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उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग १३

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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तीन वर्ष पूरे कर आठ माह हो चुके थे और अगले कुछ माह में मैं चार वर्ष का होने वाला था। दिन मजे में गुजर रहे थे। काकी पूरी सदिच्छा और आनंद के साथ मुझे सम्हाल रही थी। मेरा सब नियमित रूप से कर रही थी। अब मैं थोड़ा-थोड़ा बोलने भी लगा था। अपनी जरुरतें मैं सब को बोल कर बताने लगा था। अच्छी तरह से चलने भी लगा था इसलिए काकी अब अपने साथ मुझे लेकर बाहर भी जाने लगी। परेठी मोहल्ले में भी काकी की ससुराल हम कभी-कभार जाने लगे। प्रत्येक गुरूवार काकी बिना नागा शाम के समय मुझे अपने साथ ढोलीबुआ के मठ में ले जाने लगी। मुझे सम्हालना काकी के लिए अब आसान हो गया था। फिर भी उनका सारा ध्यान मेरी ओर ही लगा रहता। काकी के जीवन जीने के कठोर नियम और उससे भी बढ़कर उनके कठोर अनुशासन से मेरा रोज ही सामना होता था। बाकी किसी से भी उनका कोई लेना देना ही नहीं था ।
काकी का सारा जोर हमेशा अच्छे बर्ताव, अनुशासन और अच्छे संस्करों के लिए होता। रोज सुबह मुझे वें सूरज उगने से पहले ही जगाती। उठते ही मुझे उनके आराध्य रामजी को और सूर्य देवता को वंदन करवा लेती। उसके बाद वक्रतुंड और कराग्रे वसती लक्ष्मी इत्यादी मुखाग्र उच्चारण करवा लेती। वें यही पर नहीं रूकती। संस्कृत के श्लोक और प्रार्थना के बाद वे नित्य नियम से मुझसे घर के सब बड़ों के पैर छूने को कहती। मैं छोटा सा नन्हा बालक काकी की आज्ञा का पालन बिना सोचे बडी ख़ुशी से करता। शाम को नित्य नियम से बिना नागा, राम मंदिर के बरामदें में काकी मुझे लेकर बैठती। वहां बरामदे में बाड़े के सभी छोटे बच्चें झूले पर बैठकर नित्य नियम से ३० तक के पहाड़े याद करते। इसके बाद शुभमं करोति कल्याणम का संस्कृत का पूरा श्लोक तथा रामरक्षा, समर्थ रामदास के मन के श्लोक, मारुतीस्त्रोत सहित अन्य श्लोक का भी पाठांतर होता। इन सब की रिदम और जोश मेरे लिए कौतुहल और मेरे छोटे से मन को आल्हादित करने वाला होता। मेरे लिए यह खेल भी होता। धीरे-धीरे मुझे भी बहुत कुछ याद होने लगा। रात को सोते समय काकी मुझे नियम से रोज पौराणिक और धार्मिक कहानियां सुनाती। एक बात बताऊँ बहुत जल्द ही मैं चिड़िया और कौओं की कहानियों से बाहर आ गया था। कुल मिलाकर काकी की दुनिया में जैसे मैं ही सर्वस्व था। अन्य किसी का भी विचार उनके मन में नहीं आता
सावन ख़त्म हो गया और बारिश की बौछारों के ख़त्म होते ही इस घर में दो खबरें एक के बाद आने से आनंद की कुछ बौछारें इस घर के लोगों को भी भिगों गयी। एक तो यह कि पंतजी की सबसे छोटी बिटिया विजया की शादी तय हो गयी। दूसरी यह कि मेरी मौसी मतलब मेरे माँ की छोटी बहन सुंदर मौसी का विवाह भी तय हो गया। दोनों विवाह दिवाली बाद पहले मुहूरत पर होना तय हुए थे। अब इस घर में एक साथ दो विवाह की तैयारी होने से उज्जैन में मेरे पिता के पास मुझे भेजने के बारे में कोई सोच भी नहीं रहा था।
ऐसे ही एक दिन एक दोपहर को काकी ने नानाजी और नानी को अपने कमरें में बुलवा लिया।
काकी कुछ काम है क्या? नानाजी ने पूछा।
‘हां। ‘काकी बोली, ‘अच्छा हुआ तुम दोनों यहां आगये। आवडे, अब दो-दो विवाह घर में होना है। मैं जानती हूं समधीजी और दामादजी सारी व्यवस्था अच्छी तरह से करेंगे ही और वें समर्थ भी है। पर मैं क्या कहती हूं, अबके इस अक्का के लड़के के लिए भी शादी में पहनने के लिए दो जोड़ी नए कपडे सिलवा सके तो बेहतर होगा? जन्म से ही इसके उसके बेढंगे कपडे पहन रहा है बेचारा। नए कपडे आने से दिवाली में भी काम ही आएंगे इसके।’
नानी तो आश्चर्य से काकी की ओर थोड़ी देर देखती ही रही। उसे तो इस बात का भी अंदाज ही नहीं था की उसकी माँ फिर से मेरे लिए उससे कुछ कहेगी। अपने खुद के ही नाती के लिए वो चार वर्ष में कोई नया कपडा नहीं करवा सकी इस बात से उसे अटपटा लगने लगा। और उसकी माँ द्वारा यह बताये जाने से वह और भी लज्जित महसूस करने लगी।
‘माँ, क्या कह रही हो तुम? हम जब सब बच्चों के लिए नए कपडे सिलवाएंगे तब इसके लिए भी जरूर कपडे सिलवा लेंगें।’
‘नानी ने मुझे अपनी गोद में बिठाया। मेरे बालों को सहलाया। फिर मुझे चूम लिया। काकी की बात सुन कर नानाजी के लिए तो मानों रसातल में गड़ने जैसा हो गया। बीतें चार वर्षों में वाकई में उन्होंने मेरे लिए कुछ भी नहीं लाया था। साधारण सी काले रंग की करधौनी भी मेरे लिए कोई नहीं लाया था। जबकि गोपाल मामा को माई ने चांदी की करधौनी पहनाई थी।
‘मैं सब जानती हूं। ‘काकी बोली, ‘आवडे, क्या तुम यह समझती हो कि मैं तुम दोनों की हालत नहीं जानती? ‘इतना कह कर काकी ने आले में रखी अपनी पोटली जमीन पर रख दी। पोटली में से एक छोटी सी लाल रंग की थैली निकली। काकी ने थैली में से एक-एक रुपये के चांदी के जार्ज पंचम के खनखनाते सिक्के जमीन पर फैला दिए। फिर नानाजी से बोली, ‘दामादजी आप तो गणित के अध्यापक हो ना? गिन कर बताइये कितने सिक्के है? ‘नानाजी काकी की ओर देखने लगे।
‘अरे माँ, क्या कर रही हो तुम? ससुरजी दोनों की शादी का पूरा इंतजाम करने वाले है। चिंता की कोई बात नही हैं। सिवाय तुम्हारे बड़े नाती को भी अब कानपूर में नौकरी लग गयी है। उसका भी पचास रुपयों का मनीऑर्डर आ गया है और संदेशा भी भिजवाया हैं कि जरुरत पड़ने पर और रुपयों का भी इंतजाम कर के भेजेगा। ‘नानी बोली, ‘माँ, तुम्हारे रुपये तुम अपने पास रखो।’
काकी ने नानी की बातों को अनसुना कर दिया, ‘मुझे सब मालूम है। दामादजी, मैं कहती हूं आप रूपये गिनिए।’
नानाजी ने रुपये गिने, ‘पूरे दो सौ चालीस है काकी।’
‘हाँ, इन्हे अपने पास रखिए। संकोच करने की जरुरत नहीं। यह भी तो आपके ही रुपये हैं। हर माह पंतजी आपके जरिये जो दस रुपये मुझे भिजवाते थे उनमें से और कुछ मेरे बचे हुए रुपये है ये। ऐसा कीजिये इन रुपयों से आप दोनों के लिए और सभी बच्चों के लिए अच्छे से नए कपडे सिलवा लीजिये।’ काकी बोली। नानाजी को तो रुपयों की जरुरत थी ही इसलिए उन्होंने सब रुपये थैली में भर लिए और थैली अपने पास रखली।
दामादजी, मुझे आपसे एक और काम है। काकी बोली।
‘क्या ?’
‘अक्का का यह बेटा अब जी गया है। सब रामजी की कृपा। और आप सब के कारण भी यह सांस ले रहा है। सकुशल है। पर अब मेरे प्राण इसमें अटक गए है। लेकिन मेरा दुर्भाग्य है कि अब मेरे दिन ज्यादा नहीं बचे। न जाने कब मुझे रामजी बुलवा ले?’
‘ऐसा क्यों कह रही हो काकी? ‘ नानाजी बोले
‘सहस्त्र चंद्र दर्शन के दिन आ गये अब। अठहत्तर कब के पार हो गये। अब जी उकता गया यहां से। रामजी के बुलावे का ही तो इन्तजार है। जाने कब बुलाएगा मुझे? मैं क्या कहती हूं ध्यान से सुनो। आवडे के अपने बच्चें हैं। अपनी गृहस्थी है। ऊपर से रसोईघर की और राम मंदिर की सारी जिम्मेदारी। काम के मारे उसे बिलकुल फुर्सत नहीं मिलती। ऊपर से माई का कठोर बर्ताव। मतलब आवडे की जिंदगी पूरी रस्सी के ऊपर की कसरत है। इसलिए आज मुझे आपसे एक वचन चाहिए। रामजी आपके दामाद को सदबुद्धी दें और वह अपने बेटे को जल्द से जल्द अपने पास बुलाले। पर उसके पहले अगर मुझे कुछ हो गया तो अक्का के इस बच्चे को आप अपना नाती नहीं बेटा समझेंगे। इसे आपका ही आसरा रहेगा। इसे खूब पढ़ाइएगा। इसमें और अपने बच्चों में आप कभी भी फर्क नहीं करोगे। ‘काकी बोली।
नानाजी और नानी एक दूसरे की ओर देखते ही रह गए। नानी की आंखों से तो आंसू ही बहने लगे। नानाजी की आंखें भी नम हो गयी दोनों भावुक हो गए।
‘माँ, हमें क्षमा करो।’ नानी बोली, हमसे बहुत बड़ी भूल हुई माँ। इस उम्र में भी बीते चार वर्षों से हमारी जिम्मेदारी तुम सम्हाल रही हो और हम नासमझ यहीं समझ रहे है कि विष्णुपंत समधीजी के पोते से हमारा कुछ भी लेना देना ही नहीं हैं। मै अपनी गृहस्थी की गाडी खींचते-खींचते, रोज की परेशानियों में यह भूल बैठी कि विष्णुपंत समधीजी का पोता हमारा नाती है। हमारी लाड़ली अक्का का बेटा है और यह बिन माँ का है। कितने निष्ठुर और संवेदनहीन हो बैठे हम लोग। मुझे एक बार फिर क्षमा करो माँ। और अब तुम इसकी चिंता मत करो। हम सम्हालेंगे हमारे मुन्ना को।’ नानी बोली।
‘आवडे, मैं तुमको दोष नहीं दे रही हूं। ‘काकी बोली,’ मुझसे तो तुम्हारी दुर्दशा भी नहीं देखी जाती। पर क्या करू मै तो खुद ही तुम्हारे यहाँ आश्रित हूं। मै तुम्हारे लिए भला क्या कर सकती हूं? पर दामादजी जरूर इसका ख़याल रख सकते है। वैसे भी यह अब बड़ा हो गया है इसलिए मुझे दामादजी से ही इसे सम्हालने का वचन चाहिए। इससे मै शांति से मर सकूंगी। और अब कोई इच्छा बाकी नहीं रामजी के दरबार में। ‘ नानाजी उठ खड़े हुए और काकी के पैरों को छूते हुए बोले, ‘काकी मुझे क्षमा कर दो। समय रहते आपने मुझे सम्हाल लिया। मैं आज आपको वचन देता हूं कि हम इस बच्चें की ठीक से परवरिश करेंगे। इसकी भलाई का ही हमेशा सोचेंगे। इसे ठीक से पढ़ाएंगे। जब तक दामादजी इसे उज्जैन नहीं ले जाते तब तक हम इसकी और विशेष ध्यान देंगे। अब आप इसकी किसी भी तरह से चिंता न करे। मैं फिर यह से वचन देता हूं। उस दिन पहली बार नानाजी ने मुझे गोद में लिया। मुझे चूमा। पहली बार ही नानी ने भी मेरी अक्का का लाडला मेरा भी लाडला कहकर मुझे कई बार चूमा।
धीरे-धीरे नानी अपनी अक्का को भूल कर गृहस्थी में रम गयी। पूरा घर शादी की तैयरियों में व्यस्त हो गया। हां पर नानाजी जरूर मुझे लेने लगे। मुझे और गोपालमामा को बाड़े पर के पार्क में घुमाने के लिए भी ले जाने लगे। मेरे लिए पहली बार नए कपडे भी सिलवाए गए।

दोनों विवाह एक ही मंडप में थोड़े-थोड़े अंतर से होने थे। दोनों ही विवाह हेतु पंतजी ने उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप सारी व्यवस्था की थी। नए कपडों में मै शान के साथ इधर उधर घूम रहा था। नानाजी और नानी भी मेरा परिचय बड़ी आत्मीयता के साथ, ‘अपनी अक्का का बेटा ‘ कहकर मेहमानों से कराते और मेहमान गंभीर हो जाते। मेरे पिताजी इन दोनों विवाह में उज्जैन से आने वाले नहीं थे। परन्तु मेरे दादाजी विष्णुपंत और दादी राधाबाई दोनों विवाह हेतु ही खासकर उज्जैन से पधारे थे। मेरे फूफा वैद्य रामाचार्यजी सहित पंतजी की सारी मित्रमंडली भी विवाह में हाजिर थी।
नानी की नजर मेरी दादी पर पड़ते ही वें मेरी उंगली पकड कर मुझे मेरी दादी के पास ले कर गयी, ‘यह हमारा नाती। दादी ने एक क्षण मुझे देखा फिर बोली ‘अरे वाह ! यह हमारे पंढरी का बेटा है? ‘दादी ने मुझे गोद में बिठाया। मेरी पीठ पर हाथ फिराया फिर बोली, ‘तुम्हारा बेटा कहाँ है? क्या नाम है उसका?’
इतने में कोई वहां मेरे गोपाल मामा को लेकर आया। नानी ने उसे दादी के सामने खड़ा कर दिया और बोली, ये रहा गोपाल।’
दादी ने गोपाल को भी पास बुलाया। उसकी पीठ को सहलाया। फिर दोनों को एक एक कर चूम लिया। फिर बोली, ‘अच्छी जोड़ी है बाल गोपाल की।
मेरी दादी के कारण बाल्या का बाल ( मुन्ना ) हो गया। सच तो यह है कि सबको मुझे बाल्या कहकर बुलाने की आदत सी हो गयी थी। नानाजी को तो लाड से बाल्या पुकारने का शौक सा हो गया था। वैसे भी इस घर में सब को अच्छे भले नाम को बिगाड़ कर घर के नाम से पुकारने की परम्परा सी ही है। गोपाल को गप्पे, शरद को शद्दे, लीला को लिले ,नलिनी को नले। फिर मेरी गिनती कहा लग सकती है? फिर भी मै बाल्या से बाल हो गया इतना ही मेरे लिए समाधान कह सकते है। मेरे दादाजी विष्णुपंत और मेरे फूफाजी वैद्य रामाचार्य विवाह में आये थे। परन्तु मेरे पंतजी और मेरे नाना विवाह की भागदौड में व्यस्त होने के कारण मेरा मेरे पिता के पास उज्जैन जाने का विषय कही निकला ही नहीं। कुछ दिनों के बाद मेरे दादाजी और मेरी दादी के अचानक उज्जैन जाने की खबर इस बाड़े में आई। नानी ने और नानाजी ने इस खबर का अर्थ यह लिया कि अब ता जिन्दगी उन्हें ही मुझे सम्हालना पड़ेगा। और इसके लिए उन्होंने अपने आप को मानसिक रूप से तैयार करना भी कर शुरु किया।

अब मेरे परनाना पंतजी और परनानी माई की तीनों पुत्रियों का विवाह हो चुका था। नानाजी के बड़े पुत्र मतलब मेरे नानामामा (उन्हें सब नाना कहकर की पुकारते) का विवाह भी हाल ही में संपन्न हो चुका था। और वे कानपूर में नोकरी करते थे। अब यहाँ इस घर में मेरी एक मौसी का विवाह भी हो चुका था और इधर की खस्ता आर्थिक स्थिति देखते हुए, मेरे नानामामा ने नानाजी को कुछ मदद हो इस द्रष्टि से मेरे सबसे छोटे गोपालमामा को अपने साथ कानपूर ले जाने का और वही उसे स्कूल में भरती कराने का तय किया। कानपूर में नवविवाहिता बहू अकेली रहेगी यह सोच कर पंतजी ने भी गोपालमामा को कानपूर भेजने की तो स्वीकृति दे दी पर इसके साथ ही मेरी सबसे छोटी मौसी अर्थात नलिनी जिसे सब नले कहकर पुकारते थे को भी कानपूर भेजने का तय किया।
अब इस घर में कुल जमा आठ सदस्य रह गए। पंतजी, माई, नानाजी, नानी, मेरा शरदमामा, मेरी एक और मौसी लीला मौसी जिसे सब लीले कहकर पुकारते वह और मै। बस यही था अब कुनबा। पंतजी अब थोड़े थक से गए थे। उनका स्वास्थ भी ठीक नहीं रहता था। उनकी सभी पुत्रियों के विवाह की जिम्मेदारी पूर्ण हो गयी थी इसलिए रुपये उधार देनें और बीमा के काम में भी उनकी अब रूचि नहीं रही थी। माई के भी यही हाल थे। उन्होंने भी गहने रख कर रुपये उधार देंने का काम बंद कर दिया था। पंतजी और माई को कोई काम न होने से घर में विवाद अब बढ़ते जा रहे थे। नानाजी अब भी अपनी पूरी तनखा बिना नागा हर एक तारीख को पंतजी के हाथ पर रख देते थे और खर्चे के लिए महीने भर उनसे रूपये मांगते रहते थे। बाजार से सौदे लाने का काम नानाजी ही करते और उनके पिता एक बार रुपये मांगने पर उन्हें रुपये नहीं देते थे और फिर झगडे होते थेI
वैसे खुद के थोड़े बहुत खर्चे के लिए नानाजी कुछ छात्रों को गणित भी पढ़ाने उनके घर भी जाया करते थे। हर एक विद्यार्थी से उनको पाच रुपये मिलते थे। तीन बजे बाद बजे घर से निकलते और सात बजे बाद ही चार बच्चो को पढ़ाकर वापस आते थे। सभी किरायेदारों से हर माह किराया वसूलने और पूरे हिसाब किताब के लिए देवकीनंदन मुनीम को रखा ही था। वों बाहर के और भी बहुत से काम करते थे। देवकीनंदन मुनीम सभी हिसाब और किराये की रकम पंतजी को ही लाकर देते थे। नानाजी इस उम्र में भी कोई काम बिना अपने पिता से पूछे नहीं करते थे। नानाजी की आर्थिक हालत बहुत ही खराब थी और इस लिए वे पूर्ण रूप से अपने पिता पर ही आश्रित थे। पंतजी और माई यह बात बहुत अच्छी तरह से जानते थे और इसीलिए नानाजी के प्रति उनके व्यवहार में रुक्षता अधिक होती थी। पंतजी और माई की भले ही उम्र हो गयी थी और वे थक भी गए हो परन्तु घर के सारे सूत्र अब भी उनके ही हाथ में थे।
स्कूल शुरू हो गए थे। नानाजी की इच्छा मुझे स्कूल में दाखिला दिलाने की थी। इसलिए उन्होंने पंतजी के सामने अपनी बात रखी। पंतजी को भी मना करने का कोई कारण ही नहीं था। परन्तु उन्होंने इतनी छोटी सी बात का भी श्रेय नानाजी को नहीं लेने दिया ‘हम देखते है’ कहकर टाल दिया। नानाजी का सारा उत्साह मानो ठंडा पड गया। पूरे एक माह नानाजी मेरे दाखिले के लिए इन्तजार करते रहे और इसके बाद अचानक एक दिन पंतजी ने देवकीनंदन मुनीम के साथ मुझे स्कूल में पहली कक्षा में भर्ती कराने के लिए भेज दिया। पंतजी के हुकुम को टालने का देवकीनंदन मुनीम को कोई कारण ही नहीं था।
मै स्कूल जाऊंगा यह सुनकर काकी बेहद खुश थी। पहले दिन उन्होंने खुद मुझे बड़े चाव से तैयार किया। मुझे राममंदिर में ले जाकर, मुझसे उनके रामजी को साष्टांग दंडवत करवाया। उसके बाद मेरी ऊँगली पकड़ कर सब बड़ों के सामने मुझे खड़ा करती रही और पंतजी समेत घर के सभी बड़ों के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेने को कहा। इतना ही नहीं उन्होंने बड़े उत्साह से सबको मुझे आशीर्वाद देने को भी कहा। काकी वैसे बहुत ही कम बोलती थी पर उस दिन मेरी तारीफ करते करते उनकी जुबान थकी नहीं।
देवकीनंदन मुनीम मझे लेने आए तो काकी ने मुझे उनके भी पैरों को छू कर आशीर्वाद लेने को कहा। देवकीनंदन मुनीम मेरी ऊँगली पकड़ कर बाड़े के बाहर आए तब तक काकी साथ थी। मै उनकी नजरों से दूर होने तक वे दरवाजे पर ही खड़ी रही। मुझे सिर्फ इतना भर पता था की मैं स्कूल जा रहा हूँ। पर सतत्तर पार काकी मेरे लिए शायद जाने कितने सपने देख रही थी।
देवकीनंदन मुनीम के साथ जनकगंज प्राथमिक विद्यालय में मेरा वो पहला दिन था। जनकगंज के उस सरकारी विद्यालय में पहिली कक्षा में कुछ बच्चे जमीनपर बैठे थे। कुछ बच्चे मस्ती कर रहे थे। पुरानी सी चप्पल पहने, टूटी फूटी सी पुरानी ऐनक नाक पर चढ़ाये, धोती कुर्ता पहने हुए, सर पर काली टोपी धारण किये और एक हाथ पर तम्बाखू लिए दूसरे हाथ से उसे मसलते हुए लक्ष्मण मास्टरजी एक पुरानी लकड़ी की कुर्सी पर निश्चिंत होकर बैठे थे। दीवार पर चारों ओर तम्बाखू की पिचकारियों से रंगीन चित्रकारी सी बनायी गयी थी। अब लक्ष्मण मास्टरजी तो बक्षी की गोठ में ही रहते थे इसलिए वें पंतजी समेत सबको पहचानते थे। देवकीनंदन मुनीम ने मुझे सीधे लक्ष्मण मास्टरजी के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया। देवकीनंदन मुनीम को देखते ही लक्ष्मण मास्टरजी उठ खड़े हुएI
‘क्या है?’ दीवार पर मुंह से तम्बाखू की पिचकारी छोड़ते हुए लक्ष्मण मास्टर जी ने पूछा।
‘इसका पहली कक्षा में दाखला कराना है।’
‘कौन है ये?’
अपने सोनूभैया का नाती है।’
‘अच्छा, मतलब विष्णुपंत का पोता?’ लक्ष्मण मास्टरजी को सब पता था।
‘हाँ।’
लक्ष्मण मास्टरजी ने रजिस्टर खोला।
‘क्या है रे नाम तेरा?’ उन्होंने जोर से पूछा।
‘विश्वनाथI’ देवकीनंदन मुनीम ने भी उतने ही जोर से जवाब दिया।
‘जन्म तारीख?’
‘पता नहींI’ देवकीनंदन मुनीम सर खुजाते हुए बोले, ‘पर देश को आजादी मिली थी या मिलने वाली थी उसके बाद ही पैदा हुआ है यह इतना भर मुझे पता है।’
‘मतलब सन सैतालिस? पर तारीख और महिना भी तो लिखना पड़ेगा?’ लक्ष्मण मास्टरजी ने पूछा।
‘अरे तारीख का क्या लेकर बैठे हो? क्या फर्क पड़ता है? तारीख आज की लिख लो।’
देवकीनंदन मुनीम को वैसे भी मेरे जन्म से या जन्म तारीख से क्या फर्क पड़ने वाला था? लक्ष्मण मास्टरजी लिखते लिखते रुक गए,’अरे, महीना रह गया ना? रजिस्टर पूरा भरना पड़ेगा मुझे। सरकारी काम है।’
‘अच्छा सरदर्द है। अब मुझे क्या मालूम तारीख ना महीना? ऐसा मालूम होता तो जन्मपत्री ले आता । मुझे पंतजी बोले इसको लक्ष्मण के पास छोड़ कर आओं।यहां तुम मेरे से जाने क्या क्या पूछ रहे हो?’ देवकीनंदन मुनीम लक्ष्मण मास्टरजी पर नाराज हो गए।
‘लिखना तो पड़ेगा।’ लक्ष्मण मास्टर जी ने अपनी मज़बूरी बतायी।
‘हाँ याद आया उस दिन दत्तजयंती थी। मतलब मार्गशीष की पूनो। लिखो दिसम्बर महीना।’ देवकीनंदन मुनीम विजयी मुद्रा में बोले।
देवकीनंदन मुनीम भले खुश हुए हो पर उन्होंने सरकारी दरबारी खाते में मेरी जिन्दगी का एक साल से ज्यादा समय कम कर दिया। वैसे भी क्या महत्व था उनकी जिन्दगी में मेरा? लोगों के लिए भी मेरा क्या महत्व था? खैर देवकीनंदन मुनीम ने अंदाज से बतायी मेरी जन्म तारीख को लक्ष्मण मास्टरजी ने रजिस्टर में लिख लिया। देवकीनंदन मुनीम ने अपने मैले कुर्ते की जेब में से एक रूपये का सिक्का निकाला और एक साल का पूरा शुल्क एक साथ ही लक्ष्मण मास्टरजी के हाथ पर रख दिया। लक्ष्मण मास्टरजी ने रजिस्टर में उसकी आमद भी लिख ली। आखिर में जानकारी हेतु अपने मन से लिखा, ‘विष्णुपंत का पोता, पता छत्री बाजार, लश्कर ग्वालियर।
इस तरह मुझे सरकारी नाम मिला, सरकारी जन्म तारीख मिली,सरकारी पता मिला, कुल मिलाकर एक सरकारी पहचान भी मिली। और आदमी को जीने के लिए जिन्दगी में क्या चाहिए? पर शायद इतना भर काफी नहीं था। मतलब सरकारी पहचान के सील सिक्के लग गए थे पर सरकारी पहचान रिश्तों की, भावनाओं की, संबंधो की पहचान नहीं होती यह मुझे अभी सीखना था। और देवकीनंदन मुनीम या लक्ष्मण मास्टरजी तो मुझे यह सिखाने वाले नहीं थे। यह तो मुझे ही आने वाले दिनों में सीखना था।
देवकीनंदन मुनीम मुझे जमीन पर बिठा कर चले गए। जमीन पर बच्चें आपस में शरारत कर रहे थे। लक्ष्मण मास्टरजी बेफिक्र मुंह में तम्बाखू भर के और एक कान पर पेन्सिल और दूसरे कान पर शेर छाप बीडी रखे, कुर्सी पर बैठे-बैठे अपनी छड़ी को ऊपर निचे कर अपने विद्यार्थियों को अनुशासन का पाठ पढ़ाने की कोशिश कर रहे थे। काकी ने जिस उत्साह और भावना से मुझे पाठशाला में आज सुबह रवाना किया था, उन सब पर लक्ष्मण मास्टरजी पानी फेर रहे थे और काकी अगर यहाँ होती तो लक्ष्मण मास्टरजी की तो खैर ही नहीं थी। उनकी सात पीढ़ियों का उद्धार मेरे भर्ती होने से पहले ही हो जाता। मेरे पास दप्तर नही था, स्लेट नही थी, लिखने के लिए बत्ती भी नहीं थी इसलिए पाठशाला के छूटते ही मुझे कुछ भी नहीं समेटना था। हां पाठशाला के छूटते ही बच्चों का शोर जरुर मेरे लिए आश्चर्यजनक था। पर बहुत जल्द मैं भी सबके साथ शामिल हो गया।
अब मै अकेला ही पाठशाला जाने लगा था। बारा बजे की मेरी पाठशाला हुआ करती। काकी मुझे तैयार करती। वैसे मुझे तैयार करने जैसा कुछ भी नहीं होता था। रोज सुबह उठने के बाद दांत साफ़ करने के लिए कंडे की राख मिटटी के सकोरे में रखी रहती। जिन्हें दांत साफ़ करने होते वें उसी मेंसे राख ले कर अपने दांत साफ़ करते। नहाने का तो किसी को भी कोई बंधन ही नहीं था। हम बच्चों के तो कई-कई दिन तक कपडे बदलने का भी कोई नहीं सोचता और नाहि कोई इसकी चिंता करता। सप्ताह में एकाद दिन जब काकी को समय मिलता वह मुझे नहलाती। इतवार को दोपहर के समय नानी और मौसी और बाड़े की औरतें बच्चों के सर से जुएं निकालने में लगी रहती। रोज की रसोई दोपहर के बाद ही हो पाती। रामजी का मंदिर और रामजी को रोज का भोग। घर की औरतों को रसोई भी नहा कर रेशमी वस्त्रों में ही पवित्रता से बनानी पड़ती। रामजी को जब तक भोग न लगे तब तक वें रसोई से बाहर कदम भी नहीं रख सकती थी।और रामजी को जब तक भोग न लगे तब तक किसी को भोजन भी नहीं मिलता था। छोटे बच्चों के लिए आंगन में रात में बनी रोटियों से भरा पीतल का डिब्बा रखा रहता। बगल में कैरी के अचार की कांच की बरनी भी रखी रहती। सुबह बच्चों को जब भूख लगती थी तो नाश्ते में एक रोटी ,बगल में लगे कर्दली का पत्ता तोड़ कर उस पर रख कर अचार की एक फांक के साथ मिलती थी। बड़ों के लिए तो दोपहर बाद भोजन ही मिलता। दूध का तो नाम ही कोई नहीं लेता। इस घर में चाय सिर्फ पंतजी ही पीते थे और सिर्फ उनके लिए ही बनती थी। हां माई या नानी कभी कभार स्वाद के लिए थोड़ी सी चाय ले लेती थी और पंतजी को कभी पता पड जाता तो बस फिर क्या ? दोनों का उनके मायके की सात पुश्तों समेत उद्धार होता था।
नानी को साथ में लेकर काकी ने भण्डारघर से एक छोटा सा पीतल का डिब्बा ढूंढ कर निकाला और वह डिब्बा उन्होंने माई से मेरे लिए मांग भी लिया। फिर उस छोटे से डिब्बे को बड़ी देर तक घिस-घिस कर चमकाती रही। फिर उन्होंने एक पुराने कपडे की थैली मेरे लिए अपने हाथों से सीकर तैयार की। रोज सुबह काकी मुझे करदली के पत्ते पर कैरी के अचार की एक फांक के साथ एक रोटी नाश्ते में देने लगी। पाठशाला में बीच की छुट्टी में खाने के लिए दो रोटी और अचार वह छोटे से पीतल के डिब्बे में रख देती। इसके बाद भोजन तो रात को ही मिलता।
काकी अपने पुराने छोटे से कमरे में जमीन पर ही सोती थी। मै उनके पास ही सोता। काकी का बिस्तर मतलब पुराने अनाज के चार पोते उन्होंने कहीं से मंगवा लिए थे और दो दो पोते जोड़कर उसका बिस्तर बना लिया था। गोबर से लिपाई जमीन पर वह बिछाती थी। ओढने के लिए उन्होंने कुछ पुराने नो गजा साड़ियों को जोड़ कर एक ओढना बना लिया था। अब बिस्तर कह लो या ओढना, जरुरत के हिसाब से इसका इस्तेमाल होता। वैसे ज्यादा सर्दी हो तो एक पुराना कंबल भी था।
शाम को दिया बाती के समय राममंदिर के बरामदे में बाड़े के सब बच्चें इक्कठे होते। सब बच्चें संस्कृत और मराठी के श्लोक, रामरक्षा, भीमरूपी, मन के श्लोक इत्यादि जोर जोर से कहते। काकी भी मुझे उसी समय बरामदे में ले जाकर बच्चों के साथ बिठाती। खुद कपास की बाती ओटती बैठी रहती। मुझे भी बड़े से झूले पर बैठने में मजा आता। वैसे काकी का जीवन यानी ना पुण्य की गिनती और ना किसी पाप का पछतावा। शायद इतना साधा और निर्मल जीवन रहा हो काकी का। काकी ‘गंगा भागीरथी’ थी। मतलब विधवाएं काशी जाकर अपने केश वपन कर आई हुई और सारी जिन्दगी रेशमी भगवे रंग की नौ गजा धोती पहनने वाली और अपना सर हमेशा ढक कर रखने वाली। मुझे उन्हें देख कर आश्चर्य होता। मुझे कोई पुरुष इस तरह रहते हुए कभी देखने में नहीं आया। मुझे क्या अपने काम से काम। पर काकी के दु:ख से तो मेरा लेना देना है ना? काकी एक ही समय भोजन करती वो भी दोपहर बाद। सब पुरुषों के खाने के बाद सब औरतों की पंगत बैठती। काकी उन सब से अलग बैठती। काकी का बोलना भी किसी से ज्यादा नहीं होता और ना ही कोई उनसे बोलता या उनके रास्ते जाता। दिया बाती होने के बाद काकी अधिकतर माला फेरती अपने कमरे में बैठी रामजी का जाप करती रहती। काकी रात में जल्द ही सो जाती। सुबह चार बजे सबके जागने के पहले उठ जाती। नित्यकर्म निपट कर सबसे पाहिले तैयार रहती।
रोज शाम को दिया बाती के समय राममंदिर के बरामदे में झूले पर बैठे सब बच्चें संस्कृत में रामरक्षा स्त्रोत और समर्थ रामदास के मन के श्लोक, और शुभंकरोती इत्यादि का पाठ जोर जोर से करते। काकी मुझे बच्चों के साथ झूले पर बैठाकर एक तरफ कपास की बाती ओटते बैठी रहती। मेरी ओर उनकी बारीक नजर रहती। संस्कृत के श्लोकों के उच्चारण में मुझे परेशानी होती। मेरा पाठांतर भी नहीं होने से मै बड़े बच्चों के साथ श्लोकों के उच्चारण में गड़बड़ा जाता। इसलिए बड़े बच्चें मुझे अपने साथ बिठाना पसंद नहीं करते पर काकी के कारण उनकों मुझे अपने साथ झूले पर बिठाना ही पड़ता। श्लोकों के उच्चारण में मेरे गड़बड़ाने से बड़े बच्चें भी कई बार गड़बड़ा जाते। फिर उनमें से कोई बड़ा शरारती लड़का मेरा हाथ पकड़ मुझे झूले पर से उतार देता। इतना ही नहीं कई बार तो मुझे बरामदे से बाहर भी किया जाता। मैं फिर अन्दर आ जाता। वैसे मैं भी किसी से कम नहीं था। जितनी बार भी मुझे कोई जबरन झूले से नीचे उतरता मैं तुरंत फिर से झूले पर जा बैठता। फिर से मेरा उच्चारण गडबडाता और फिर कोई मुझे नीचे उतारता। ऐसा कई बार होता। फिर मारा मारी होती और काकी बीचबचाव करती। बड़े बच्चें काकी से बिलकुल नहीं डरते। फिर ज्यादा ही हल्ला होता। ऐसे ही ज्यादा झगडा और चिल्लाचोट होने पर पंतजी ऊपर छज्जे पर से ही चिल्लाते। पर बच्चें उनकी भी परवाह नहीं करते, क्योंकि बच्चों को यह भलीभांति मालूम होता कि पंतजी एक बार ऊपर कमरे में गए तो नीचे नहीं आते थे। वैसे भी वे इन दिनों कुछ बीमार से ही रहते। माई रात का भोजन उनके लिए ऊपर ही ले जाती थी। पंतजी के ज्यादा जोर से डांटने के बाद नानाजी तुरंत नीचे आकर उधमी बच्चों की खबर लेते। एक दो की पिटाई भी हो जाती।यह हमेशा का ही था।
एक दिन मैंने भी नानाजी के हाथ की मार खायी। उस दिन पंतजी की तबियत कुछ ज्यादा ही खराब थी। फूफाजी रामाचार्य वैद्यजी उनकी तबियत देख कर गए थे। अब पंतजी की तबियत खराब मतलब सारे घर भर की भागादौड़ और परेशानी। उसमे पंतजी एक पल के लिए भी चैन से न खुद बैठते न किसी को बैठने देते। हमेशा की बडबड और चिडचिडाहट से पूरा घर परेशान। पंतजी को ज्यादा सहन नहीं हुआ तो वे गाली गलौज पे उतर आते।
ऐसे ही उस दिन शाम के समय राममंदिर के बारमदे में काकी बैठे कपास की बाती ओट रही थी। रामरक्षास्तोत्र कहते हुए मै हमेशा की तरह गड़बड़ा रहा था। एक दो बार मैंने बड़े बच्चों के अपनी पीठ पर धौल भी खाए और मैंने भी अपनी तरफ से उसका जवाब भी तुरंत दिया। पर मेरे उच्चारण बार बार गड़बड़ा रहे थे और मेरे कारण सब बच्चें भी अपने उच्चारण में गड़बड़ा रहे थे और उन्हें परेशानी हो रही थी। फिर क्या था दो तीन बच्चें मेरे ऊपर टूट पड़े। मै अकेला पड गया और मै जोर जोर से चिल्लाने लगा। काकी सब बच्चों को सम्हालने की कोशिश करने लगी पर बच्चें उनकी ओर बिलकुल भी ध्यान न देकर मुझे मारने में ही लगे रहे। हम बच्चों का शोर सुनकर ऊपर से पंतजी जोर से डांटने लगे। पंतजी की डांटने की आवाज सुनकर नानाजी बरामदे में आ गए। नानाजी से सब बच्चें घबराते थे और उनके आते ही सब बच्चें पल में ही बरामदे से रफू चक्कर हो गए। बरामदे में अब काकी बैठी थी और उनकी बगल में मैं खड़ा था। नानाजी ने आते ही मेरा हाथ पकड़ा और मेरे कोमल गाल पर दो चांटे जड़ दिए। काकी देखती ही रह गयी। उन्हें नानाजी से यह उम्मीद नहीं थी। उन्हें नानाजी के ऊपर बहुत गुस्सा आया। पर अपने ही दामाद को क्या बोलना इसलिए वे खामोश रही। वैसे नानाजी ने आजतक मुझे कभी भी नहीं मारा था परन्तु मुझे अकेले को ही मार पड़ी इसलिए मैं भी अपने आप को ज्यादा ही अपमानित महसूस कर रहा था।ऊपर से बाड़े के सब बच्चें अपने अपने घरों की खिडकियों से मुझे पिटता हुआ देखते रहे। यह देख कर मुझे और भी जोर से रोना आ गया और मैं जोर जोर से रोने लगा। मेरे ऐसा रोने से नानाजी को अब कुछ ज्यादा ही गुस्सा आया और उन्होंने मेरी पीठ पर धौल जमाने शुरू किये। नानाजी एक बार मारना शुरू करते तो रुकने का नाम नहीं लेते थे। यहीं उनकी ख्याति स्कूल में भी थी। परन्तु अब काकी से नहीं रहा गया। उन्होंने बहुत ही गुस्से भरी नजरों से नानाजी को देखा। अपनी सास को क्रोध से देखते हुए नानाजी ने देखा और उनका हाथ रुक गया। वे शर्मिंदा हुए और चुपचाप वहां से चले गए।
नानाजी के जाने के बाद काकी मुझे अपने साथ कमरे में लेकर आ गयी। बड़ी देर तक वे गुमसुम वैसी ही बैठी रही। ऊपर से वे शांत दिख रही थी परन्तु अन्दर कही उनके मन में लावा सा भरा था। उनका चित्त शांत नहीं था और यह उनके चेहरे से दिखाई भी दे रहा था। थोड़ी देर बाद उन्होंने अपनी जाप करने की माला हाथ में ली और रामजी का जाप करने लगी। ऐसा लग रहा था कि आज निश्चित ही मेरे कारण उनका रामजी से झगडा होने वाला है। नानाजी ने मुझे क्यों मारा इसका जवाब वे कहीं उनके रामजी से ही न पूछ बैठे? वैसे भी काकी का संवाद रामजी से ही होता रहता था। कभी मनुहार, कभी झगड़ा, कभी रूठना, कभी शिकायत, कभी आभार। बस यही काकी की दुनिया थी। इंसानों के साथ झगड़ने से बेहतर रामजी से ही झगडा जाय ऐसा वे हमेशा मुझे कहती रहती। हर बात वो रामजी से ही पूछती थी। देखे आज उनके रामजी उन्हें क्या जवाब देते है? पर ये सारी बातें मेरी तो समझ से ही परे थी। मुझे कब नींद लग गयी पता ही नही चला।
अगले दिन मुर्गे ने समय पर ही बाग़ दी और सूरज भी समय से ही आसमान से किरणें फेंकने लगा। मैं कल का झगड़ा और कल की मार भूल गया था। पर काकी शायद कुछ भी नहीं भूली। शाम को जब मैं राममंदिर के बरामदे में झूले पर बैठने के लिए जाने लगा तो काकी ने मुझे वहां नहीं जाने दिया।
‘काकी मैं जाऊं?’ शाम को मैंने काकी से पूछा।
‘नहीं।’ उन्होंने द्रढ़ता से कहा।
‘मुझे जाना है। ‘मैंने जिद की।
‘कल की मार भूल गया क्या?’ शायद रामजी से उनकी नाराजी दूर नहीं हुई थी वें बोली,’ आज से तू बरामदे में नहीं जाएगा। तू यही उपरसे छज्जे में बैठ कर नीचे दालान में बच्चें जो भी श्लोक उच्चारण करेंगे उसे तू ध्यान से सुनना और यहीं बैठकर याद करना। इससे तुम्हारा उच्चारण भी स्पष्ट होगा और श्लोक भी जल्द याद हो जायेंगे।’
अब काकी को कौन समझाता कि श्लोक कहने की अपेक्षा धमाल मस्ती करने में ज्यादा आनंद है। मेरी बरामदे में जाकर झूले पर बैठने की बहुत इच्छा थी पर मुझे तो काकी का कहना मानने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। अब मैं छज्जे में बैठ कर ही नीचे बच्चों की जोर से आती आवाज सुन कर श्लोक याद करने लगा।
इस घटना के चार महीने बाद मेरी पहली की परीक्षा ख़त्म हुई। मैं अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण हुआ था। उस दिन काकी ने सबको रेवड़ियां बाटी थी। मुझसे रामजी को साष्टांग दंडवत करवाया। घर के सब बड़ों के भी चरणस्पर्श करवाएं। उस दिन शाम को मैं छज्जे में बैठा था उसके बावजूद भी बड़ी देर तक काकी बरामदे में ही रामजी के सामने बैठी रही। मालूम नहीं रामजी से उनका क्या कहना सुनना हो रहा था पर उनके चेहरे से ऐसा लग रहा था की रामजी से उनका झगडा खत्म हो गया हो गया हो और मेरे पास होने के कारण वो रामजी का एहसान मान रही हो।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – १४ में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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