विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.
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महाकाल मंदिर का अहाता चारों ओर से बहुत बड़ा और बहुत बड़ा कच्चा सा विशाल प्रांगण। दिन भर प्रांगण में धूल होती। मंदिर प्रागंण में दिन भर इक्का दुक्का लोग ही दिखाई देते। सुबह शाम ज्यादा लोग होते। रोज भीड़ नहीं होती। हां श्रावण मास में और हर सोमवार एवं महाशिवरात्रि समेत अन्य तीज-त्यौहारों पर भीड़ होती थी। महाकाल के दर्शन और पूजा अभिषेक हेतु आते रोज दो चार भक्त अपने-अपने पुरोहित के साथ दिखाई दे जाते। जब मंदिर में भीड़ नहीं होती उन दिनों हम उधमी बच्चों को महाकाल का विशाल प्रांगण धिंगामस्ती करने के लिए मिल जाता।
पाठशाला में बीच के अवकाश में या पाठशाला छूटने के बाद हम बच्चें मंदिर प्रांगण में खूब खेलते। अब मेरे मित्र भी बढ़ गए थे। राजाभाऊ का वीनू, कृष्णाचार्य गुरूजी का मुकुंदा। कुलकर्णी का विजय। पुरोहित मास्टरजी के दोनों बेटे दिनकर और अरुण। खेर चाची का हरी तो मेरी ही कक्षा में था और सुरेश। इसके अलावा भी इधर उधर के बहुत से बच्चें हमारे साथ खेलते।
हम बच्चों की अक्सर महाकाल मंदिर में मस्ती ही रहती। हम सब आँखमिचौनी भी खेलते। छिपने के लिए मंदिर में बहुत सी जगह होती और किसी को ढूंढना इतना आसान भी नहीं होता और अगर पिछवाड़े के बगल से कोई बड़ा गणपति के वहां या कुंड के वहां से कोई हरसिद्धि मंदिर की ओर निकल जाता तो कुछ पूछो ही मत। कभी कभी तो वह वापस ही नहीं आता। मेरे लिए ये सब कुछ नया था। हम लोग नदी की पहाड़ भी खेलते। अब नदी के लिए तो महाकाल का विशाल प्रांगण था ही और पहाड़ मतलब अलग-अलग मंदिर के ऊपर बने शिखर पर लहराते ध्वज तक पहुचने को मानते। बड़े बच्चें अक्सर जल्द ही चढ़ कर वहां तक पहुच जाते और लहराते भगवा ध्वज को छूकर भी आ जाते पर हम छोटे बच्चें वहां तक नहीं पहुंच पाते। मंदिर के ऊपर चढ़ने की हमारी हिम्मत ही नहीं होती और नदी समझ कर नीचे प्रांगण में रहने पर हमें छूना बहुत आसान होता। कभी कभार हम छोटे बच्चें मंदिर के उपर चढ़ने का प्रयास करते तो समय लगता और फिर भी चढ़ नहीं पाते तो पंडों की डांट हम छोटे बच्चों को ही खानी पड़ती। बड़े बच्चें तो अक्सर भाग ही जाते। कुछ बड़े और आवारा बिगडैल किस्म के लडकों का उठाना बैठना अक्सर पुराने महाकाल मंदिर में होता। पुराने महाकाल के मंदिर में हमेशा व्यसनी साधुओं का डेरा रहता। बीडी सिगरेट से लेकर अफीम, चरस, गांजा, ये सब उन साधुओं के पास आसानी से मिल जाते। जब देखों तब वें नशे में डूबे रहते। आंखें बंद कर आसनस्थ होने का दिखावा करते। व्यसनी साधू उनकी जरूरतों की पूर्ति हेतु अक्सर बच्चों का इस्तेमाल करते। कुछ न कुछ लालच देकर या अनिष्ट का झूठा डर दिखा कर बच्चों को घर से पैसे लाने को मजबूर करते। इसी ख्याति के कारण उस पुराने महाकाल के मंदिर में भक्तजन और औरतें बहुत ही कम जाते। हम बच्चे जरुर छुपने के लिए कभी कभार उधर जाते और कुछ उल्टा सीधा दिखते ही तुरंत डर के मारे वहां से भाग आते।
ऐसे ही एक बार आंखमिचौनी खेलते खेलते छुपने के लिए मैं पुराने महाकाल मंदिर में चला गया। मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ जब मैंने राजाभाऊ के लड़के वीनू को वहां सिगरेट पीते देखा। ग्वालियर में सोनू को बीडी पीते देखा था। पर यहां किसी हमउम्र को सिगरेट पीते देखने का मेरा यह पहला ही मौका था। वैसे काकी के संस्कार के कारण छोटे बच्चें बीडी सिगरेट पीयें यह मेरी कल्पना में भी नहीं था और छोटे क्या और बड़े क्या बीडी सिगरेट पीना मूल रूप से बहुत ख़राब आदत है, काकी के इस संस्कार का मेरे ऊपर कुछ ज्यादा ही प्रभाव था। मुझे देखते ही वीनू घबराया। तुरंत सतर्क हुआ। मैं उसके पास गया। मेरे देखने में ही बहुत सारे सवाल थे। वीनू ने सिगरेट अपने पास खड़े लड़के के हाथ में दे दी और मेरा हाथ पकड मुझे एक तरफ ले गया और करीब करीब मुझे धमकाया, ‘किसी से कहना नहीं, वरन ठीक नहीं होगा।’ मैं क्या बोलता? खामोश ही रहा। फिर वीनू के ध्यान में आया कि बिना कारण उसने मुझे धमकाया। वह फ़ौरन बोला, ‘अरे उसका ऐसा है कि हम सब कभी कभार यहां आकर एखाद सुट्टा लगा लेते है। तू भी लेकर देख मजा आएगा।’ मैं फिर भी कुछ नहीं बोला। शाम को मैंने सुरेश को बताया, ‘पुराने महाकाल के मंदिर में मैंने आज वीनू को सिगरेट पीते हुए देखा।’ सुरेश कुछ भी नहीं बोला। उसके चेहरे पर आश्चर्य के भी कोई भाव नहीं थे और मेरे लिए यही आश्चर्यजनक था पर इसका खुलासा तुरंत दूसरे दिन हो गया। स्कूल को छुट्टी थी पर बैंक को छुट्टी नहीं थी। दादा समय पर ही बैंक रवाना हो गए। दोपहर को सब बच्चे हमारे घर में इक्कठे हो गए और फिर शुरू हुआ सब में सिगरेट पीने का सिलसिला। मेरे ध्यान में आया कि शायद सिगरेट पीने का सिलसिला बड़े दिन से चल रहा हो। एश ट्रे में पड़े अधजले सिगरेट के टुकड़े लड़कों ने आपस में बांट लिए थे। मेरे लिए यह सब नया ही था। मैं दर्शक की भूमिका में था और देखने के अलावा कर भी क्या सकता था? पर वीनू दर्शक नहीं था। वह चतुर भी था। उसने सब से कहां, ‘इसे भी सिगरेट दो पीने के लिए नहीं तो ये अपना नाम सबको बता देगा।’
हालांकि मैं ऐसा कुछ भी नहीं सोच रहा था और नाही मेरी इतनी हिमंत थी इन सब बिगडैल लड़कों की शिकायत करने की पर वीनू के उकसावे में आकर सब लड़के मेरे ऊपर टूट पड़े। वीनू ने आगे बढ़कर सिगरेट का एक जलता टुकड़ा मेरे मुंह में ठूस ही दिया। सिगरेट का धुआं मुंह में जाते ही मुझे जोर से खांसी आई। मैं खांस रहा था और सब लड़के तालियां बजा रहे थे। मैंने जलता टुकड़ा मुंह से निकाल कर एश ट्रे में रख दिया। थोड़ी देर बाद खांसी रुक गयी। मैंने पानी पिया। इन लड़कों से मैं डर सा गया था। बीडी का धुआं सहन नहीं इसलिए नानाजी के पास मैं नहीं सोऊंगा ऐसा काकी से कहने वाला मैं, कमरें में सब तरफ फैले सिगरेट के धुंए में घिर गया और लाचार सा हो गया था। आज काकी का सुरक्षा कवच मेरे पास नहीं था।
एक बार हुआ दो बार हुआ फिर बार बार होने लगा। अब तो खांसी भी रुक गयी। सिगरेट का धुआं सहन होने लगा और मैं भी भला पीछे क्यों रहता? मैं सब में शामिल हो गया। धीरे-धीरे मुझे सिगरेट की आदत हो गयी। अब एश ट्रे में पड़े सिगरेट के ठूंठ के अलावा दादा के सिगरेट के टिन के डिब्बे से हम एक दो सिगरेट चुराने लगे। सिगरेट पीने के साथ चोरी से भी परिचित हो गए। चोरी की आदत पीछे-पीछे आ ही गयी। एक साथ दो दो बुरी आदतें। बुरी आदतों का मोह कहलो आकर्षण कहलो कुछ ज्यादा ही होता है। काकी की सारी सीख ठीक इसी समय भुला देनी थी?
इसके बाद ऐसे ही एक दिन हम सब घर में इक्कठे हुए थे कि दो बड़े बिगडैल बड़े लड़के भी आ गए। सिगरेट पीने के बाद उन लड़कों ने आले में रखे ताश के पत्ते देखें। तुरंत वें दोनों ताश खेलने बैठ गए। मैंने देखा वें बिलकुल वैसे ही पैसे लगाकर वहीँ खेल-खेल रहे थे जो दादा और उनकी मण्डली खेला करती। लड़कों की भाषा में यह तीन पत्ती का खेल था। उस दिन उन दो बड़े लड़कों ने हम सब को भी यह खेल सिखाया। दादा और उनके साथियों को खेलते देख थोडा बहुत तो मैं भी यह खेल जान गया था। मुझे इसका अजूबा भी समझना था और इसलिए इस नए खेल का आकर्षण मेरे सहित हम सब को तुरंत आकर्षित कर गया। इस के बाद तो हमारा घर सबके लिए सिगरेट पीने और ताश खेलने के लिए बिना विघ्न एकांत जगह हो गयी। ज्यादा दिन नहीं हुए हमारे घर भीड़ होने लगी। सुरेश और मैं भी इन सब के मोहपाश में बंधे से जा रहे थे पर मुझे और सुरेश को तो तीन पत्ती का खेल ठीक से आता ही नही था और बड़े लड़के बेहद शातिर और चालाख थे। ग्वालियर में फूफाजी और पंतजी द्वारा बड़े प्यार से दिए खालिस चांदी के दो रुपये मैं कब का गवां चुका था। सुरेश भी उसकी गुल्लक में जमा पांच रुपये गवां ही चुका था।
अब यह भीड़ हमेशा का हल्ला-गुल्ला और धींगा-मुश्ती। आस-पडौस से ज्यादा दिन तो छुपी नहीं रह सकती थी। सब से पहले खेर चाची का ध्यान इस ओर गया और उन्हें शंका हुई। उन्होंने सबसे पहले उनके बेटे हरी की खबर ली और हरी को मार पड़ते ही उसने सब उगल दिया। फिर अगले दिन खेर चाची ऊपर आई और सब की अच्छे से खबर ली। बड़े लडकों को तो बस मारना ही बाकी रह गया था। सब बच्चें उनके डर से तुरंत भाग गए। उसके बाद खेर चाची ने मुझे और सुरेश को भी बहुत डांटा। पर खेर चाची की कमाल देखिये उन्होंने इसका कहीं जिक्र तक नहीं किया। यहां तक कि दादा से या हरी के पिता से और राजाभाऊ से भी खुद हो कर कुछ नहीं कहां। इसलिए मेरे ऊपर, सूरेश और हरी के ऊपर खेर चाची का डर और मानसिक बोझा था पर बाकी के लडकें बेफ्रिक्रथे। उन्हें कोई चिंता ही नहीं थी। ग्वालियर में काकी अक्सर हम बच्चों को राम मंदिर के बरामदे में कहां करती कि, अच्छी आदतें बड़ी देर से लगते लगते ही लगती है और बुरी आदतें जाते जाते भी नहीं जा पाती। उस वक्त काकी की बात मुझे समझ में नहीं आती थी पर अब हम लोगों की अवस्था भी कुछ ऐसी ही हो गयी थी। खेर चाची के डर से अब घर में सब का आना बंद हो गया और फिर सब का उठना बैठना पुराने महाकाल मंदिर में ज्यादा होने लगा। आँखमिचौनी और नदी के पहाड़ जैसे मैदानी खेल पता ही नहीं पड़ा हमसे कब दूर हो गए। पुराने महाकाल के नशेलची साधुओं का आकर्षण बढ़ने लगा। हम में से किसी के पास पैसे नहीं होते तो वें लोग हमसे घर से कुछ न कुछ चीजें लाने को कहते। हम उन्हें सिगरेट ले जाकर देते। हम सब बड़े कुतूहल से साधुओं को नशा करते देखतें। साधुओं की गांजा चरस ओढने की छोटी सी चिलम का मुझे भारी आकर्षण होता। उनमें से एक साधू मुझसे हमेशा कहता भी, ‘बच्चा, बड़ा होना है तो यह सब तो करना ही पड़ेगा।’ मुझे भी बड़ा अच्छा लगता। मुझमें जल्द बड़ा होने की इच्छा बलवती होती जा रही थी।
मैं तो सिर्फ यहीं सोचता कि नानाजी बीडी पीते है, दादा भी सिगरेट पीते है, सोनू के पिता भी बीडी पीते है, लक्ष्मण मास्टरजी भी बीडी पीते है और यहां यह साधू भी चिलम फूंक रहा है और यहीं करने के लिए कह भी रहा है। इसमें गलत क्या है? सब बड़े लोग यहीं तो करते है। तो फिर तय रहा। मुझे भी जल्द ही बड़ा होना है। वैसे भी मुझे कौन पूछता है? सब बच्चों की जरूरतें पूरी करने देखभाल करने और चिंता करने के लिये उनके माँ-बाप होते है। पर मेरे लिए कौन है? दादा भी तो सब सुरेश की ही सुनते है। मैंने तो अभी तक उनसे अपने लिए कुछ मांगा ही नहीं है। और दादा ही क्यों मैंने तो अभी तक किसी से कुछ भी नहीं मांगा है। मांगना क्या होता है या दूसरों के सामने अपनी इच्छा कैसे प्रगट की जाती है यह काकी ने मुझे सिखाया ही नहीं था। दरअसल किसी के सामने हाथ फैलाने की आदत काकी ने मुझे लगने ही नहीं दी। सुरेश जैसा हमेशा कुछ न कुछ दादा से मांगते रहना, हर हमेशा किसी वस्तु के लिए जिद करते रहना, इनका महत्व मुझे पता ही नहीं था। मुझे तो यह भी समझ नहीं थी कि बिना मांगे यहां कुछ नहीं मिलता। दादा तो मेरे लिए नए है पर सुरेश बचपन से ही उनके पास रहा है इसलिए वें एक दूसरे के मन की बातें अच्छी तरह जान भी लेते है पर मेरे साथ ऐसा नहीं था।
काकी मुझे हमेशा कहती थी कि, हम जैसे है वैसी ही स्थिति में हमें हमेशा संतुष्ट रहना चाहिए पर काकी की जरूरते तो विशेष कुछ थी ही नहीं। वें तो खाना भी एक ही समय खाती थी पर यहां तो भूख लगती ही रहती है। सुरेश जैसे मुझे भी सब चीजों को पाने की इच्छा होती है। अतृप्त हूं तो तृप्त कैसे मान लूं? और असंतुष्ट हूं तो समाधान कैसे मान लूं? पर क्या करू काकी ने निकलते समय बार बार चेताया था,’ दामादजी अकेले रहते है। उन्हें कोई तकलीफ नहीं देना। उनके सामने कोई जिद नहीं करना।’ इतनी दूर होकर भी मैं काकी के बंधन से आजाद नहीं था।
फिर एक नया रविवार। फिर वहीँ रविवार की दिनचर्या। फिर दादा और उनके साथियों की बैठक। फिर हम से सिगरेट के पेकेट और माचिस का मंगाना। फिर वहीँ ताश का खेल और फिर वहीँ तीन पत्ती और पैसों का खेल। फिर वहीँ जुगार और सब की दो दो बुरी आदतें। इस बार मैं और सुरेश बड़े ध्यान से पत्तों का खेल देख भी रहे थे और सीख भी रहे थे। तीन पत्ती की बारीकियों की ओर हमारा ध्यान था इस उम्मीद के साथ की अगली बार अगर कभी मौका मिला तो हम अपने खोयें रुपये वापस ले सके। सिगरेट का धुआं और उसका हर एक छल्ला भी अब हमें अच्छा लगने लगा था। खेल खत्म हुआ। दादा के सब मित्र अपने अपने घर वापस गए सिवाय राजाभाऊ के। हमें ढवले चाची के यहां रात का खाना खाने के लिए जाना था। हमेशा की तरह आज भी दादा जुए में बहुत बड़ी रकम हार गए थे, और हमेशा की तरह रुपये जीतने वाले राजाभाऊ दादा को नसीहत देने के लिए ही रुके थे। पर आज कुछ अलग ही महाकाल की मर्जी थी। दादा की सब मण्डली के घर से जाते ही खेर चाचा और खेर चाची ऊपर आगए।
‘क्या चल रहा था?’ खेर चाची ने ज़रा जोर की आवाज में दादा से पूछा।
‘अरी तुम भी क्या पूछ रही हो इनसे? इनका इतवार को और क्या चल सकता है भला? वही जुआ।’ जवाब खेर चाचा ने ही दिया। दादा और राजाभाऊ को एक पल कुछ समझ में ही नहीं आया फिर राजाभाऊ ने ही पूछा, ‘क्या हुआ भाभी? ‘ ‘नहीं, आप खूब खेलों जुआ।’ खेर चाची बोली, ‘आपके न हमारे बच्चें बिगड़ते जा रहे है। उसका क्या करे? बच्चे सिगरेट पीना सिख गए है, जुआ खेलना भी सीख गए है। पुराने महाकाल में व्यसनी साधुओं की संगत में नयी-नयी चीजे सीख रहे है। कल और क्या क्या सीखेंगे इसका आप ही सोचो।’ खेर चाची बहुत गुस्से में थी।
किसी को भी खेर चाची से यह उम्मीद ही नहीं थी। दादा तो कुछ नहीं बोले पर राजाभाऊ बोले, ‘क्या कह रही भाभी? तुम्हारा हरी भी और हमार विनू भी?’
‘हां। हमारा हरी भी और तुम्हारा वीनू भी। हो गया समाधान?’ खेर चाची का गुस्सा अभी उतरा नहीं था। राजाभाऊ बाहर गेलेरी में आए और वहीँ से जोर से चिल्लाए, ‘वि …..नू।’ उनका घर बिलकुल सामने ही था और उनके घर तक आवाज पहुच चुकी थी।
‘विनू को क्या बुला रहे हो? जब से यह लड़का ग्वालियर से आया है तबसे सब बच्चें बिगड़ते जा रहे है।’ मेरी और देख कर खेर चाची अचानक बोल गयी। इतने में विनू भी डरते डरते आ गया था। अब मैं इन सब के लिए नया ही था इसलिए मेरा नाम खेर चाची को लेना बड़ा आसान रहा हो। खेर चाची इस मकान में पन्द्रह वर्षों से रह रही थी। विवाह कर के इसी घर में आई थी। सुरेश को तो उन्होंने बचपन से देखा भी था और सम्हाला भी था। सुरेश के लिए उनके मन में अपनापन होना स्वाभाविक ही था और हरी तो खैर उनका बेटा ही था। एक माँ की ममता खुद के बेटे को किसी भी कीमत पर बुरा समझने के लिए कदापि तैयार नहीं हो सकती पर खेर चाची मेरे अकेले पर ही सारा आरोप लगा रही थी। यह मेरे ऊपर आक्रमण ही था। मेरा दुर्भाग्य कि मेरी ओर से बोलने वाला यहां कोई नहीं था। मैं बहुत आहत हुआ। अब आगे क्या होगा इससे मैं भयभीत भी हो गया। विनू को देखते ही राजाभाऊ ने उसका एक कान जोर से पकडा, ‘तेरे को बहुत सिगरेट पीने की आदत है ना? ताश खेलने की भी आदत है ना? ठहर आज मैं तुझे देखता ही हूं। तेरी सारी बुरी आदतें आज छुड़ा कर ही रहूंगा। तू घर चल, तुझे देखता हूं। कहां से सीखा रे सब यह सब?’ विनू भी पकड़ में आ गया था। उसे लगा मैंने ही राजाभाऊ को सब बताया है इसलिए उसने मेरी और गुस्से से देखा। उसे मेरी ओर गुस्से से देखते हुए राजाभाऊ ने भी देखा। खेर चाची की तरह उन्हें भी लगा कि मैंने ही सबको ये सब सिखाया है। फिर राजाभाऊ ने मेरी ओर गुस्से से देखा। उनके गुस्से से मुझे देखते ही मैं घबरा गया। मुझे लगा अब राजाभाऊ मुझे भी मारेंगे। मुझे जोर से रोना आया और मैं जोर से रोने लगा।
हालांकि राजाभाऊ ने मुझे हाथ तक नहीं लगाया था तो भी मैं बहुत देर तक रोता रहा। मेरे अकेले के ऊपर झूठा आरोप मढ़ा गया था इससे मैं बहुत आहत भी था और खुद को अपमानित भी महसूस कर रहा था। पूरे समय तक दादा कुछ भी नहीं बोले। एक मूक दर्शक की तरह ही खड़े रहे। इससे मैं ज्यादा दु:खी था।
खेर चाची चली गयी पर मेरे आंसू थम नहीं रहे थे। बीच बीच में हिचकियां भी आ रही थी। हरी और विनू भी चले गये। मैं खाना खाने नहीं जा रहा हूं यह देख सुरेश भी ढवले चाची के यहां खाने खाने चला गया। दादा ने हमारे लिए उसे टिफिन ले कर आने को कहां। मुझे काकी की याद आयी। हर बार मेरे लिए सबका सामना करने वाली काकी आज राजाभाऊ का और खेर चाची का सामना करने के लिए यहां होनी चाहिए थी। हर बार मेरे लिए लड़ने वाली वह ममतामयी मूर्ति मुझे हर अच्छी बुरी बातें ठीक से समझाकर बताती भी थी। मेरे ऊपर होने वाले हर आक्रमण के लिए एक तरह से मेरी ढाल ही थी। एक बार जब नानाजी ने मुझे मारा था तो उन्होंने अपने ही दामाद की ओर इतने गुस्से के अंदाज में देखा था कि नानाजी भी एक बारगी काकी के चेहरे को देख सहम से गए थे। यहां उज्जैन में ऐसी ही कुछ अपेक्षा दादा से थी पर मेरे पिता होने के बावजूद वें मेरी मदद करने को नहीं आए और खामोश ही रहे। इस कारण मेरा मन वेदना से भर गया। दादा ही तो मेरे को यहां उज्जैन ले कर आए थे। वरन ग्वलियर में तो मैं अनाथ जैसा पल ही रहा था। ढेर सारी अपेक्षाएं लेकर बड़ी ख़ुशी से मैं अपने पिता के घर, अपने हक़ के घर आया था पर आज दादा की ख़ामोशी से मैं तो अनाथ जैसा ही हो गया। बड़ी देर तक मैं वहीँ घुटनों में सर डाले बैठा रहा। आज काकी का पल्लू मेरे नसीब में नहीं था इसलिए अपनी आंखें मैंने खुद ही पोछी। मैं शांत जरुर हुआ पर मन में बदले की आग भड़कने लगी। पर प्रतिशोध किससे लूंगा? और क्यों? मैं तो इस परिस्थिति में भी नहीं था पर उस विनू को तो मैं निश्चित ही सबक सिखा सकता हूं। इस विचार के बाद धीरे-धीरे मेरा चित्त शांत हुआ। बाहर गेलेरी में दादा, राजाभाऊ, और खेर चाचा बात कर रहे थे और मैं सुन रहा था।
राजाभाऊ दादा से बोले, ‘ पंढरी, अब कुछ निर्णय लेने का समय आ गया है। तुम्हारे दोनों लड़के हाथ से निकल रहे है।’ ‘राजाभाऊ, यह कुछ ज्यादा ही हो रहा है।’ खेर चाचा बोले, ‘इतनी हायतौबा करने की और चिंता करने की जरुरत नहीं है। बच्चें अभी नासमझ है थोडा समझाने से समझ जायेंगे।’
‘पर मैं तो पंढरी की शादी के बारे में बोल रहा था?’ राजाभाऊ बोले, ‘विवाह का सवाल तो है ना? एक बार शादी हो जाए तो बच्चों की देखभाल भी हो जाएगी और बच्चों की चिंता भी नहीं करनी पड़ेगी। अकेले जिन्दगी कैसे गुजरेगी? अभी उम्र ही क्या है पंढरी की? इसीलिए कह रहा हूं शादी करने से सभी सवालों के जवाब मिल जाएंगे।’
खेर चाचा तो कुछ नहीं बोले पर दादा को शायद गुस्सा आ गया। वें जोर से बोल पड़े, ‘अरे, अब आप लोग मेरी जिन्दगी के निर्णय भी खुद ही ले लेंगे क्या?’
‘अर्थात।’ राजाभाऊ ठहरने को तैयार नहीं थे, ‘मैं क्या कहता हूं सुशीला से एक बार बात करने में आखिर हर्ज ही क्या है?’ ‘बराबर है।ठीक ही तो कह रहा है राजाभाऊ। एक बार सुशीला से बात करने में हर्ज ही क्या है? ‘ अब खेर चाचा बोल पड़े।
अब दादा को शायद कुछ ज्यादा ही गुस्सा आ गया, ‘क्या मुसीबत है? मेरी निजी जिन्दगी है। उधर सुशीला की भी निजी जिन्दगी है। आप लोग सारी निजी बातें चौराहे पर लाकर ढिंढोरा पीटेंगे क्या? बैंक में भी जिसे देखों वह हमारी शादी के बारे में ही पूछता रहता है।’ राजाभाऊ के ऊपर दादा के गुस्से का कुछ भी असर नहीं हुआ। वें हंसते हुए बोले, ‘तो फिर जल्द निर्णय ले लो सारी ही समस्याएं ख़त्म हो जायेंगी।’
अब दादा थोड़े शांत हुए। बोले, ‘हमारी शादी के लिए हम बच्चों का ही तो विचार कर रहे है।’
‘मतलब?’ दोनों को थोडा आश्चर्य हुआ।
‘मतलब? मतलब यह कि मैं यहां अकेला हूं। दिनभर बैंक में रहता हूं। आने में भी अक्सर देर हो जाती है। बच्चें दिन भर बिना किसी देखभाल के स्वछंदता से और बिना किसी नियंत्रण के ही रहते है। बच्चों के खाने पीने की भी दिक्कत है ही। समय पर उनका कुछ भी ठीक से नहीं हो पाता। मैं अकेला बच्चों की देखभाल ठीक से कर नहीं सकता इसलिए सुशीला का कहना है अगर दोनों बच्चें एकाद साल उसके साथ रहें लेंगे तो बच्चें भी उससे हिलमिल जाएंगे। शादी के बाद उसे भी तो नौकरी छोडनी ही पड़ेगी और उसे सब समेटने में भी एक वर्ष का समय लगेगा। इसलिए हम शादी का एक वर्ष बाद ही सोच रहे है। मैं अगले वर्ष बाळ-सुरेश को सुशीला के पास भेजने वाला था पर अब यहां का यह सब देखकर मैं बच्चों को तुरंत सुशीला के यहां भेजने के बारे में विचार करता हूं। कल ही सुशीला को पत्र भेजता हूं। यहां का सब हाल लिख भेजता हूं। उसका जवाब आएगा तब देखेंगे।
‘शुभस्य शीघ्रंम!’ खेर चाचा और राजाभाऊ के मुंह से एकसाथ निकला।
‘अब जाओं तुम दोनों अपने अपने घर। हमारा अभी खाना होना है।’ दादा ने कहां। दोनों ने दादा से हाथ मिलाया और दोनों नीचे उतर गए। दादा अन्दर कमरे में आए। मैं जमीन पर अभी भी वैसे ही बैठा था। मुझे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। मैं बाहर की सब बातें सुन चुका था। अब यहां से कहां जाना है? मेरी अस्वस्थता बढती जा रही थी। दादा मेरे पास बैठ गए। उन्होंने मेरी पीठ पर से हाथ फिराया। उनके स्पर्श के लिए मैंने कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। मुझे तो दादा का बहुत गुस्सा आ रहा था। मुझे सहानुभूति दिखाते मेरे सामने आने वाले पिता नहीं चाहिए थे। मेरे लिए, मेरे हित के लिए लड़ने वाले दादा मुझे चाहिए थे। मैं खुद के ही घर में अनाथ और लाचार हो गया था और अब यहां से फिर से उन दो अनजान अपरिचित औरतों के यहां मुझे भेजने की तयारी कर रहे थे दादा। इसे क्या कहें? मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था।
सुरेश ने लाया हुआ हमारा टिफिन वैसे का वैसे ही रखा था। सुरेश की तो आधी रात हो गयी थी। वो खर्राटे भर रहा था। दादा ने मेरी पीठ पर एक बार फिर से हाथ फिराया और बोले,’चलो खाना खा लो।’ मुझे काकी की याद आई। काकी कहती थी, ‘अन्न ही परंमं ब्रह्म है। कुछ भी हो जाए कभी खाने पर गुस्सा नहीं निकालना।’ वैसे मुझे भी जोरो से भूख लगी ही थी। कुछ भी न बोलते हुए मैं चुपचाप उठ खडा हुआ। दादा को समझाने में देर नहीं लगी कि मैं उनसे नाराज हूं। वें हंस कर बोले,’ मुझसे नाराज हो कोई बात नहीं पर अन्न पर गुस्सा मत निकालो।’ दादा तो काकी की ही भाषा बोल रहे है। मतलब मैं अन्न पर गुस्सा नहीं करूं, दादा पर भी गुस्सा नहीं करूं। फिर मैं किस पर गस्सा करूं? किससे झगडा करूं? आखिर मुझे भी तो मन है। मुझे याद आया वहां ग्वालियर में काकी हमेशा उनके रामजी से ही झगडती रहती थी और उनके रामजी पर ही हमेशा अपना गुस्सा निकालती थी। पर उसके लिए तो पत्थर पर आस्था होनी चहिए और पत्थर पर ही विश्वास भी होना चाहिए। पत्थर पर श्रध्दा भक्ति भी होना चहिए। पत्थर पर हक़ होना चाहिए और पत्थर से ही आत्मीयता होनी चहिए। पत्थर से ही लगाव भी होना चाहिए। ये सब मैं नहीं काकी किसी से कह रही थी और इतना ही कि मैंने सुना भर था। मैंने मुंह धोया, तौलिये से अपना मुंह पोछा और चुपचाप दादा के साथ खाना खाने बैठ गया।
दादा ने टिफिन खोला और थाली में खाना परोसी। मैं चुपचाप खाना खाने लगा। कुछ भी बोलने की इच्छा ही नहीं थी। खाना खाते-खाते दादा ही बोले, ‘बाळ, तुम अभी बहुत छोटे हो। मेरी परिस्थिति मैं तुम्हें नहीं समझा पाऊंगा। जब तुम थोड़े बड़े हो जाओगे तब शायद तुम सारी परिस्थितयों का आकलन सही तरीके से कर सकोगे।’ दादा थोड़ी देर शांत रहे फिर उनके मुंह से अचानक निकला, ‘ना जाने क्यों अलग-अलग नसीब के पुतले ईश्वर बनाता रहता है और ना जाने कौन कौन से विचित्र खेल उनसे खिलवाता रहता है? और खुद जरुर तमाशा देखता है।’
मैं क्या बोलता? दादा क्या कह रहे थे यह मेरी समझ में ही नहीं आया। कौन हैं दादा का ईश्वर? और क्यों कर तो वों अलग-अलग नसीब के पुतले बनाता है? और उसके विचित्र खेल मतलब कौन से खेल? उधर काकी के रामजी को भी विचित्र खेल खेलने का भारी शौक। और यहां दादा के ईश्वर को भी विचित्र खेल खेलने का भारी शौक। सब कुछ विचित्र? मैं क्या समझूं? भले ही दादा की परिस्थिति विचित्र हो पर मेरी भी हालत कुछ अलग तो नहीं? किस की विचित्र परिस्थिति कौन समझेगा? यहां तो विचित्र खेलों की जैसे एक स्पर्धा ही शुरू हो गयी है,मुझमें और दादा में।’
कुछ ही दिनों में सुशीलाबाई की चिट्ठी दादा को हम दोनों को उनके वहां भेजने के लिए आ गयी । दादा ने हमारा नाम यहां के महाकाल मराठी प्राथमिक विद्यालय से निकलवा लिया और अगले ही रविवार हम तीनों बुरहानपुर पहुच गए। अचानक सुरेश को और मुझे यहां से क्यों जाना पड़ा यह समझ से परे था और पूछने की या इच्छा जताने की इजाजत भी एक तरह से नहीं थी। दादा हम को बुरहानपुर छोड़ कर तुरंत उज्जैन के लिए रवाना हो गए।
दादा के के लिए मेरी नाराजी तो और भी बढ़ गयी थी। सच तो यह हैं कि मेरा कोई भी कसूर ही नहीं था। सब लड़कों को सिगरेट और जुए की आदत मैंने लगाई यह ग़लतफ़हमी सब के साथ दादा को भी थी इस बात से मुझे ज्यादा गुस्सा था। कम से कम दादा को तो मेरा उस वक्त बचाव करना चाहिए था। मेरी ओर से बोलना था। ऐसा न करते हुए खेर चाची द्वारा मेरे ऊपर लगाए आरोप को दादा सच मानकर बैठ गए। खुद सिगरेट पीने वाले और जुआ खेलने वाले दादा, किसी ने मेरे ऊपर झूठा इल्जाम लगाया इस कारण मुझे अपने आप से कैसे और क्यों कर तो दूर कर सकते है? आखिर मैं उनका लड़का हूं। वें खुद होकर मुझे ग्वालियर से यहां लेकर आये थे मुश्किल से एक माह भी नहीं सम्हाला मुझे और तुरंत मेरी रवानगी बुरहानपुर में क्यों? ऐसा ही करना था तो मुझे ग्वालियर से क्यों कर लाये? मेरे लिए भले ही दादा नए थे पर जैसे तैसे मैंने उनके साथ जमा लिया था और अब यह सुशीलाबाई? मेरा क्या होगा अब? दादा पर भरोसा कर काकी ने और नानाजी ने मुझे उज्जैन भेजा। मुझे दादा का कोई भी अनुभव न होने के बावजूद, उनके स्वभाव की जानकारी न होने के बावजूद, सिर्फ पिता इस रिश्ते के कारण ही तो उनके साथ आने के लिए मैं तुरंत ख़ुशी खुशी तैयार हो गया। पर अब मैं क्या करूं?
मेरे पास मेरे किसी भी सवाल का जवाब नहीं था। काकी कहती थी कि कई प्रश्नों का उत्तर आदमी नाम के इस हाडमांस के पुतले के पास नहीं होता। इतना ही नही इस आदमी के कई सवालों का जवाब तो खुद रामजी के पास भी नहीं होता। पर दादा से मुझे एक भी सवाल पूछने का मौका ही नहीं मिले यह तो अन्याय है। अब जवाब मिले ना मिले पर प्रश्न तो निर्माण होते ही है। कम से कम प्रश्न पूछने का अवसर तो सब को मिलना ही चाहिए।
सच तो यह हैं कि मुझे मेरे पिता के पास ही रहना था। सुरेश के लिए उनका लगाव और अपनापन मुझे कई बार महसूस हुआ। मुझे मेरे बर्ताव से वही अपनापन और लगाव दादा के मन में पैदा करना था। पर मुझे खुलने में और मेरा संकोच दूर होने में थोडा समय चाहिए था। आते आते सुरेश जैसी जिद करना और कुछ न कुछ मांगते रहना मेरे लिए थोडा मुश्किल ही था। मैं तो काकी के शब्दों के बंधन में बंधा था। सुरेश के ऊपर ऐसा कोई बंधन था ही नही। दादा को कोई कष्ट, कोई तकलीफ नहीं होना चाहिए इसका पहाड़ा काकी ने मुझे कंठस्थ सा करा दिया था। पर दादा ने भी तो काकी को और नानाजी को वचन दिया था कि वें मुझे अच्छे से सम्हालेंगे? क्या हुआ दादा के वचन का? कहां सम्हाला मुझे उन्होंने? एक महिना भी मुझे अपने पास नहीं रखा और मुझे इस अपरिचित सुशीलाबाई के यहां भेज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री करली। कैसे रहूंगा मैं इनके पास? और मेरा सुशीलाबाई से सम्बन्ध ही क्या है? दादा ने ऐसा क्यों किया?
बार-बार मुझे काकी की याद आ रही थी। दादा को कोई तकलीफ नहीं देना यह सब तो ठीक है पर यहां की परिस्थिति तो अलग ही है। इसकी जानकारी काकी को कहाँ है? दादा के यहां नहीं होने से यहां अजनबी लोगों के बीच मैंने काकी के बन्धनों से अब अपने आप को मुक्त सा मान लिया। काकी के पास और नानाजी के पास अब मैं शायद जा पाऊं या नहीं यह मुझे नहीं मालूम था पर मैं यहाँ भी रहना नहीं चाहता था। मुझे कुछ तो करना चाहिए। पर क्या? इस क्या का फिलहाल जवाब मेरे पास नहीं था। बडी कठिन परिस्थिति थी मेरे सामने। मुझे ही मेरे सारे प्रश्न निर्मित करने थे और फिर मुझे ही उन प्रश्नों के सारे जवाब तलाशने थे पर इस सारे विचार मंथन से मुझे एक बात का एहसास जरुर हुआ कि मेरा भी अपना ऐसा एक स्वतंत्र अस्तित्व है और इस तरह कोई इसे ठुकरा नहीं सकता। मैंने तय किया, ‘नहीं रहना मुझे इन अपिरिचित सुशीलाबाई के पास।’ मेरे इस निश्चयात्मक द्रढ़ता ने पहली बार ही मेरे अन्दर के विद्रोही स्वभाव से मेरा परिचय करवाया।
शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – २२ में
परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता।
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