेमाल के लिए कुछ बाल्टी पानी टंकी में भी भर कर रखना। सुरेश भी अपनी जगह से बिलकुल नहीं हिला। हम दोनों उनकी बात अनसुनी कर रहे है यह देख माँजी बडबडाते हुए वहां से चली गयी। हमारा भाग्य अच्छा था जो हमें समय पर खाना मिला और समय पर ही हम स्कूल पहुच गए।
शाम को जब स्कूल से हम घर वापस आए तो सुशिलाबाई की अदालत में माँजी ने हमारी पेशी करवाई। माँजी के बताए हुए काम ना करने के लिए सुशिलाबाई ने हमसे जवाब मांगा। हम दोनों खामोश ही रहे।वें बार बार पूछती रही और हम हर बार ख़ामोशी ओढ़ते रहे। एक बार, दो बार, तीन बार उनका पूछना हो चुका था।अचानक सुशिलाबाई को मालूम नहीं क्या हुआ वे फरमान छोड़ कर अलग हो गयी, ‘तुरंत माँ ने बताएं हुए काम पूरे करो नहीं तो रात का खाना नहीं मिलेगा।’
नल में सुबह पानी एक समय ही आता था और बर्तनों के बिना काम रुक जाता इसलिए माँजी सुबह ही बर्तन ऊपर ले आई थी अत: सुरेश के लिए बताए हुए काम करना संभव ही नहीं था, इसीलिए सुरेश चुपचाप ही बैठा रहा। सुरेश चुपचाप था इसलिए मैंने भी कोई हलचल नहीं की।हम दोनों की नाफ़रमानी से सुशीलाबाई का गुस्सा तो सातवे आसमान पर पहुच गया। उस रात सच में हमें खाना नहीं मिला और भूखे ही सोना पड़ा। जिन माँजी ने हमारी शिकायत की थी उन्होंने सुशिलाबाई को बहुत कहां हमें खाना देने के लिए पर मालूम नही उस दिन क्या हुआ था वें कुछ भी सुनने को तैयार ही नहीं थी।
अजनबी और पराई सुशिलाबाई मुझे सजा सुनाकर अलग हो गयी। सच तो यह है कि मुझे दंड देने का उन्हें अधिकार ही क्या है? कौन लगती है वें मेरी? पर ये कौन पूछेगा उनसे? दादा नहीं, नानाजी नहीं, काकी नहीं, और काकी के रामजी भी नहीं। फिर तो इस जीवन में मुझे आज रात में भूखा रहने की सजा भुगतनी ही थी। माँजी और सुशिलाबाई सो गयी। मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था। सब गुस्सा दादा पर आ रहा था। उन्हीके कारण मेरे ऊपर यह विपदा आई है। सुरेश का मालूम नहीं पर मैं यही सोच रहा था कि यहां से निकलना कैसे हो सकता है?
भूख सहन हो नहीं रही थी। काकी की और नानाजी की याद तीव्रता से आने लगी। ऊपर से बेबसी। मुझे तो रोना ही आगया। अंधेरे में मेरी हिचकियां निकल रही थी। ऐसे ही में मुझे किसी ने अपने हाथों से हिलाया। धीमी आवाज में कोई कह रहा था, ‘बाळ, चलो खाना खा लो।’ मैं उठ बैठा। मैंने देखा वें माँजी थी। माँजी मेरा हाथ पकड कर मुझे सामने रसोईघर में ले कर आ गयी। मैंने देखा सुरेश वहां पहले से ही बैठा आराम से खाना खा रहा था। माँजी ने मेरी भी थाली परोसी। हम दोनों जल्दी जल्दी खाना खाने लगे। माँजी की बडबड शुरू ही थी, ‘दूसरों के बच्चों को सम्हालने के लिए लाना ही क्यों? छोटे मासूम बच्चों को कोई इस तरह भूखा रखता है भला? कैसे भी कर के इन बच्चों को उनके हक़ के घर उज्जैन में भिजवाना ही होगा। वही ये बच्चें सुखी रह सकते है। सुशीला को कैसे समझाए। यही तो मुश्किल है।’
दूसरे दिन माँजी ने फिर मुझे झाड़ूपोछे के लिए कहा। कल रात को मैं जब भूख से व्याकुल हो रो रहा था तब माँजी ने अपनी बेटी की परवाह न कर मुझे चुपके से खुद होकर बड़े प्रेम से खाना खिलाया था। अब इस उपकार के बदले मुझे भी तो कुछ चुकाना ही था। इसलिए अब के मैंने चुपचाप अपने हाथ में झाड़ू लेली। जैसे भी जमा कचरा साफ़ किया फिर सारा कचरा नीचे सडक पर डाल कर आया। बाद में मैंने जैसा भी मुझे जमा सब जगह पोछा भी लगाया। माँजी को मुझमें हुआ यह परिवर्तन देखकर ख़ुशी हुई। उन्होंने मेरी जम कर तारीफ़ भी की। अब मेरे को एक बात अच्छी तरह से समझ में आ गयी कि भूखे पेट रहकर मैं कुछ भी नहीं कर सकता। नानाजी के पास जाना हो तो ऐसे भूखे रहकर, नाराज हो कर और इन्हें नाराज कर मैं कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। यहां मेरा कोई नहीं है इसलिए मुझे थोडा समझदारी से और नरमाई के साथ रहने की जरुरत है। माँजी ठहरी बुजुर्ग वें तो पहले से ही जानती थी कि प्यार के दो मीठे बोलों से किसी को भी वश में किया जा सकता है। सीखने की जरुरत तो मुझे ही थी परन्तु सुरेश ने बताया हुआ कोई भी काम नहीं किया था।
शाम की दिया बाती के समय सुशिलाबाई माँजी से बोली,’कल रात को तुमने बाळ-सुरेश को खाना दिया तब मैं जाग ही रही थी। अब आज क्या?’
‘फिर क्या? दिया खाना मैंने। क्या कहना हैं तेरा?’ माँजी बोली,’ सुशीला, दूसरों के बच्चों को ऐसा भूखा रखने का हमें भला किसने अधिकार दिया है ?’
‘नहीं, खाना दिया ये अच्छा किया पर इन्हें दूसरे के बच्चें मत कहो।’ सुशिलाबाई बोली।
‘हो गया क्या तुम्हारा शुरू फिर वही पुराण?’ माँजी बोली, ‘इतना ही था तो फिर इन्हें भूखे रहने की सजा क्यों दी?’
‘माँ, इनके भले के लिए। इनको कठोर अनुशासन में रहना ही होगा। संस्कार और चरित्र का पहला पग है अनुशासन।’ सुशीलाबाई बोली।
‘धन्य है तू और धन्य तेरा अनुशासन।’ माँजी बोली, मैं रसोई की तयारी करती हूँ I नहीं तो आज भी बच्चों को तुम भूखा ही सुलाओगी।’ माँजी हँसते हुए बोली और रसोईघर में गयी।
‘तुम बडा भूखा सोने दोगी बच्चो को?’ सुशीलाबाई भी हंसते हुए बोली।
‘सुशीले,पर ये सुरेश पानी भरता ही नहीं है। नीचे से पानी लाकर भरना अब मुझसे नहीं होता। पानी भरने के लिए किसी को रखना पड़ेगा।’ माँजी बोलीI
‘सुरेश तुम पानी क्यों नहीं भरते? माँ को कितनी तकलीफ होती है? ‘ सुशीलाबाई ने सुरेश से पूछा। ‘मुझे पढ़ाई बहुत करनी पड़ती है। पिछली पढ़ाई भी बहुत रह गयी है। मुझसे नहीं होगा।’ सुरेश बोल कर अलग हो गया। ‘माँ, सुरेश का कहना सही है। यहां स्कूल में इनका दाखला भी देरी से हुआ है। उसकी पिछली पढ़ाई के लिए उसे अलग से समय देना ही होगा। फिर वो अब पांचवी में है पढ़ाई भी ज्यादा है। पानी भरने के लिए कोई व्यवस्था करनी होगी। बोलती हूं किसी को तब तक तुम बाळ को पानी भरने का बोला करो। छोटी बाल्टी से भर लेगा।’ सुशिलाबाई एक बार फिर मेरे लिए फरमान निकाल कर अलग हो गयी। अब मैं झाड़ूपोछा भी करता, पानी भी भरता और बर्तनवाली के साफ़ किये बर्तन भी नीचे से लाकर फिर से उन्हें धोकर जगह पर रखने लगा। माँजी के काम में मददगार होने से अब माँजी मेरी सबके सामने बहुत तारीफ़ करने लगी। कभी कभार मुझे खाने के लिए कुछ मीठा भी देने लगी। मैं माँजी का लाडला सा हो गया पर अब वो मुझसे इधर उधर के काम भी करवाने लगी।
सुरेश को घर का काम न करने की एक तरह से छूट मिली हुई थी और उस पर सुशिलाबाई ने मोहर भी लगा दी थी इसलिए माँजी ने सुरेश को कुछ कहना ही छोड़ दिया था। अब मुझे सुरेश से जलन होने लगी। खुद के पराया होने की तीव्रता महसूस होने लगी। सुरेश दादा का लाडला था इसलिए वह सुशिलाबाई का भी लाडला था। ऊपर से सुरेश पांचवी में था। भले ही वह मुझसे दो कक्षा आगे हो और उसकी पढ़ाई मेरे से ज्यादा थी, पर मैं भी तो तीसरी कक्षा में था। मेरा दाखला भी तो देरी से ही हुआ था, और मेरी भी पढ़ाई और गृहपाठ होना ही था, पर घर का सारा काम मझे अकेले को और सुरेश को कुछ नहीं? यह कहां का न्याय है? मुझे नानाजी की याद आई। उनकी सीख मैंने गांठ से बांध ली थी। वें कहते थे कि कक्षा में मास्टर जी जो पढ़ाते है अगर उसे एकाग्रता से मन लगाकर समझा जाय तो अच्छी तरह से हमारे सब समझ में आ जाता है और हमें याद भी रहता है। इस कारण हमें गृहपाठ करना भी आसान हो जाता है। यही सीख मेरी आदत बन गयी थी और मैं अपना गृहपाठ भी स्कूल में ही करता। उज्जैन में तो रानडे मास्टरजी ने बोल कर भी बताया था कि भले ही मैं तीसरी कक्षा में था पर मुझे सब चौथी कक्षा का भी आता है। यह सुशिलाबाई मास्टरनी को कौन बताएगा?
सुरेश की यहां मित्र मंडली अलग थी। ग्वालियर और उज्जैन जैसा मेरा यहां कोई मित्र ही नहीं था इसलिए शाम के खेल भी नहीं थे। थोड़े बहुत खेल होते वो स्कूल में बीच के अवकाश में ही होते वरना घर पर तो अब मेरा समय अक्सर माँजी के बताये काम करने में ही व्यतीत होता। वही मेरी जिंदगी के कडवाहट भरे अनुभव कह लिजिये या खेल कह लिजिये, जो कुछ थे वही थे। वैसे माँजी का मुझे काम कहना भी बढ़ गया था। अब वे मुझे अपने साथ सब्जीमंडी और बाजार भी ले कर जाती और मेरे दोनों हाथों में थैलियां रहती। मुझे चक्की पर गेहू पिसाने भी जाना पड़ता। मुझे अब इन सब के कारण तकलीफ होने लगी। चिडचिडाहट भी होती। दोनों समय का खाना और दो कप चाय ने मुझे इस घर का नौकर बना कर रख दिया था। पर इससे छुटकारे का कोई रास्ता मुझे दिखाई नहीं दे रहा था। आखिर में एक दिन मैंने स्कूल में बीच के अवकाश में सुरेश के हाथों नानाजी को पोस्ट कार्ड लिखवाकर मुझे होने वाले सारे कष्ट बताये। पोस्टकार्ड पर दिनकर से पता पहले ही लिखवाकर लेने से, मैंने पोस्टकार्ड को स्कूल के पास के लालडब्बे में डाल दिया। लालडब्बे में पोस्टकार्ड के डालते ही मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने बहुत बड़ी कोई विजय हासिल कर ली हो। मुझे पक्का विश्वास था कि पोस्टकार्ड मिलते ही नानाजी यहां आयेंगे और मुझे ग्वालियर ले जायेंगे।

इसके कुछ दिनों बाद ही एक रविवार की सुबह बम्बई से एक सज्जन पधारे। माँजी और सुशीलाबाई उन्हें देखकर बहुत खुश हुई। माँ-बेटी इन्हें अण्णा कहकर बुला रही थी मुझे याद आया कि माँजी ने कुछ दिनों पहले ही दिनकर से एक पोस्टकार्ड भिजवाकर इन्हें आने के लिए लिखवाया था। मेरे ध्यान में आया कि इसका मतलब यह कि आज दादा भी आ सकते है। दादा और सुशीलाबाई के विवाह की चर्चा भी होगी ही। दादा आने वाले है इस कल्पना से मुझे और सुरेश को भी बहुत ख़ुशी हुई। मैंने तय किया कि मैं दादा से कहूंगा कि वें मुझे वापस उज्जैन अपने साथ ले कर जाए। मुझे यहां नहीं रहना। दादा से मैंने यह भी कहने का तय किया कि वें ख़ुशी ख़ुशी सुशिलाबाई से शादी करे पर मुझे मेरे नानाजी के यहां ग्वालियर छोड़ने की व्यवस्था करे। ग्वालियर में काकी भी है और मेरे सभी मित्र भी है। यहां तो मेरा कोई भी नहीं ऊपर से मुझे सब घर के काम करने पड़ते है और मेरी हालत तो नौकरों से भी बदतर है। नौकरों को कम से कम मेहनाता तो मिलता है? पर यहां तो बिना पगार के काम करना पड़ता है। जरुरत पड़ी तो मैं जिद कर लूंगा पर कुछ भी हो जाए अब यहां मैं नहीं रहने वाला। दादा मेरी बात मानेंगे ऐसा मेरा अंदाज था।
दादा के आने का मेरा अंदाज सही साबित हुआ और अण्णा के पीछे पीछे दादा भी आगए। मैंने और सुरेशने दादा के साथ अण्णा के भी चरण स्पर्श कर दोनों के आशीर्वाद लिए।
अण्णा को देखकर मुझे बहुत ताज्जुब हुआ। उनकी वेशभूषा बिलकुल नानाजी जैसे थी। पुणेरी लहजे की सफ़ेद झक्क धोती उस पर सफ़ेद लम्बा कुर्ता। लम्बा पुणेरी सूती काला कोट। काली टोपी। पैरों में कोल्हापुरी चप्पलें। कोकणस्थ ब्राह्मण अण्णा खूब गोरचिट्टे और ऊँचे थे। उनके आते ही माँजी ने दोनों के लिए चाय बनाई। चाय बनने तक दादा और अण्णा मेरे से और सुरेश से हमारे स्कूल और पढ़ाई के बारे में जानकारी लेते रहे। दोपहर को खाना खाने के बाद अण्णा और दादा ने थोडा विश्राम किया। ठीक समय पर माँजी ने दोपहर की चाय बनाई और चार बजे के लभभग इन चार बड़ों की बैठक शुरू हुई।
मैं और सुरेश दरवाजे के बाहर अष्टाचंगा खेल रहे थे। काली गिट्टी के चार टुकड़े मेरी गोटियां थी और सफ़ेद गिट्टी के चार टुकड़े सुरेश की गोटियां थी। इमली के बीज को फोड़ कर हमने खेलने के लिए पांसे बनाये थे। छत पर ही खाड़ियां से खेलने के लिए रेखाओं का पट बनाया था। हम लोग खेल जरुर रहे थे पर हमारा सारा ध्यान अन्दर हो रही बातचीत की ओर था इसीलिए हम जान बुझकर दरवाजे के पास ही कान लगाए बैठे थे। मेरा तो सारा भविष्य और यहां से छुटकारा अन्दर हो रही बातचीत पर ही निर्भर था। चर्चा की शुरवात माँजी ने की। वे दादा से बोली,’ देखें क्या आपके लाडले के कारनामे?’
‘क्या हुआ?’ दादा ने पूछा।
‘नहीं आप तो ले ही जाओं आपके लाडलों को यहां से।’ माँजी बोली।
‘माँजी पर हुआ क्या?’ दादा को आश्चर्य हुआ।
‘जनाब ने ग्वालियर अपने नानाजी को पोस्टकार्ड भेजा है। हमारे बारे में मालूम नहीं क्या क्या लिखा है? हमारी शिकायत की है कि हम घर का सारा काम इससे कराते है। वें क्या सोचेंगे हमारे बारे में? यही ना कि बिन माँ के बच्चें को हम यातनायें दे रहे है। नहीं …नहीं …अब .. बहुत हो गया। आप तो अब बाळ-सुरेश को यहां से ले ही जाओ उज्जैन।’ माँजी का गुस्सा फूट पड़ा।
‘यह कैसे संभव है? कैसे हो सकता है?’ दादा को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ, ‘माँजी पहले आप शांत हो जाइयें।’ ‘भरोसा नहीं हो रहा है ना? अण्णा यह लो चिट्ठी, पढ़कर सुनाओं सब के सामने।’ माँजी ने एक चिट्ठी अण्णा के हाथ में दे दी। उनका गुस्सा थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। शायद माँजी का अपनी बेटी के ऊपर का गुस्सा भी कुछ इस तरह फूट पड़ा हो। ‘माँ, अभी रहने दो ना बाद में देखेंगे।’ अब सुशिलाबाई बीच में बोल पड़ी।
‘बाद में क्यों? जो कुछ है सब अभी ही सामने आने दो एक बार में। शादी के बाद ऐसा कुछ हुआ तो शायद मैं न रहूं वहां तुम्हे सम्हालने के लिए। अण्णा कुछ भी ध्यान मत दो सुशीला की बातों पर, तुम चिट्ठी जोर से पढो। ‘ माँजी अण्णा को फरमान सुना कर अलग हो गयी ।अण्णा ने हाथ की चिट्ठी जोर से पढना शुरू किया।
‘सुशिलाबाई को ग्वालियर से रामचंद्र का प्रणाम।
आपकों क्या संबोधित करूं इसका विचार बहुत देर तक मुझे परेशान करता रहा पर कोई भी नाता रिश्ता और सम्बन्ध न होने से कुछ समझ में नहीं आया अत: आपको नाम से ही संबोधित कर रहा हूं। आशा है आप अन्यथा नहीं लेंगी। हमारा आपका कोई भी परिचय नहीं है, पर हमने आप के बारे में बहुत कुछ सुना है और हमारे दामादजी से भी आपका पुराना परिचय है। हमारी बिटिया की शादी से भी पूर्व की पहचान है आप दोनों की। ज्यादा लिखना हमारे लिए उचित नहीं होगा पर हम आपसे यह पूछना चाहते है कि किस अधिकार से आपने हमारे दोनों नाती को खुद के वहां बुरहानपुर में रख लिया है?
हमारे दामादजी ठीक आठ वर्षों के बाद खुद ग्वालियर आकर चिरंजीव बाल्याजी को खुद के साथ उज्जैन ले कर गए थे। हम तो चिरंजीव बाल्याजी की देखभाल कर ही रहे थे पर दामादजी ने हमें भरोसा दिलाया था कि वे चिरंजीव बाल्याजी की देखभाल ठीक से करेंगे। दामादजी खुद अपने बच्चें की देखभाल ठीक से करेंगे इसी विश्वास के साथ हमने पिता पुत्र के बीच किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया। दामादजी ने एक माह भी चिरंजीव बाल्याजी को नहीं सम्हाला और उन्हें आपके वहां सम्हालने के लिए भेज कर खुद आजाद हो गए। मुझे यह लिखते हुए दु:ख है कि दामादजी ने अपनी जवाबदारी को ठीक ढंग से नहीं निभाया। दामाद जी को तो हम पत्र लिखेंगे ही और उनसे पूछेंगे भी कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? फिर भी हमारा आपसे निवेदन है कि पत्र मिलते ही आप तुरंत चिरंजीव सुरेश और चिरंजीव बाल्याजी को किसी के साथ हमारे यहां ग्वालियर में पहुचाने की व्यवस्था करे। ऐसा न होने पर हम खुद आपके यहां आकर हमारे बच्चों को इधर ग्वालियर में लेकर आयेंगे।
एक और बात है, छोटे बच्चों से आप घर के सारे काम लेती है ऐसा हमें पता पड़ा है। झाड़ू लगाना, पोछा लगाना, कपडे धोना, बर्तन साफ़ करना, पानी भरना, बाजारहाट जैसे काम मासूम बच्चों से करवाना ये बच्चों के साथ ज्याद्ती है और इसे किसी भी तरह योग्य नहीं कहा जा सकता। बच्चों की उम्र विद्या अध्ययन की होती है और उन्हें संस्कारित करने के लिए योग्य परवरिश की जरुरत होती है। आप खुद एक शिक्षिका होने के बावजूद भी आपके होते हमारे बाळ-सुरेश पर अन्याय हो रहा है यह दु:ख की बात है। हमारा आपसे विनम्र निवेदन है की घर के काम के लिए आप कोई और व्यवस्था कर ले।
ख़ास कर हमारा आपसे यह भी कहना है कि आज हमारी अक्का जीवित नहीं है और भले ही हमारे दामादजी ने बच्चों की जिम्मेदारी से अपने आप को अलग कर लिया हो तो भी हमारे नातियों को अनाथ समझने की गलती आप कतई न करे। पराए लोग हमारे नातियों की परवरिश करें, इतने खराब दिन भी हमारे अभी नहीं आयें है। हमारे नाती परायें लोगो के यहां बर्तन साफ़ करे, झाड़ू पोछा करे इतने असहाय भी हम लोग नहीं है। रामजी की कृपा से हमारे नातियों की अच्छे से देखभाल करने में हम समर्थ है।
अब ज्यादा कुछ न लिख कर इतना ही कहेंगे कि रामजी आपको सद्बुद्धि दे। वैसे आप खुद समझदार है। चिट्ठी में लिखे अनुसार बच्चों को शीघ्र ग्वालियर भेजने की व्यवस्था आप करेंगी ऐसी अपेक्षा है। बच्चों की हम यहां प्रतीक्षा कर रहे है। आपकी माताश्री को हमारा प्रणाम और चिरंजीव बाल्याजी और सुरेश को आशीष। सद्भावना बनाए रखे यही विनंती।
-आपका,
-रामचंद्र !

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – २४ में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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