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उपन्यास : मै था मैं नहीं था भाग : १४

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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कुछ दिनों बाद की बात है। उस दिन शाम के समय मैं छज्जे में बैठ कर रामरक्षास्त्रोत कह रहा था। अब मुझे सब श्लोक अच्छी तरह से कंठस्थ हो गए थे। मैंने देखा पंतजी लाठी टेकते हुए धीरे-धीरे मेरी और आ रहे थे। उनका ध्यान मेरी ओर ही था। मुझे अकेला छज्जे में बैठ कर श्लोक बोलते देख उन्हें आश्चर्य हुआ। मेरे पास आकर वें बोले, ‘दियाबाती के समय ऐसे अकेले यहां छज्जे में बैठे क्या कर रहे हो? नीचे जाओं सब बच्चों के साथ झूले पर।’
मैंने कोई जवाब नहीं दिया। पंतजी को मुझसे बोलता देख काकी भी नीचे बरामदे से ऊपर मेरे पास आकर खड़ी हो गयी। हम को आपस में बात करता देख नानाजी भी हमारे पास आकर खड़े हो गए। अरे, मैं क्या पूछ रहा हूं?’ पंतजी बोले, ‘तुम्हें अब सारे श्लोक, रामरक्षा और मन के श्लोक समेत सब सीखना और याद करना चाहिए। जाओं नीचे बच्चों के साथ जाकर बैठो, कुछ सीख लो।’
मैं फिर भी चुपचाप खड़ा रहा।
‘अरे मैं तुमसे क्या पूछ रहा हूं?’ इस बार पंतजी ने जरा जोर से पूछा। अब मैं घबराते हुए धीरे से बोला, ‘मुझे सब आता है।’ पंतजी को सारी खबर रहती थी। नानाजी ने मुझे मारा यह बात उन्हें उसी दिन पता पड गयी थी। पर मुझे संस्कृत के सब श्लोक और स्त्रोत याद है इस बात पर उनको विश्वास नहीं हो पा रहा था।
‘अच्छा सुनाओंI’ उन्होंने कहा।
फिर क्या था मैं जो शुरू हुआ तो लगातार, शुभं करोति कल्याणंम, रामरक्षा स्त्रोत और मारुती स्त्रोत सुनाने के बाद ही चुप हुआ। वैसे मैंने और भी बहुत कुछ याद कर लिया था पर पंतजी ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर, ‘बस’ बोला। मेरी पीठ पर से उन्होंने हाथ फिराया फिर नानाजी से बोले, ‘सोन्या, तुम्हारा ये नाती बड़ा होशियार है। पर ज़रा सम्हल कर। दामाद का लड़का है।’ पंतजी को क्या कहना था ये नानाजी ने जान लिया और काकी ने भी जान लिया।
पंतजी और नानाजी चले गए पर काकी को इतना आनंद हुआ कि पूछो मत। उन्होंने मुझे अपने आगोश में ले लिया। फिर मेरी पीठ पर हाथ फिराया, मुझे शाबासकी दी और खुद मेरा हाथ पकड कर मुझे नीचे बरामदे में ले जाकर सब बच्चों के साथ झूले पर बिठा दिया। अब मेरा संस्कृत का उच्चारण भी स्पष्ट था और मुझे सब कंठस्थ भी था। पंतजी, नानाजी और काकी के प्रोत्साहन से मेरा आनंद मानों गगन में भी समा नहीं रहा था।मेरा आत्मविश्वास भी कई गुना बढ़ गया था। काकी जरुर उस रोज दियाबाती और आरती के बाद बड़ी देर तक बरामदे में अपने रामजी के सामने बैठी रही। मानों रामजी से उनकी नाराजी दूर हो गयी हो। शायद उन्होंने रामजी के आभार भी माने हो।

मुझे मारने के लिए नानाजी को निश्चित ही दु:ख हुआ होगा। बुरा भी बहुत लग रहा होगा? वैसे उन्होंने इस बारे में किसी को कुछ बोल कर नहीं बताया, पर नानाजी वैसे भी किसी से ज्यादा बोलते ही नहीं थे। हमेशा गुमसुम रहना शायद उनका स्वभाव बन गया था। परन्तु मेरे हम उम्र गोपाल मामा के कानपूर जाने से उनका मुझसे लगाव कुछ बढ़ सा गया था। मेरे लिए यही समाधान कारक था। नानाजी जनकगंज माध्यमिक विद्यालय में छटी, सातवी और आठवी के विद्यार्थियों को गणित पढ़ाते। सात बजे का स्कूल होता इसलिए रोज सुबह साढे छ: बजे घर से निकल जाते। दोपहर को घर आने के बाद भोजन करने के बाद एकाद घंटा विश्राम करते। दोपहर के तीन बजे के बाद घर से निकल, चार घरों में गणित की ट्यूशन कर के शाम सात बजे तक वापस आते। मेरी प्राथमिक पाठशाला बारा बजे लगती इसलिए नानाजी का आमना सामना कभी-कभार शाम के बाद ही होता। या फिर छुट्टी वाले दिन। पंतजी और नानाजी के सामने सारे श्लोक सुनाने के बाद उस दिन से नानाजी भी कुछ बदले बदले से नजर आने लगे। अब वें कभी-कभार शाम को बरामदे में आकर मुझे अपने पास बुला कर मेरे स्कूल के बारे में और मेरी पढ़ाई के बारे में जानकारी लेने लगे। नानाजी का पढ़ाने का विषय गणित था। चक्रवर्ती का अंकगणित उन्हें कंठस्थ था। कक्षा में जाते ही बिना गणित की किताब खोले बोर्ड पर वे सीधे गणित का प्रश्न ही लिखते और फिर विद्यार्थियों को बताते की फलाने प्रश्नावली का फलाने नंबर का सवाल फलाने पृष्ठ पर है। उनकी कक्षा में विद्यार्थियों को गणित की किताब कक्षा में लाने की सख्त मनाही थी। किसी के पास अगर किताब मिलती तो नानाजी उसे कठोर दंड देते। बार-बार गलती करने वाले विद्यार्थियों को दंड देने का उनका तरीका बेहद कठोर होता। नानाजी उस लड़के के दोनों कान अपने दोनों हाथों से पकड़ते फिर जोर से बोलते, ‘ये मेरे हाथ, ये तुम्हारे दोनों कान और ये जनकगंज स्कूल की दीवार’ और फिर धडाम से उसका सर दीवार पे दे मारते। वैसे नानाजी कदकाठी में ठिंगने ही थे और उनकी कक्षा में विद्यार्थी ऊँचे पूरे और बीस बीस पच्चीस पच्चीस वर्ष के होते। ऐसे में नानाजी बेंच पर चढ़ जाते और ऊँचे लडकों के कान पकड़ कर उन्हें दंड देते। सच तो यह की विद्यार्थी नानाजी से बेहद घबराते थे। नानाजी का दंड देने का तरीका पूरे ग्वालियर में चर्चा का विषय होता। बहुतेरे इसे पाशविक तरीका भी बताते पर इसके पीछे का कारण शायद नानाजी को पंतजी से हमेशा मिलने वाला उपेक्षा पूर्ण व्यवहार और तिरस्कार हो। पिता से मिलने वाला तिरस्कार और अपमान, खुद की आर्थिक खस्ता हालात और स्वयं के परिवार की पिता पर निर्भरता इन सब परिस्थितयों ने नानाजी को निराश कर दिया था। उन्होंने अपने आप को भले ही परस्थितियों पर छोड़ दिया हो पर उनके अन्दर एक विद्रोही स्वभाव धीरे-धीरे पनपने लगा जिसकी परिणिति गुस्से में होती गयी। विद्यार्थी उनके इस स्वभाव का आसानी से शिकार हो जाते। उनका स्वभाव अब कायम स्वरूपी गुस्सैल हो गया था।
अपने पिता से मिलने वाली उपेक्षा, प्रताड़ना, खुदके आर्थिक खस्ता हालात और भरेपूरे परिवार की जिम्मेदारी, इच्छा न होते हुए भी पिता पर निर्भरता, इन सबने तो नानाजी को लाचार बना ही दिया था पर इससे भी महत्वपूर्ण यह कि अब भी उनके सारे निर्णय पंतजी ही लेते थे। उन्हें अपने निर्णय स्वयं लेने की आजादी नहीं थी। अपने पिता के लिए निर्णयों का पालन उहे करना ही पड़ता था। नानाजी को उनके पिता की और से ही पल-पल की चुनौती मिलती थी। नानाजी को लगता जैसे कोई उनके अस्तित्व को ही हमेशा नकार रहा हो। पंतजी ने नानाजी की समाज और रिश्तेदारों में छवि एक निराश, लाचार, नाकारा, आदमी की बना कर रख दी थी। इसलिए रिश्तेदारों में भी उन्हें उचित सन्मान नहीं मिलता था। नानाजी ने भी इन परिस्थितियों में अपने आप को बिना किसी विरोध के ढाल लिया था। खुद को भी सबसे अलिप्त सा कर लिया था पर इन सब के कारण उनका दम अन्दर ही अंदर घुटता था। वे पूर्ण रूप से लाचार और निराश हो गए थे। अपने पिता के वटवृक्ष के निचे उनकी अपनी ही जड़ें कट चुकी थी और उन्हें पनपने का अवसर ही नहीं मिल पाया। इसके मुकाबले पंतजी की प्रतिष्ठा, मान मरौवत, इज्जत, हैसियत सब कुछ बड़ा था। उनका सरकारी दरबारी रुतबा था। पंतजी ने शिक्षा विभाग में अपने रसूखों का इस्तेमाल कर नानाजी को अध्यापक की नोकरी दिलवाई थी और कई बार सब के सामने वें यह बोल कर भी दिखाते थे। उनकी नजर में नानाजी किसी काम के नही थे और कठिनाई ये थी की सब नानाजी की तुलना पंतजी से करते और नानाजी से उसी तरह के व्यवहार की अपेक्षा भी रखते। फिर लोगों को निराशा ही हाथ लगती और नानाजी हमेशा दु:खी हो जाते। उन्हें समझने वाला कोई भी नहीं होता इससे उनका गुस्सा अन्दर ही अन्दर इक्कठा होता रहता।
नानाजी की वैसे उनकी अपनी स्वयं की कोई ज्यादा जरूरते नहीं थी। साल भर में एक जोड़ी धोती, एक जोड़ी कुर्ता ,एक धोती तन पर तो दूसरी सूखने के लिए बांस पर ऐसी अवस्था थी। एक काले रंग का सूती कोट। एक काली टोपी और पाँव में चप्पले। यही उनकी वेशभूषा और यही उनकी व्यक्तिगत जरूरतें। और हां एक दो आने का शेर छाप बीडी बण्डल जो दो दिन चलता। और एक पैसे की विमको माचिस जो कुछ ज्यादा ही चलती। बस। आंगन में बच्चों के डर से नल थोडा ज्यादा ही ऊपर लगवाया गया था। नानाजी बारा महीने उसी नल के नीचे नहाते। नहाने के बाद आधी धोती खोल कर उसे निचोड़ कर उससे अपना बदन पोछते। उसके बाद वे वैसे ही आधे भीगे बदन से बांस पर सूखती धोती लेकर धोती बदलते और तुरंत पहनी हुई धोती निचोड़ कर उसे बांस पर सुखाने डालते। नानाजी के लिए साबुन का महत्व ही नहीं था। न बदन के लिए और नाहि कपड़ों के लिए। नानाजी की इस स्नान विधि को हम बच्चें बडे अचरज से देखते पर उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। अलबत्ता लंबा सा कुर्ता जरुर वे रविवार के रविवार ही धोते। वो भी बिना साबुन के। रोज नहाते वक्त गंगास्त्रोत कहना और सोते वक्त रामरक्षास्तोत्र कहना ये उनके नियम में था।
घरभर का बाजारहाट नानाजी ही करते। पूरे एक महीने का वेतन पचास रुपये वें अपने पिता पंतजी के हाथों पर एक तारीख को ही रख देते। उनकों इस नियम से आजतक कोई भी डिगा नहीं सका। यहां तक की नानी भी नही। बाजारहाट के खर्च के लिए उनकों हमेशा अपने पिता के आगे हाथ फैलाने पड़ते। खर्च का सारा हिसाब भी उनकों पंतजी को तुरंत देना पड़ता। पंतजी खुद होकर नानाजी को कभी खर्चे के लिए रुपये नहीं देते। उन्हें हमेशा मांगना ही पड़ता। और ऊपर से पंतजी एक बार मांग कर रुपये नहीं देते। कई बार मांगना पड़ते। और रुपये देते समय नानाजी को हमेशा मितव्ययिता का उपदेश इस उम्र में भी हमेशा सुनना ही पड़ता। बस यहीं पर नानाजी अपना आपा खो देते और फिर बाप बेटे में जो संग्राम होता तो घर भर के और बाड़े के भी सब दर्शक बन जाते। वैसे नानाजी कुछ भी फालतू खर्च नहीं करते। बस उनको बीडी पीने की आदत थी और इसी कमजोरी को पंतजी हमेशा सब के सामने कह कर सुनाते। इससे नानाजी अपमानित महसूस करते और वें भी अपने पिता को सुना देते, ‘मुझे आपकी जायजाद से एक फूटी कौड़ी भी नहीं चहिये।’ पंतजी भी शांत नहीं बैठते, जोर से चिल्लाकर वें कहते, ‘बीडी पीने के लिए मैंने नहीं कमाई यह सम्पतिI’ बस यहीं इस संवाद का अंत होता और नानाजी तेल की कट्टी और थैला लिए सौदा लेने बाहर निकल जाते। फिर पूरे बाड़े में शांतता होती। लेकिन फिर दो चार दिनों बाद यही नाटक पूरे घर के लोगों को और किरायेदारों को देखने को मिलता।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – १५ में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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