विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.
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बुरहानपुर में महाजनी पेठ के एक किराए के मकान में पहली मंजिल पर दो कमरों में सुशीलाबाई और उनकी माँ रहती थी। सुशीलाबाई को सब ताई और उनकी माँ को सब माँजी कहते है यह दादा मुझे उज्जैन में बता चुके थे। संडास और नहाने के लिए नीचे तल मंजिल पर जाना होता था। नल भी नीचे ही थे और पानी भी नीचे से भर कर लाना पड़ता। सुशीलाबाई ने जो दो कमरें किराए से लिए थे उन दो कमरों के बीच में थोड़ी खुली छत भी थी। एक कमरें में रसोई और दूसरे में सोना ऐसी इनकी गृहस्थी की व्यवस्था थी। बगल के एक कमरें में ही दिनकर और सुभाष नामके शाहपुर के दगडू चौधरी के दो लड़के भी पढ़ाई के लिए यहां किराये से रहते थे। ये दोनों लड़के थोड़े बड़े थे और कॉलेज में पढ़ते थे।
इन मा-बेटी से मेरा कोई विशेष ज्यादा परिचय तो था नही। सिर्फ उज्जैन में हुई एक दिन की मुलाकात थी पर सुरेश का उनका अच्छा परिचय ही नहीं अच्छी घनिष्टता भी थी। सुरेश दादा के साथ शायद कई बार यहां आ चुका था इसलिए वह इन माँ-बेटी से अच्छी तरह घुल मिल गया था। सुरेश का तो दिनकर और सुभाष से भी अच्छा परिचय था।
डेढ़ महीने से भी कम समय में काकी, नानाजी और ग्वालियर के सब अपनों को छोड़ दादा के पास से होते हुए अब ये दो अपरिचित अनजान माँजी और सुशीलाबाई। इस उठाधराई के बाद अब मेरा नसीब मुझे और कहां ले जाने वाला है यही विचार मुझे स्वस्थ नहीं बैठने दे रहा था। अनजान जगह और अनजान लोगों के साथ कैसे रहें? इस जगह इन माँ-बेटी के साथ नहीं रहना यह निर्णय मैं ले चुका था। पर मेरे इस निर्णय को अमल में लाना मेरे लिए संभव नहीं था। काकी जैसा कोई मजबूत आधार और मेरी ओर से बोलने वाला यहां कोई नहीं था इसलिए मैंने तय किया कि थोड़ा सम्हल कर रहने की आवश्यकता है। थोडी सब्र से और थोडा दब कर रहने की जरुरत है। समय आने पर नानाजी को किसी तरह से खबर पहुचानी होगी ताकि वें मुझे आकर यहां से छुड़ा कर ले जाएंगे। इस ख़याल से मुझे थोड़ी तस्सल्ली हुई।
दूसरे दिन की सुबह मेरे लिए कुछ अलग ही थी। घडी में प्रात: साढ़े पांच बजे अलार्म बजते ही सब उठ बैठे। मैं भी घबरा कर उठ बैठा। माँजी तो पहले ही जग गयी थी। उनका नहाना भी हो गया था और वें प्रात: वंदना कर रही थी। मैंने उनके मुंह से एक नया भक्ति गीत सुना। आराध्य गणेश की आराधना सब को जगाने के लिए, ‘उठिए सकल जन, वाचा से स्मरण करे गजानन’ यह मैंने माँजी की मधुर वाणी में सुना। मुझे बहुत अच्छी लगी यह गणेश आराधना। वहां ग्वालियर में सब रामजी की माया थी। यहां पर गणेशस्तुति सुन मैंने मन में तय किया कि मैं यह आराधना कंठस्थ करूंगा और ग्वालियर जा कर काकी को सुनाऊंगा तो उनको बहुत ख़ुशी होगी।
माँजी ने स्टोव जलाया और उस पर चाय बनाने के लिए बर्तन में पानी गर्म होने हेतु रख दिया। सुशीलाबाई ने मुझे और सुरेश को अपने बिस्तर घडी कर जगह पर रखने को कहां। मुंह धोने के बाद उन्होंने ने सुरेश को और मुझे भगवान को नमस्कार करने को कहां। उज्जैन जैसा ही मैंने यहां भी तय किया था कि जैसा सुरेश करेगा वैसा ही मैं करूंगा। वैसे भी मुझे ज्यादा बोलना अच्छा नहीं लगता। सुरेश ने ‘ वक्रतुंड महाकाय ….. का पाठ किया, मैंने भी उसकी नक़ल की।
‘अरे व्वा …. वक्रतुंड ….आता हैI’ सुशीलाबाई ने ताना मारा, ‘मुझे लगा नानाजी ने कुछ सिखाया हैं या नही? अब सब पता पड ही जाएगा।’ फिर वें अपनी माँ से बोली, ‘माँ, इनसे’ कराग्रे वसते लक्ष्मी …. भी कहलवा लो …I ‘माँजी ने पहले खुद ‘कराग्रे वसते लक्ष्मी .. कर मध्ये सरस्वती ..’ पुरे श्लोक कहे। फिर हम से कहलवाएं। वैसे तो मुझे बहुत सारे श्लोक याद थे पर आज यहां एक दो श्लोक के लिए मैं थोडा अटक गया। मांजी बोली, ‘होगा ..धीरे ..याद हो जाएगा। चिंता मत करो।’ इसके बाद माँजी ने हमें चाय दी। बडा अच्छा लगा। ग्वालियर में तो पंतजी ने चाय पर पाबंदी ही लगाई थी। उज्जैन में दादा रोज दूध के लिए कहते। इसलिए थोडा सा बदल .. माँजी के हाथ की बढ़िया चाय पी कर मन प्रसन्न हो गया। सब का चायपान का कार्यक्रम होने के बाद सुशीलाबाई बोली,’ देखो बाळ-सुरेश अपने अपने कप धो कर जगह पर रखना है।’ हम दोनों ने कप धोकर रख दिए। फिर वें अपनी माँसे बोली,’ माँ, बाळ-सुरेश के ज्यादा लाड नहीं करना। इन्हें कठोर अनुशासन में ही यहां रहना होगा।उज्जैन के सारे कारनामे मुझे पता पड गए है। इसलिए बाळ को तो झाड़ू पोछे से काम सिखाना शुरू करो।’
झाड़ू लगाते मैंने सब को देखा था और इस कारण मुझे आता भी है। यें झाड़ूपोछा क्या होता है? पर मैं उनकी इस बात पर मैं खामोश ही रहा।जो भी हो बाद में देखेंगे। सुरेश झाड़ूपोछा सीखता है तो मैं भी सीख लूँगा। देखे क्या होता है? पर माँजी ही बोल पड़ी,’आज रहने दो कल से देखेंगे।’
सुशीलाबाई का सुबह सात बजे का स्कूल। उनके लिए माँजी की भागादौड़ी हो रही थी। वें भी जल्दी मचा रही थी। माँजी ने सबसे पहले नीचे जाकर गरम पानी के लिए सिगड़ी जलाई और उस पर पानी गर्म होने के लिए रखा। थोड़ी देर बाद सुशीलाबाई के नहाने के लिए बाल्टी में गरम पानी निकाल कर रखा। फिर उनके लिए कपडे भी नीचे रख कर आई। सुशीलाबाई तैयार हो कर स्कूल चली गयी। जाते जाते माँजी को बोल गयी,’ माँ, बाळ-सुरेश का बारा बजे का स्कूल है। उनके दाखिले का मैं देख लूंगी। आज पहले दिन उनको दिनकर के साथ समय पर स्कूल भेज देना।’
सुरेश का और मेरा नहाना हो गया। माँजी ने हमसे हमारे कपडे खुद ही धुलवाएं और उन्हें सूखने भी डलवाएं। उसके बाद वे रसोई में लग गयी।ग्याराह बजे हमारा खाना भी हो गया। इसके बाद माँजी ने दिनकर को आवाज लगाई। बगल वाले कमरे से वो तुरंत आ भी गया। माँजी दिनकर से बोली, ‘अरे दिनकर, इन दोनों को स्कूल छोड कर आओ। दोनों का अब यहीं दाखिला कराना है।’
‘मुझे मालुम है माँजीI’ दिनकर को सब जानकारी थी।
सुरेश तैयार हो गया पर मैं अपनी जगह बैठा ही रहा। जीवन में पहला विद्रोह करने के लिए मैं अपने आप को तैयार कर रहा था। दिनकर मेरे पास आया और बोला, ‘तैयार नही हुए? जल्द तैयार हो जाओं। स्कूल जाना है न?’
मैं कुछ भी नहीं बोला और अपनी जगह ही बैठा रहा।
‘चलो जल्द तैयार हो जाओ। ताई बोल कर गयी है ना?’ अब सुरेश बोला।
मैं फिर भी कुछ नहीं बोला। वैसे ही अपनी जगह बैठा रहा। फिर माँजी आई, ‘अरे बाळ जल्द तैयार हो जाओ। स्कूल नहीं जाना क्या?’ मैं फिर भी कुछ नहीं बोला और अपनी जगह से बिलकुल हिला भी नहीं।
‘क्या लड़का है? स्कूल नहीं जाना तो करना क्या है फिर?’ बहुत ही बिगडैल और जिद्दी दिख रहा हैं?’ माँजी बोली। मुझ में फिर भी कोई हालचाल न देख माँजी बडबडाते हुए निकल गयी और आखिर दिनकर भी अकेले सुरेश को ही लेकर स्कूल गया।
दोपहर एक के लगभग सुशीलाबाई स्कूल से घर आयी। पर वें ऊपर नहीं आयी नीचे ही रुकी थी। माँजी ने फिर नीचे जाकर उनके लिए बाल्टी में गरम पानी रखा। बदलने के लिए कपडे रखे। वें नहा कर ही ऊपर आई। मेरे लिए यह विचित्र और आश्चर्यजनक था। वें तो सुबह ही नहा कर स्कूल गयी थी। छोडो मुझे क्या? मेरा यह विषय नहीं हैं फिर मैं क्यों अपना सर खपाऊँ। माँजी ने सुशीलाबाई को खाना परोसा। वही एक तरफ जमीन पर बैठ कर उन्होने खाना खाया। वें जब खाना खा रही थी तब माँजी ने मेरे बारे में बताया, ‘बाळ स्कूल नहीं गया। वैसे ही अपनी जगह पर बैठा है सुबह से।’
‘बैठा रहने दो उसे ऐसे ही। आज का स्कूल का नागा तो हो ही गया है कल देखेंगे क्या करना है?’ सुशीलाबाई बोली।
सुशीलाबाई का खाना होने के बाद माँजी खाना खाने बैठी। सुशीलाबाई वही जमिनपर ही थोड़ी देर लेट गयी। अपना खाना होने के बाद माँजी ने रसोई में सब समेटा और उसके बाद खुद के और सुशीलाबाई के सब कपडे धोकर सुखाने डाले। ये सब करते करते तीन बज गए। सुशीलाबाई के चाय का समय हो गया। माँजी ने फिर से स्टोव जलाया और बर्तन में पानी गर्म होने के लिए रख बर्तन को स्टोव पर रखा। मुझे भी चाय दी गयी। चाय पीने के बाद सुशीलाबाई ने माँजी से कंघी मांगी और वहीँ छत पर खड़े खड़े बाल संवारने लगी। उन्होंने माँजी से थोडा बालों में लगाने के लिए खोपरे का तेल भी माँगा। माँजी ने उनके के हाथ पर ही थोडा सा खोपरे का तेल भी डाल दिया। बाल संवारने के बाद सुशीलाबाई ने कंघी वहीँ मुंढेर पर रख दी। फिर माँजी ने कंघी पर थोडा पानी डाला और कंघी धोकर और पोंछकर जगह पर रख दी।
अब मेरे सामने एक बात लगभग स्पष्ट हो चुकी थी कि सुशीलाबाई घर के किसी भी काम में माँजी की कुछ भी मदत नहीं करती। माँजी को सब काम अकेले ही करना पड़ता है। लेकिन मेरे लिए यह आश्चर्यजनक था कि सुशीलाबाई अपना खुद का भी कोई काम नहीं करती। पांच बजे सुरेश स्कूल से वापस आ गया और हम दोनों छत पर दिनकर और सुभाष के साथ अंत्याक्षरी खेलने लगे। सूरज ढलने को था। माँजी एक बार फिर नीचे जाकर सुशीलाबाई के नहाने के लिए गर्म पानी से भरी बाल्टी रख आयी और बदलने के लिए कपडे भी रख आयी। इसके बाद माँजी ने दियाबाती की और शाम की रसोई बनाने लगी। सुशीलाबाई का तीन बार नहाना मेरे लिए भले ही एक आश्चर्य था पर सुरेश, दिनकर और सुभाष बिलकुल सामान्य से थे। उनके चेहरे पर किसी भी तरह के भाव नहीं थे। फिर यहीं कि यह मेरा विषय नहीं था। मुझे क्या? हर एक को अपने काम से काम रखना चाहिए।
रात का खाना होने के बाद सुशीलाबाई ने हम से हमारे बिस्तर बिछवाएं। सोने के पहले सुशीलाबाई मुझसे बोली, ‘बाळ आज स्कूल क्यों नहीं गए?’
मैंने उनकी की बात का कोई जवाब ही नहीं दिया। मुझे इस अजनबी सुशीलाबाई से बिलकुल ही बातचीत नहीं करनी थी। उन्होने फिर से पूछा,’ मैं क्या पूछ रही हूं? स्कूल नहीं जाना क्या तुमको ? और क्यों नहीं जाना ?’ मैंने फिर भी उनकी की किसी बात का जवाब ही नहीं दिया। वैसे ही खामोश बैठा रहा। फिर उन्होने ने सुरेश से कहा, ‘सुरेश बाळ से पूछो उसे स्कूल जाना है या नहीं ? और उसे मुझसे बात करनी है या नहीं?’ पर मैंने सुरेश की भी किसी बात का जवाब नहीं दिया। सुरेश मुझसे पूछपूछ कर थक गया और आखिर सुशीलाबाई से बोला,’कुछ नहीं बोल रहा है यह। वैसे भी ये बहुत कम बोलता है।’
‘अजीब लड़का है? नहीं बोलना है तो मत बोलो पर कल स्कूल जरुर जाना, यही मेरे लिए बहुत है।’ सुशीलाबाई बोली।
मैं दूसरे दिन भी मैं स्कूल नहीं गया। दिनभर की दिनचर्या में अलबत्ता कोई परेशानी नहीं थी। सिर्फ मैंने सबसे बोलना छोड़ दिया था। मेरी इच्छा भी नहीं थी किसी से बोलने की। सुशीलाबाई ने भी मुझसे कई बार स्कूल न जाने के बारे में बात करने की कोशिश की पर मैंने उनकी भी किसी बात का जवाब नहीं दिया।
तीन दिन हो गए मैं स्कूल नहीं गया। स्कूल में तीसरी कक्षा में सुशीलाबाई ने मेरा नाम लिखा रखा था। सुरेश का भी दाखला हो चुका था और उसकी पढ़ाई की शुरवात भी हो चुकी थी।सुरेश दिनकर के साथ जाकर अपनी किताबें और कॉपी वगैरे लेकर आ गया था। तीन दिन से मैं स्कूल नहीं जा रहा था इस लिए सुशीलाबाई मुझसे बेहद नाराज थी। रात का खाना होने के बाद सुशीलाबाई ने एक बार फिर मुझसे पूछा,’ बाळ तुम स्कूल जाने वाले हो या नहीं?’
मैंने फिर भी कोई जवाब नहीं दिया। फिर उन्होने ने सुरेश से कहाँ, ‘सुरेश,बाळ को बता दो अगर कल ये स्कूल अपने मन से नहीं गया तो दिनकर के साथ जबरन उसे स्कूल भेजना पड़ेगा।’
ये सुन कर मैं डर गया। अभी तक मैंने नानाजी के अलावा किसी के हाथ से मार नहीं खायी थी। अब क्या मैं अनजान शहर में अजनबी लोगों के हाथ से पिटवाया जाऊंगा? मैंने सुशीलाबाई की किसी बात का फिर भी कोई जवाब नहीं दिया पर इस बार माँजी भड़क गयी, ‘क्यों उसके पीछे पड़ी हो तुम? नहीं जाना स्कूल में तो मत जाने दे। करेगा हम्माली कही। तुम्हें क्या लेना देना? भरेगा अपना पेट किसी भी तरह से और मैं कहती हूं स्कूल जाकर कौन सा लाटसाहब बनने वाला है? अरे पराया बच्चा है। क्यों कर तो उसके साथ जोर जबरदस्ती करना। शोभा देता है क्या हमको? मेरे हजार बार मना करने के बावजूद भी तुमने बच्चों को यहां जबरदस्ती बुलवा लिया। यही तमाशा करने के लिए बुलाया था क्या? मैं तो कहती हूँ भेज दे वापस बच्चों को उनके बाप के वापस। तुमसे कुछ होता नहीं। मै भी अब बहुत थक गयी हूं, मुझसे भी अब कुछ नहीं होता। कहां कहां देखूंगी मैं? मैं कहती हूँ जरुरत ही क्या थी इस सब की? आ बैल मुझे मार? कितना भी करलो इनका फिर भी गैर के ही तो बच्चें है। कल को कुछ हो गया तो सारा दोष अपने माथे पड़ेगा। कौन जवाब देगा?’
माँजी गुस्से से बोल गयी पर उतने ही जोर से सुशीलाबाई ने जवाब दिया, ‘माँ, तुम्हें कितनी बार बताया है कि मेरे लिए ये बच्चें पराए नहीं है और गैर के बच्चे तो है ही नहीं।’
‘गैर के बच्चें नहीं है तो क्या रानी विक्टोरिया के बच्चे है?’ कमर पर हाथ रख उतने ही गुस्से से माँजी बोली, ‘बहुत अच्छे।खुद से तो कुछ काम होता नहीं और करना भी नहीं फिर सारे जग भर के बच्चें मैं ही सम्हालू क्या? मुझे तो नौकरानी बना कर रक्खा है तुम सबने। और सुशीला तू मुझे बता ऐसी कितनी तनखा है तेरी? सिर्फ नब्बे रुपल्ली। क्या होता हैं इतनी सी तनखा में? घर मुझे चलाना पड़ता है। नहीं नहीं। अब कतई सहन नहीं होता। क्यों बुलाया इन बच्चों को यहां पर? करता इनका बाप कुछ वहीँ पर व्यवस्था? तुम्हेँ इतना लगाव दिखाने की क्या जरुरत?’
‘माँ, तुम कही की बात कही पर ले जाती हो। अब बाळ के स्कूल जाने का मेरी तनखा से क्या सम्बन्ध?’ सुशीलाबाई अब थोड़ी शांत हो गयी।
‘नहीं कैसे है?’ माँजी का गुस्सा अभी ठंडा नहीं हुआ था,’ खर्च नहीं बढ़ता क्या? और रोज के काम का क्या? तुम सब लाटसाहब और मैं अकेली नौकरानी। यही तो चल रहा है कितने दिनों से? नहीं अब और नहीं सहा जाता। या तो इन बच्चों को तुरंत इनके बाप के पास वापस भेजों नहीं तो मैं पथरिया जाती हूं वही आराम से बुढ़ापा कट जाएगा। तू जाने तेरा काम जाने मैं चली।’
मेरे स्कूल न जाने से माँजी इतना भडकेंगी इसकी तो मुझे कल्पना ही नहीं थी। मेरे रहने से किसी को तकलीफ होती है यह मुझे आज पहली बार पता पड़ा और मेरे ना रहने से माँजी आराम से रह सकती हैं इसका भी मुझे एहसास हु। पर इन सब के लिए मेरा तो कोई भी दोष नहीं था। मैं तो यहां आना ही नहीं चाहता था। दादा ही तो मुझे यहां छोड़ कर गए सुशीलाबाई के भरोसे। अब दादा के ऊपर मेरा गुस्सा फिर से बढ़ने लगा। परन्तु सुशीलाबाई जो अभी बोलते बोलते बोल गयी ‘माँ, तुमको कितनी बार बताया है कि मेरे लिए ये बच्चें पराये नहीं है और गैर के बच्चे तो है ही नहीं।’ इसका क्या अर्थ है? कौन बताएगा? मैं इसी का विचार करने लगा। वातावरण में थोड़ी शांतता थी। शायद दोनों माँ-बेटी थक गयी हो। अचानक सुशीलाबाई ने मेरी ओर देखा और बोली,’ करा दिया न हम माँ-बेटी में झगडा? सो जाओ अब चुपचाप दोनों। कल स्कूल जाना है न?’ हमारे लिए तो आज्ञा ही थी। एक आज्ञाकारी बालक की तरह मैं तुरंत लेट गया। पर मेरी आँखों में नींद नहीं थी। थी एक बेचैनी।अब तो कई नए सवाल पैदा हो चुके थे और महत्वपूर्ण सवाल यह था की कल क्या होगा? कल मुझे क्या करना होगा? और अत्यंत महत्वपूर्ण जीवन मरण का सवाल मेरे लिए यह था कि यहां से मेरी मुक्ति कैसे हो सकती है? मुझे काकी की याद आई। उनके शब्द याद आये, ‘अनेक प्रश्नों के उत्तर नहीं होते। रामजी के पास भी नहीं होतेI ‘फिर मुझे इतनी जल्दी मेरे सवालों के जवाब कैसे मिल सकते है? क्या कर सकता था मैं ? नींद आने का नाम ही नहीं ले रही थीI चादर सर पर ओढ़े लेटे रहने के सिवाय और चारा भी क्या था ?
हम सब एक ही कमरें में जमीन पर ही सोए थेी मेरी आंखों में तो नींद थी ही नहीं पर माँ बेटी का झगड़ा भी शायद अभी सुलझा नहीं था। अँधेरे में मुझे उनका बोलना साफ़ साफ़ सुनाई दे रहा थाI माँजी कह रही थी,’सुशीला बेटा,अरी क्यों उनके पीछे पागल हुए जा रही है? अब चौदा वर्ष का तेरा बनवास पूरा होने जा रहा है। इतना क्या कोई किसी का इंतज़ार करता है? यहाँ तेरी उम्र निकले जा रही है और वहां वें दो ग्रहस्थी भी सजा चुके है। तेरे को क्या मिला उनके प्यार में? चौदह वर्ष में तुझसे शादी कर नहीं सके, ऊपर से किसी तीसरे के बच्चों को तेरे पास सम्हालने के लिए भेज दिया। ये कहाँ का न्याय हुआ? मुझे तेरी बहुत फ़िक्र हो रही है। मेरे बाद तेरा क्या होगा?’
‘माँ, तुम्हेँ सब कुछ मालूम है। फिर भी तुम बार बार वहीं बातें करती हो।’ सुशीलाबाई बोली,’ कानपूर में कॉलेज में पढ़ते समय हम दोनों का आपस में प्रेम हुआ। एक दुसरे को समझने लगे। भावनाओं से हम करीब आये। यह हमारा दुर्भाग्य है कि आज हम दोनों की परिस्थितियां बदल गयी है पर हमारा आपस का प्यार नही बदला। भावनाएं नहीं बदली। उस वक्त भी हम एक दूसरे को बेहद चाहते थे और आज भी हम एक दूसरे को चाहते है। तुम कहती हो कि उनकी दो ग्रहस्थी हो गयी पर उन्हें क्या मिला? पहली दो बच्चों को उन्हें अकेले को सम्हालने के लिए छोड़ कर गुजर गयी। जिस ग्रहस्थी का तुम जिक्र कर रही हो और उनकी गृहस्थी जिसके भरोसे थी उस गृहस्थी को ही वो अधूरे में छोड़ गयी। और दूसरी? सारी लोकलाज छोड़ निर्लज्जता से और बदनामी देकर चार दिन भी नहीं रही और अपने प्रेमी के साथ भाग गयी। दोनों समय उन्हें उनका खुद का ही तो बलि देना पड़ा माँ।’
‘बहुत अच्छे ! और यहाँ तुम्हारी कुर्बानी दी जा रही है उसका क्या?’ माँजी बोली, ‘तुम्हारे साथ मुझ बूढी की भी रोज दुर्दशा हो रही है उसका क्या? और सबसे महत्वपूर्ण यह कि जिनके लिए तू अब तक कुँवारी बैठी है वें दो दो विवाह रचाकर आजाद घूम रहे है और मजे की बात ये है कि वें अभी भी तुझसे शादी करने को तो तैयार ही नहीं है पर उनके बच्चों को हम सम्हाले ये अपेक्षा रखते है। कितना स्वार्थी आदमी है ये तुम्हें कुछ समझ में आ रहा है क्या? सबसे बड़ा प्रश्न यह कि तू ऐसे कितने दिन बैठी रहेगी?’
‘मेरी चिंता बिलकुल मत करो माँ, पर एक बात अच्छे से कान खोल कर सुन लो आगे से इन बच्चों को गैर के बच्चें तो कहना ही नहीं पर इनको बिन माँ के बच्चें भी नहीं कहना। कोई कुछ भी कहें अब से मैं इनको माँ की कमी महसूस नहीं होने दूंगी। बाळ- सुरेश को मुझे कठोर अनुशासन में रखकर संस्कारित और अच्छा इंसान बनाना है इससे इनके जीवन में आगे कोई कठिनाई नहीं आएगी। इन के बच्चों की जिम्मेदारी उठाने में मेरा भी कुछ योगदान होना चाहिए। वें अकेले क्या क्या देखेंगे? बाळ को कल स्कूल जाना ही होगा। और हां दोनों से घर के सब काम करवाओं। कोई छूट देने की जरुरत नहीं है। उन्हें हर काम आना चाहिए। बाकी उनका नसीब। बच्चों के लिए अगर हम इतना कर पाए तो मैं समझूंगी मेरा प्यार और मेरी जिन्दगी सफल हो गयी।’
‘तुम्हारा तो दिमाग खराब हो गया है और तुम मुझे भी पागल कर के ही छोडोगीI’ माँजी बोली, ‘अरे तुम्हारी खुद की हालत क्या है जरा इसका विचार करो। तुमसे तो तुम्हारे खुद के ही कुछ काम नही होते। ऊपर से हमेशा पगलाई सी रहती हो। तुम अकेले कैसे क्या इनकी देखभाल कर सकती हो। वो कुछ नहीं। बहुत हो गया अब मैं तुम्हारी एक भी नहीं सुनूंगी। आखिर कितने दिन सहन करूं मैं? अब हमेशा के लिए एक बार में कुछ तय करना ही होगाI मैं कल ही दिनकर से बम्बई में अण्णा को पोस्टकार्ड लिखवाती हूं और उज्जैन में भी पोस्टकार्ड लिखवाकर पंढरीनाथजी को बुलवा लेती हूं। जो भी निर्णय लेना है वह जल्दी ले लिया जाय तो मैं चिंतामुक्त हो जाउंगी और मैं पथरिया में सुख से रह पाउंगी। वहा की खेती बाड़ी कोई हवा में तो छोड़ नहीं सकते हम? यहां आओ तो वहां की चिंता और वहां जाओ तो यहां की चिंता। आखिर मैं अकेली इस बुढापे में क्या क्या सम्हालूं? और इसके अलावा मुझे यहां रोज सबके सवालों का जवाब भी देना पड़ता है कि ये बच्चें किसके है? यहां क्यों रहते है? रोज रोज क्या जवाब दू सबको?’
माँ बेटी की बातचीत बड़ी देर तक होती रही और उसके बाद वें दोनों सो गयी पर मेरी नींद ले गयीI बड़ी देर तक मैं सो नहीं पाया। अब मुझे सुशीलाबाई के विचारों ने परेशान कर दिया था। तो इन्हें सच में ही में दादा से ब्याह रचाना है? मतलब हमारी माँ भी होना है? और ये अन्ना कौन है? अब एक और नया चेहरा और अब वो यहां क्यों आ रहे है? क्या करेंगे यहां आकर? उनसे क्या बात करनी है इन सब को? फिर अब मुझे क्या करना चाहिए? नानाजी को यह सब खबर करना पड़ेगी। पर कैसे? सुरेश को भी सब कुछ अच्छी तरह से समझाना पड़ेगा पर इसके लिए सुरेश से बात करनी पड़ेगी। इन सुशीलाबाई को अगर रोकना होगा तो कुछ न कुछ करना होगा। पर यह मौका तो स्कूल में जाने से ही मिल सकेगा। इसके लिए मुझे स्कूल जाना पड़ेगा। पर मेरे विद्रोह का क्या होगा? वह तो मैं कभी भी कर सकता हूं पर इस वक्त मुझे पीछे हटना ही पड़ेगा। तो फिर तय रहा। विद्रोह का विचार मुझे अभी छोड़ना ही होगा। मेरे पहले विद्रोह की इस तरह अंत्येष्टि हो चुकी थी। स्कूल जाने के विचार से मन शांत हुआ और मैं कब सो गया मुझे पता ही नहीं पडा।
शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – २३ में
परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता।
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