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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- १७

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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धीरे-धीर दिन आगे सरकते जा रहे थे। विद्यालय शुरू होने में अभी एक महीना से कुछ ज्यादा ही समय था। गर्मी अपने पूरे जोरों पर थी और उस पर गर्म हवाएं। ऐसे ही में एक दिन काकी की तबियत कुछ ज्यादा ही खराब हो गयी। नानाजी मेरे फूफाजी रामाचार्य वैद्यजी को बुला लाए अब फूफाजी मुझे पहचानते थे। उनके काकी के कमरे में आते ही मैंने उनके पैर छुए। उन्होंने दिए चांदी के रुपये के कारण मैंने उनके पांव उत्साह से छुए थे। एक और चांदी के रूपये की अपेक्षा भी थी। वैसे अब मुझे पैसों का महत्व भी समझने लगा था। सारी जरूरतें रुपये देकर पूरी होती हैं यह मैं जान गया था। पर इस बार फूफाजी से मुझे सिर्फ कोरा आशीर्वाद ही मिला।
फूफाजी ने काकी की जांच की। फिर नानाजी को बोले, ‘ज्वर थोडा ज्यादा ही हैIकमजोरी भी ज्यादा है। परन्तु चिंता करने जैसा कुछ नहीं मेरे यहां से दवाई ले कर आइए। बताए अनुसार इन्हें शहद के साथ दीजिये। दो तीन दिन में ज्वर उतर जाएगा। एकाद सप्ताह में ठीक हो जाएंगी।’ नानाजी खुद जाकर फूफाजी के यहां से दवाई की पुडिया ले कर आए, आते वक्त शहद की एक छोटी शीशी भी ले आए। मुझसे लीला मौसी को बुलवा लिया और फिर उससे बोले, ‘लिले यह तीन दिन के लिए दवाई की पुड़ियां है, हर तीन घंटे से शहद में मिला कर देना है। ठीक से समझ लो। सब तुम्हारी जिम्मेदारी है।’
लीला मौसी ने सब पुड़ियां और शहद की शीशी अपने पास रखली। नानाजी जाने लगे तो काकी बोली, ‘दामादजी ..’ नानाजी ठहर गए। काकी बोली,’ दामादजी अब मेरा कोई भरोसा नहीं। मुझसे कुछ अब होता भी नहीं और सहा भी नहीं जाता। मैं अभागन आपके दरवाजे पड़ी हूं।आवडे के जाने से अब तो मुझे आपसे कुछ कहने या मांगने का भी अधिकार नहीं बचा। सिर्फ एक ही बताती हूं, इस बच्चें में मेरे प्राण अटके है। अब इसे आप ही सम्हालिए। चाहे तो मेरी अर्ज समझिएI’ काकी ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे नानाजी के आगे किया।
नानाजी भावुक हो गए। उनकी आंखें नम हो गयी। वें काकी से बोले,’ काकी, आपकी बेटी आवडे आपको अकेले को नहीं हम सब को छोड़ कर चली गयी है। वों भले ही सब को अधूरे में छोड़ कर गयी हो मैं अभी जीवित हूं। आपको किसी भी चीज की कमी महसुसू नहीं होने दूंगा। और इस बच्चें का कह रही हो तो अब इसके लिए भी आपको कोई तकलीफ नहीं होने दूंगा। आज से बल्कि अभी से ही मैं इसकी ओर ध्यान रखूंगा। जरुरत हो तो अब ये मेरे साथ मेरे कमरे में रहेगा। पर आप अपनी तबियत का खयाल रखो। वह बहुत जरुरी है। दवाई समय से लीजिए। एक ही समय आप खाना खाती है पर वह भी नियम से होना चाहिए। आप शीघ्र स्वस्थ हो यही इच्छा वरना ऊपर जाकर मैं आपकी आवडे को मुंह भी नहीं दिखा सकूंगा। दु:ख कही जाता नहीं है वह तो शरीर के साथ ही जाता है।’ ‘ऐसा मत कहिये दामादजी।’ काकी बोली,’ मैं आपकी हालत समझ सकती हूं। आपका दु:ख बहुत बड़ा है। मेरा दु:ख अब इस उम्र में आपके दु:ख के आगे कुछ भी नहीं है। रामजी ये दु:ख आपको सहन करने की शक्ति दे पर आप मेरे सामने जाने की बात न करे। अब तो मेरे जाने के दिन है, इसीलिए तो इस बच्चें के लिए परेशान हूं। ‘काकी बैठे बैठे ही नानाजी से बड़ी धीमी आवाज में बात कर रही थी,’ क्या है, हर एक के दु:ख का कारण एक हो सकता हैं, पर हर एक का दु:ख तो अलग अलग ही होता है न? जैसे आपके बच्चों की माँ इन्हें छोड़ कर गयी है, वैसे ही इस बच्चें की माँ भी इसे छोड़ कर चली गयी है। एक गोपाल को छोड़ दिया जाय तो आपके सब बच्चें अब समझदार हो गए है। फिर गोपाल को तो नाना कानपूर में सम्हाल ही रहा है। पर मेरे इस लाडले बाळ को अपनी माँ तो क्या इसके पिता से भी अभी तक कोई आसरा नहीं मिल सका है। दुनिया का तो इसे कोई अनुभव है ही नहीं। माँ के नहीं होने से मानों इसके लिए सारा जग पराया हो गया है। हमारे दु:ख से इसका दु:ख कितना बड़ा है यह समझने की जरुरत है। इसे कोई दु:ख कोई परेशानी ना हो यह देखना तो हमारा काम है ही सिवाय रामजी इसे लम्बी उम्र दे इसके लिए भी हमें कुछ कोशिश करनी होगी ना? बाळ यह हमारे पास किसी की अमानत हैIइसका ऐसा लालनपालन हो जिससे भविष्य में इसके जीवन में कोई कमतरता न रहें और सबके के सामने यह अलग ही शोभित हो।’ ‘काकी भले ही मैं आपक दामाद हूँ लेकिन मेरी भी हालत आपसे कुछ छुपी नहीं है और अब तो मेरी ग्रहस्थी पर भी संकट है। पंतजी और माई की भी तबियत खराब ही चल रही है और उन्हें भी सम्हालना ही हैं। बहुत कठिन दिन रामजी दिखा रहे हैं, फिर भी कुल मिलाकर मैंने अपना दु:ख एक तरफ रख दिया है। मैं अपने दु:ख के बारे में नहीं सोच रहा। मैं आपको फिर से वचन देता हूं कि आज से अक्का के इस बेटे की पूरी चिंता मैं अपने बच्चों से भी पहले करूंगा। इसका पूरा ध्यान रखूंगा। इसे कोई कमी नही पड़ने दूंगा। काकी आपकी सुख शांति और समाधान ही अब मेरा ध्येय रहेगा।’
नानाजी ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे लेकर धीरे धीरे कमरे से बाहर आगए। मैं भी यंत्रवत उनके साथ चल रहा था। नानाजी ने काकी की बातों को मन से लगा लिया। वैसे नानाजी भी काकी के समान ही नानी के जाने के दु:ख को भुला नहीं पा रहे थे। स्वाभाविक भी है। आंगन में से जब नानाजी मुझे हाथ पकड़ कर ले जा रहे थे तो बाड़े के सब लोग यह द्रश्य बड़े आश्चर्य के साथ देख रहे थे पर नानाजी का ध्यान किसी की ओर भी नहीं था। वें मुझे लेकर सीढियां चढ़ कर सीधे अपने कमरे में आए। कमरे में आने के बाद ही उन्होंने मेरा हाथ छोड़ा। मैं तो यंत्रवत उनके साथ आया ही था। दियाबाती का समय था। मुझे सब बच्चों के साथ खेलना भी था इसलिए मैंने नानाजी से पूछा,’ मैं जाऊं?’नानाजी कुछ भी नहीं बोले। उन्होंने सिर्फ गर्दन हिलाकर अपनी स्वीकृति दी। वैसे नानाजी के कमरे में मैं कई बार आ चुका था इसलिए मेरे लिए नया ऐसा कुछ भी नहीं था फिर भी नानाजी का इस तरह मेरा हाथ पकड कर मुझे अपने साथ उनके कमरे में लाना जरुर मेरे लिए कुछ अलग सा ही था। उस स्पर्श में एक नये अपनेपन का अनुभव मुझे हुआ। नानाजी के कमरे में वैसे कोई ख़ास ज्यादा सामान भी नहीं था। हाथ से बुनी हुई एक खुरदरी खाट और उस पर सिर्फ एक दरी। तकिया और चादर तो कभी देखने में ही नहीं आए थे मेरे। बस इतना ही नानाजी का बिस्तर था। एक लोहे का बहुत पुराना संदूक उसमे नानाजी के दो चार कपडे रखे रहते। खूंटी पर टंगा काले रंग का एक सूती कोट और काले रंग की टोपी। कुर्ता वह भी एक ही जो वें हमेशा पहने रहते और उसे रविवार को खुद बिना साबुन के धोते। इस कमरे में नानाजी की खुद की बस इतनी ही दुनिया कह लो या सम्पति कह लो जो कुछ था वह यही था। लेकिन नानाजी के कमरे में एक और महत्वपूर्ण वस्तू रखी थी और वह था पंतजी ने बड़े शौक से मंगवाया हुआ चाभी भरने के बाद चलने वाला लकड़ी का बहुत सुन्दर नक्काशी और बारीक़ काम किया हुआ ग्रामोफोन। शुरवाती दिनों में बनी थाली से भी बड़ी बड़ी रिकार्ड्स रखने की भी उसमें अलग जगह थी और उसमें बहुत सारे रिकार्डस रखे भी थेI
पंतजी को संगीत और साहित्य का बड़ा शौक था। कुछ वर्ष पहले तक उनकी बैठक की शोभा हुआ करता था यह ग्रामोफोन। साहित्यकारों और कवियों की महफ़िल भी बैठकों में हमेशा सजी रहती। मराठी के प्रसिद्ध कवी राजकवि भास्कर रामचंद्र तांबे के षष्टिपूर्ति समारोह के लिए सन १९३३ में जो समिति बनी थी और जिसके अध्यक्ष तत्कालीन देवास पाती-२ के महाराजा श्रीमंत सदाशिवराव खासेसाहेब पंवार थे और जिनके षष्टिपूर्ति समारोह के प्रमुख अतिथि तत्कालीन ग्वालियर नरेश थे उस तांबे षष्टिपूर्ति समारोह समिति की कार्यकारिणी में एक महत्वपूर्ण सदस्य थे पंतजी। पर अब ये सारी बाते बीस वर्ष से भी ज्यादा पुरानी है। अब तो पंतजी का स्वास्थ भी बहुत खराब रहता है। पर एक बात इससे सिद्ध होती है की पंतजी अपनी उम्र के पिछहत्तर वर्ष तक बहुत सक्रीय थे। पर अब यह ग्रामोफोन भी खराब है और बंद पडा है। अब इस बाड़े में पंतजी की बैठक में न पुराने गाने सुनाई देते है ना बैठक में साहित्यकारों और कवियों का जमघट ही होता है। और इस ग्रामोफोन की बदनसीबी देखिये अटाला समझ कर इस ग्रामोफोन की रवानगी नानाजी के कमरें में की गयी और उसे एक तरफ कोने में रख दिया गया। नानाजी तो साहित्य और संगीत से कोसो दूर थे। गणित के जो मास्टरजी थे। उनके लिए ये छत्तीस इंच लकड़ी का ऊंचा बक्सा किसी काम का ही नहीं था बल्कि उनके लिए वास्तव में यह अटाला ही था। इसलिए वे इसका इस्तेमाल, छोटीमोटी चीजे रखने के लिए करते। पर उनके पास कहने के लिए छोटीमोटी चीजे भी बहुत ही कम होती। उनकी चीजे मतलब एक काली टोपी, शेरछाप बीडी बण्डल, विमको छाप माचिस की डब्बी और कुछ वस्तुएं। और विमको दंतमंजन की कांच की खाली शीशी। इसमें मिटटी का तेल भरा हुआ। अब आप पूछेंगे ये क्यों? तो इस लिए कि खटमल पकड़ना और उसे शीशी में डालना।
दियाबाती के बाद बरामदे में सब बच्चों के साथ सब स्त्रोत कहना भी हो गए और खाना भी खा लिया। इसके बाद मैं काकी के पास उनके कमरे में गया। अब उन्हें थोडा आराम महसूस हो रहा था। दवाई की मात्रा लागू हो गयी थी पर उन्हें थोड़ी कमजोरी सी लग रही थी। काकी हाथ में माला लिए बैठी थी। शायद रामजी से उनका समझौता हो गया हो क्योंकि रामजी का जाप बिना रुके चल रहा था। मैं उनके पास जाकर बैठ गया। उन्होंने मेरी ओर पल भर के लिए देखा, रामजी का जाप बंद किया और अपनी माला एक तरफ रखी। मेरी पीठ पर से हाथ फिराया और मुझसे बोली, ‘आज से तुम अपने नानाजी के पास ही रहोगे। उन्हीं के कमरे में सोना और जो भी कुछ लगे वों उनसे ही मांगना।’ ‘क्यों?’ मैंने पूछा।
काकी के पास मेरे ‘क्यों’ का कोई जवाब नहीं था। वैसे देखा जाए तो काकी के पास किसी भी सवाल का जवाब ही नहीं था। वें खुद उनके सारे सवाल रामजी से ही पूछती और उत्तर की अपेक्षा किए बिना फिर कोई अलग सा सवाल रामजी के सामने रख देती आज तक उनको रामजी से उनके किसी भी सवाल का जवाब नहीं मिला है फिर भी रामजी के ऊपर उनकी अगाध श्रद्धा भक्ति और विश्वास है। काकी ने मेरे, ‘क्यों ‘ का जवाब नहीं दिया इसलिए मैंने फिर से पूछा, ‘बताओं ना मैं तुम्हारे पास क्यों नहीं सोऊं?’ ‘रामजी की यहीं मर्जी है। मैं कह रही हूं ना इसलिए तू जा दामादजी के पासI’
‘पर नानाजी बीडी पीते है। मुझे बीडी की गंध अच्छी नहीं लगती। मुझे खांसी आती है। लक्ष्मण मास्टरजी कहते है, ‘बीडी पीना और तम्बाखू खाना बुरी बात है।’
अब काकी को गुस्सा आ गया, ‘आग लगे उस लछमन मेंI नासपीटा खुद बीडी पिता रहता है। तम्बाखू खाकर स्कूल की सब दीवारे गन्दी कर के रखी है। वह अब ब्रह्मज्ञान भी देने लगा।’
काकी को मालूम नहीं सारी बाते कहां से पता पड जाती है? मैं काकी की ओर आश्चर्य से देखने लगा। मुझे अपनी ओर देखते ही काकी सम्हली। बच्चों के सामने ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए शायद इसका एहसास उन्हें हुआ हो। उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और बोली, ‘अब धीरे-धीरे तुम जैसे जैसे बड़े और समझदार होते जाओगे वैसे वैसे दुनिया की सब अच्छी और बुरी बातें तुम्हें पता पड जाएगी और अच्छी बुरी बातों को परखने की तुम्हें समझ भी आ जाएगी। बुरी और गन्दी बातों का आकर्षण मोह और खिंचाव अच्छी बातों की बनिस्पत बहुत ज्यादा होता है। पर मेरे बच्चे अभी तुम सिर्फ एक बात याद रखो कि आदमी बुरा नही होता उसकी आदतें बुरी हो सकती है।’
मै ख़ामोशी के साथ काकी को सुन रहा था। काकी क्या कह रही है यह समझने की कोशिश कर रहा था। शायद काकी को आज ही मुझे सब कहना था और सब समझाना था।
‘भले ही तुम्हारे नानाजी बीडी पीते हो लेकिन उन्हें तुमसे बहुत लगाव है। तुम उनके लाडले हो। तुम्हारे लिए वें सदैव चिंतित रहते है। तुम अभी बहुत छोटे हो। तुम्हें अभी उनके स्वभाव के बारे में उनकी परिस्थिति के बारे में और उनके दु:खदर्द के बारे में कुछ भी समझ में नहीं आ सकेगा। और नाहि मै तुम्हें कुछ समझा पाऊंगी। पर एक बात हमेशा याद रखो जो अपना होता है वहीं हमारी चिंता करता है और वहीं हमारा सदैव ख़याल रखता है। इसलिए जो अपना होता है उसे उसके गुण अवगुण सहित स्वीकार करने की मानसिकता होनी चाहिए। यही इंसानियत है। अगर तुम्हारे बारे में सोचा जाए तो तुम्हारी द्रष्टि से तुम्हारे नानाजी बहुत ही अच्छे इंसान है और तुम्हें उनकी जरुरत भी है।’ काकी की आंखे नम हो गयी थी। वें बोली, ‘अरे, इतने बुरे हालात के होते हुए खुद की पत्नी के जीवित न रहते हुए भी जो अपनी सास को बुढापे में आसरा देकर उसकी देखभाल कर रहा हो वो इंसान बुरा हो ही नहीं सकता। सुन, अब मैं कितने दिनों की हूं? मेरे जाने के बाद तुम्हें उनका ही तो आसरा है ना? इसीलिए कहती हूं अभी से सब चीजों की आदत कर लो। आज से तुम अपने नानाजी के पास ही उनके कमरे में रहोगे। वहीँ सोओगे और कोई जरुरत हो तो उनसे ही कहोगे।’
मेरे मना करने का सवाल ही नहीं था। मेरे को काकी की आज्ञा का पालन करना ही था। काकी का वाक्य मेरे लिए तो ब्रह्मवाक्य ही समझिए। वें कहेंगी वो पूर्व दिशा। मेरे जन्म के समय से ही काकी के रामजी ने मुझे कोई विकल्प दिया ही नहीं था सिवाय काकी की आज्ञा के पालन करने के। छोटे बच्चों जैसी जिद करने या रो कर मनवाने का भी मेरे पास विकल्प नहीं होता था क्योंकि मेरे प्रश्न जिद करने से या रोने से हल होने वाले नहीं थे। मेरे सामने कोई रास्ता नही था। उदास मन कुछ भी न बोलते हुए, काकी को अकेला छोड़ मैं सीधा नानाजी के कमरे में आया। नानाजी खाट पर बैठे थेI नानी के इस तरह अचानक जाने से नानाजी के जीवन में भी अकेलापन आगया था। वैसे भी नानाजी का स्वभाव संकोची और अंतर्मुखी सा था। बचीखुची कसर पंतजी के उनके साथ बचपन से होने वाले तिरस्कृत और उपेक्षापूर्ण व्यवहार ने कर दी थी। नानाजी हमेशा ही पंतजी के रोबदाब और दबदबे से आंतकित से हो जाते थे। मेरे जैसा ही मेरे नानाजी भी अपने बचपन से मिलने वाले अपमानजनक व्यवहार को पचाना और अपना दु:ख किसी के भी साथ न बाटना सीख गए थे। ‘आइये बाल्याजीI’ मुझे देखकर नानाजी बोलेI मुझे आश्चर्य हुआ। नानाजी के मुंह से मेरे लिए एक नया संबोधन निकला था। अब तक तो मुझे सब अरे तुरे कर के ही बुलाते थे I नानाजी ने मेरा हाथ पकड़ा और बोले, ‘बाल्याजी, आज से यंही हमारे पास सोना। यहीं रहना। काकी को कोई तकलीफ नहीं देना उनके बुढापे में। उनकी तबियत ठीक नहीं रहती है।’
नानाजी ने मुझे फिरसे, ‘बाल्याजी ‘ संबोधित किया। मुझे यह सोच कर बहुत अच्छा लगा कि मेरे लिए भी कोई सम्मान सूचक संबोधन है। क्या जाने यही संबोधन मेरे लिए कोई नया आधार कोई नया आसरा बन जाय। मैं कुछ भी नहीं बोला। चुपचाप खाट पर लेट गया। नानजी ने बीडी सुलगाई और उसे उलटी कर जलता भाग मुंह में रख थोडा सा धुआं बाहर निकाला और फिर वापस बीडी सीधी कर उन्होंने कश लेना शुरू किया। नानाजी का यह बीडी पीने का तरीका मेरे लिए कोई नया नहीं था। कई बार मै देख चुका था। बीडी पीने बाद नानाजी ने रामरक्षास्तोत्र का पाठ शुरू किया। नानाजी का स्कूल सुबह का होने से उन्हें सुबह बहुत जल्दी होती अत: वें रामरक्षास्त्रोत का पाठ नियम से रात को सोते वक्त करते। पंतजी सुबह स्नान के बाद रामरक्षास्तोत्र का पाठ करते। इस घर में रामजी के ऊपर सारे घर भर की अगाध श्रध्दा थी। रामरक्षास्तोत्र सुनते सुनते मुझे कब नींद लगी पता ही नहीं पड़ा। सुबह जब मैं उठा तब तक नानाजी स्कूल जा चुके थे।

अब मेरा ज्यादातर समय नानाजी के कमरे में ही जाता। ऊपर पहली मंजिल पर नानाजी के कमरे से सटा एक कमरा और था। वो कमरा और तीसरी मंजिल का एक कमरा ऐसे दो कमरें गत तीन वर्षों से पोस्टमास्टर उद्धवजी को किराये से दिए थे। वें और उनकी पत्नी ऐसे दो ही लोग थे। विवाह के बीस वर्ष बाद भी यह जोड़ा नि:संतान था। दूसरी मंजिल के कमरे में उन्होंने अपनी रसोई बनायी थी और तीसरी मंजिल के कमरे में सोने जाते। उद्धवजी को सब बाड़े के लोग दादा कहते और उनकी पत्नी को भाभी कहते। दिनभर नानाजी और उद्धवजी तो बाहर ही रहते।घर में भाभी दिन भर अकेली ही रहती। उन्हें इस बाड़े के हर एक घर की एक एक बात मालूम रहती। अर्थात उन्हें मेरे बारे में भी सब कुछ मालूम था। जबसे मैं नानाजी के कमरें में आया था तबसे भाभीजी मेरे साथ बड़ा अपनत्व दिखाती। मुझसे बड़े प्यार से बोलती। हमेशा मुझे कुछ न कुछ खाने को भी देती।जल्द ही मुझे भी उनसे लगाव हो गया। मुझे भांति भांति के पदार्थ खाने को मिलने लगे बातचीत करने के लिए दोनों को साथ मिल गया।
एक दिन भाभी ने मुझे छोटी पतीली दी और बाजार से एक पांव दूध लाने के लिए कहा। गली के बाहर ही हलवाई की दूकान थी और वह दूध भी बेचता था। मैं ख़ुशी ख़ुशी गया और उन्हें दूध ला कर दिया। उस दिन मैं बहुत प्रसन्न हुआ। मैं भी बाजार जा सकता हूं, कोई सौदा ला सकता हूं, इससे बढ़ कर मुझे इस बात की संतुष्टि भी हुई कि किसीने विश्वास के साथ मुझे काम कहां है। और यह विचार मन में आने के बाद तो मेरा मन आत्मविश्वास से भर सा गया। पर इस के बाद धीरे-धीरे भाभी का मुझे काम कहना बढ़ता ही गया। मेरे खानेपीने का वें ख्याल रखती इसलिए मैं भी उनको किसी काम के लिए मना नहीं कर पाता। परन्तु भाभी की मुझसे आत्मीयता और उनका हमेशा मुझे अधिकार के साथ काम कहना ये पूरे बाड़े में सबकी चर्चा का विषय बन गया। भाभी का व्यवहार तो ऐसा था कि वो सबके सामने मुझे डांटती, काम कहती, मानों मैं उनके घर का ही कोई सदस्य हूं। अब शरद मामा मुझे इस बात के लिए डांटने लगा। मुझे उनके काम करने से रोकने लगा। बाड़े के सब बच्चें मुझे भाभी का नौकर कह कर चिढाने लगे। मुझे समझ में नही आ रहा था कि शरदमामा को और सब बच्चों को भाभी से शिकायत है या मुझसे। आखिर क्यों? परन्तु भाभी का मेरे प्रति व्यवहार, हमेशा कुछ न कुछ खाने को देना, मुझसे बातचीत करना, इन सब के कारण मुझे उनमें अपनत्व होता और उनका एक आकर्षण सा मुझे हो गया था। भाभी मेरी तारीफ़ भी बहुत करती इसलिए मैं शरदमामा की डांट का या बच्चों के चिढाने की ओर ध्यान नहीं देता।
एक दिन भाभी ने मुझे गेहूं से भरी थैली दी और गली के बाहर चक्की पर से गेहू पिसाकर लाने को कहां। गेहूं से भरे थैली का वजन वैसे ज्यादा नहीं था, पर वापसी में आटे से भरी थैली बहुत गरम थी और मुझसे वह सम्हाली ही नहीं जा रही थी। जैसे तैसे मैं थैली को ला ही रहा था कि एक जगह मुझे ठोकर लगी और मैं गिरने ही वाला था कि अचानक मुझे दो हाथों ने सम्हाल लिया और मुझे गिरने नहीं दिया वरन आटे से भरी थैली भी मेरे हाथों से छूट जाती। मैंने देखा वें नानाजी थे। उन्होंने मेरे हाथों से आटे से भरी थैली ले ली और मुझे मानों मुक्ति मिल गयी। आंगन में नानाजी को भाभी के उस आटे की थैली को लाते सबने देखा। मकान मालिक को गेहू पिसाकर लाते देख भाभीजी तो बहुत लज्जित हुई। नानाजी भी थैली को सीधे उनके कमरे में ही ले आए। मैं भी उनके पीछे पीछे कमरे में आया। पीछे पीछे भाभी भी आगयी। अब नानाजी मुझे डांटेंगे यह सोच कर मैं डर रहा था।
‘भैय्या, आप क्यों लाए थैली? मैं इनसे मंगवा लेती। ‘भाभी ने सफाई देने की कोशिश की और थैली लेने के लिए वें आगे बढ़ी। ‘भाभी, मैं कई दिनों से देख रहा हूं कि तुम हमारे बाल्याजी को कुछ न कुछ काम कहती ही रहती हो।अभी इनकी उम्र ही क्या है? तुम यह ठीक नहीं कर रही हो।’ नानाजी बोले।
भाभी के पास नानाजी की किसी बात का जवाब नहीं था। वें सिर्फ चुपचाप खड़ी अपने पैरों को देखती रही। ‘भाभी, बच्चों को थोडा बहुत काम कहने में कुछ भी गलत नहीं है। पर हर हमेशा उनका अपने आराम और स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करना ठीक नहीं है। बच्चों को समझ नहीं होती पर बड़ों से तो हम समझदारी की अपेक्षा कर ही सकते है।’ नानाजी बोले। नानाजी क्या कह रहे हैं यह भाभीजी की समझ में ही नहीं आया।
‘थोड़ा बहुत लालच देकर या झूठी आशा दिखाकर और कोई कारण न होते हुए भी हरदम कुछ कुछ न बच्चों से काम लेना यानि उनके ऊपर अत्याचार ही होता है। हमारे बाल्याजी बिन माँ के हो सकते हैं पर अनाथ नहीं है। यह अच्छी तरह याद रहे। आगे से इस तरह का व्यवहार कदापि सहन नहीं किया जाएगा।’ नानाजी ने कठोर शब्दों में भाभी को चेताया। भाभी तो डर गयी। तुरंत उन्होंने आटे की थैली उठाई फिर बोली,’ गलती हो गयी भैय्या। आगे से ऐसा नहीं होगा।’ और वें सीधे कमरें से बाहर निकल गयी। उस दिन नानाजी के चेहरे पर सिर्फ मेरे कारण ही भाभी के लिए गुस्सा देखा। मेरे ऊपर नानाजी की बड़ी बारीक नजर रहती है यह भी उस दिन मेरे ध्यान में आया। काकी उस वक्त वहां नहीं थी वरना ये सब देख कर उन्हें निश्चित ही प्रसन्नता होती और उन्होंने नानाजी के साथ ही अपने रामजी के भी कई कई बार उपकार माने होते। परन्तु भाभी अब मेरे से थोड़ी नाराज सी रहने लगी। मुझे उनका काम कहना भी बंद हो गया। अर्थात अब उनके यहां मेरा खाना पीना भी कम हो गया। पर इस घटना के बाद नानाजी याद से मेरे लिए कुछ न कुछ लाने लगे। कभी तिलगुड की रेवड़ी, कभी गजक, कभी गोली, कभी बिस्कुट, तो कभी और कुछ।
गर्मियों की छुट्टियां कब खत्म हो गयी पता ही नहीं चला।स्कूल शुरू हो गए। तीसरी कक्षा का मेरा पहला ही दिन था।एक दिन पहले ही नानाजी ने ख़ास तौर पर कहां था,’ स्कूल जाने के पहले रामजी को दंडवत करना। काकी समेत घर के सब बड़ों को भी नमस्कार करने के बाद ही स्कूल जाना।’ काकी के कहे अनुसार नानाजी अब मेरा पूरा ध्यान रख रहे थे और इसमें अच्छे संस्कार डालना भी आता ही है ना। मैंने पहले राममंदिर में रामजी को साष्टांग दंडवत किया फिर काकी, पंतजी और माई समेत सब के चरण छू कर आशीर्वाद लिया।इसके बाद ख़ुशी ख़ुशी मैं पहले दिन स्कूल गया।
जनकगंज प्राथमिक विद्यालय के कक्षा तीन में मेरा बैठना शुरू हुआ। नानाजी भी जनकगंज माध्यमिक विद्यालय में होने से मेरे को कोई परेशानी नहीं थी। सब जानते भी थे और मैं भी तो पहली कक्षा से इसी विद्यालय में पढ़ रहा था। मेरे लिए भी कुछ नया नहीं था। वहीं अध्यापक, वहीं मित्र, वहीं स्कूल।
पहली कक्षा में दाखिला लेने के बाद हमारी ही गली में रहने वाले बालकृष्ण से मेरी मैत्री हो गयी थी। हम स्कूल में साथ साथ ही खेलते। बालकृष्ण को सब सोनू के नाम से बुलाते थे और पिछले दो माह की छुट्टियों में हम दोनों बाड़े में भी बहुत खेले थे। इस कारण वह अब मेरा नजदीकी मित्र सा हो गया था। इन दो महीने में कई बार मेरा सोनू के यहां भी जाना हुआ था। सोनू के पिता दिनभर घर में ही रहते। कुछ बीमार से रहते। उसके पिता बीडी तो पीते ही थे पर उन्हें कई बार मैंने चिलम भी फूंकते हुए देखा था। सोनू अपनी माँ बाप की इकलौती संतान तो था ही पर अपने पिता का बहुत लाडला था। पर उसके माँ-बाप हमेशा आपस में लड़ते रहते थे और विशेष यह कि उसके पिता उसकी माँ को बहुत बुरी तरह से मारते थे। आस पडौस के सब उनके झगडे देखते पर सोनू की माँ को कोई भी बचाने नहीं आता। एक दो बार तो मैंने सोनू के पिता को सोनू की माँ को जलती हुई लकड़ी से पीटते देखा। मुझे बहुत बुरा लगता और विचित्र भी लगता। सोनू के पिता का मुझे डर भी लगने लगा था। अपने पिता की देखादेखी सोनू भी बीडी पीने लगा था और इतना ही शायद काफी नहीं था वह अपनी माँ को भी मारने लगा था। एक दो बार तो सोनू को मैंने ही उसकी माँ को पीटने से रोका था पर इन दोनों बाप बेटों को रोकने वाला कोई नहीं था और माँ को बचाने वाला भी कोई नहीं होता था। पिता का लाडला होने से सोनू जितने पैसे मांगता उसे वह मिल जाते और फिर सोनू और मैं बाड़े पर जाते। खूब खाते पीते और मौज करते। सोनू पढ़ाई में बहुत कमजोर था। मैं पढ़ाई में उसकी मदत करता और कई बार उसका गृहपाठ भी मुझे ही करना पड़ता। सोनू मेरे लिए खर्च करता और मैं उसकी पढाई में मदत इस तरह हमारी मैत्री लेनदेन वाली शुद्ध व्यवहारिक हो गयी।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – १८ में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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