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उपन्यास : मै था मैं नहीं था भाग : १५

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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नानाजी अब कभी कभार मुझे उनके साथ बाहर भी ले जाने लगे। ख़ास कर रविवार को मैं उनके साथ सब्जी मंडी जाने की जिद भी करता। वे बड़ी ख़ुशी से मुझे ले जाते। नानाजी को सब्जी लेने के लिए किसी थैले की जरुरत नहीं पड़ती थी। इसके लिए उनके पास एक अलग ही मजेदार तरीका होता। सब्जीमंडी में खरीदी सब्जी रखने के लिए वे अपनी धोती का उपयोग करते। वे अपनी धोती की आगे की घड़ियाँ (कासोटा) खोल लेते और उस आधी खुली हुई धोती में सारी खरीदी हुई सब्जी भरकर धोती में गठान बांध लेते। फिर उसे अपने कंधे पर ले लेते। एक हाथ से वो मेरी उंगली पकड़ते। दिवाली बाद ग्यारस के दिन गन्ने का गट्ठा भी वें अपने कंधो पर ही लाद कर लाते। नानाजी को भी अब मुझसे लगाव सा हो गया था। रविवार को या छुट्टी वाले दिन वो मुझे अपने साथ कही न कही बाहर ले जाने लगे। कभी बाड़े पर के पार्क में या कभी दत्तमंदिर में या कभी उनके मित्रों के यहां। उनके दोस्त यानी नानाजी के एक सौतले मामा थे कृष्णराव और एक उनके मौसेरे भाई विट्ठल भैया। ये सब हमउम्र थे। विट्ठलभैया तो मुझे अपने कंधे पर बिठाकर उनके स्कूल ले जाते। उनके स्कूल में बेर के बहुत पेड़ लगे थे। बादाम से भी बड़े बहुत ही मीठे बेर। मैं स्कूल में खाता और घर भी ले आता। इन तीनों मित्रों की खासियत यह थी की ये तीनों ही अलग अलग स्कूल में अध्यापक थे। आपस में रिश्ते होने से और हमउम्र होने से हंसी ठिठोली बहुत होती।सप्ताह में एक दो बार जरुर तीनों मिलते और आपस में सुख दु:ख की बातें करतेI आपस में सलाह मशविरा भी करते। वैसे नानाजी हमेशा गुमसुम रहते, अपने मन की बात किसी को नहीं बताते। पर कभी कभार मित्र मण्डली में वह अपना मन खोल कर रख देते। फिर होती चर्चा और सलाह मशवरों का दौर। चर्चा में मित्रों को पता पड़ता की नानाजी मुझे लेकर बहुत चिंतित रहते। उनकी असली समस्या मुझे मेरे पिता के पास उज्जैन भेजने की थी। परन्तु कैसे यह समझ में नहीं आ रहा था। उज्जैन से कोई समाचार या मुझे बुलाने के लिए मेरे पिता की ओर से कोई भी हलचल नहीं थी। इधर मेरे दादाजी की ओर से भी कोई समाचार नहीं था। पंतजी को तो कोई समस्या ही नहीं थी और उन्होंने सब उनके ख़ास मित्र मेरे दादाजी पर छोड़ दिया था। ऐसे में नानाजी की परेशानी बढ़ गयी थी। आखिर में एक दिन सब मित्रों ने तय किया कि नानाजी को मेरे फूफाजी वैद्य रामाचार्यजी से बात करनी चाहिए। दोनों परिवारों में उनका बहुत मान था और उनकी बात कोई भी नहीं टालता था। मित्रमंडली को लगा कि इससे कुछ हल निकल सकता है। नानाजी ने मित्रमंडली की राय के मुताबिक अपने मन में मेरे फूफाजी से बात करने की ठान ली और वह दिन मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण दिन भी साबित हुआ। एक रविवार सुबह सब्जी मंडी न जाते हुए नानाजी मुझे मेरे फूफाजी वैद्य रामाचार्यजी के यहां ले गए। वैद्यराज घर की बैठक में लोढ़ पर पीठ टिकाये बैठे थे। नानाजी ने उन्हें झुक कर नमस्कार किया। मुझे भी उनके पांव छूकर आशीर्वाद लेने को कहां। मैंने भी उनके पांव छुए। वैद्यराज के मुंह से निकला, ‘सदा खुश रहोI’ मेरे पिताजी के जीजा से ये शब्द सुनकर मैं सच में खुश हो गया। मुझे अच्छा भी लगा।
‘क्या बात हैं सोनूभैय्या आज इधर?’ फूफाजी ने नानाजी से पूछा। फिर मेरी ओर देखते हुए पूछा, ‘और ये किसे साथ लाये हो?’ नानाजी ने हंसते हुए जवाब दिया, ‘ये आप के साले साहब के सुपुत्र है।’
फूफाजी को कुछ याद आया, ‘अरे व्वा ! यानी हमारे पंढरी का पुत्र। अब तो काफी बड़ा हो गया है।’ फूफाजी ने मेरा हाथ पकड कर मुझे अपने पास बिठाया। मेरी पीठ पर हाथ फेरा। कुछ क्षण मुझे देखते रहे। मेरे फूफाजी से हुई मेरी यह नयी पहचान मुझे अपनेपन का एहसास करा रही थी। फूफाजी ने बैठे बैठे ही आवाज लगाई, ‘अजी सुनती हो। बाहर आकर देखो कौन आया है? अपने पंढरी का बेटा तुमसे मिलने आया है।’
मेरी बुआ तुरन्त बाहर आई।
‘अरे व्वा ! सच में?’ बुआ के मुंह से निकला, ‘अब तो काफी बड़ा हो गया है।’ मेरी बुआ मेरे बगल में आकर खड़ी हो गयी। इस बार नानाजी ने मुझे कुछ कहां नहीं था, पर मैंने अपने मन से बुआ के चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद लिया। बुआ हंसते हुए बोली, ‘सदा खुश रहो।’ फिर नानाजी से बोली, ‘बहुत समझदार है आपका नाती।’
नानाजी बोले, ‘सो तो है।’
फिर बुआ ने मुझे गले लगाया मेरे बालों को सहलाया। फिर बोली, ‘कितने मासूम और भोले दिख रहे हो। बिलकुल पंढरी जैसे दीखते हो। पंढरी भी ऐसे ही दिखता था।’ मुझे थोडा अटपटा लगा। मैं थोडा असहज हुआ। मैंने तो इनके पंढरी को आज तक देखा ही नहीं। मुझसे और नानाजी से ज्यादा पंढरी की चर्चा हो रही है। कहां है इनका और मेरा पंढरी? मेरे पास इसका जवाब ही नहीं था। बुआ ने मेरी पीठ पर फिर से हाथ फिराया। मेरे बालों को एक बार फिर सहलाया। मुझे अच्छा लग रहा था। बुआ साक्षात् लक्ष्मी जैसे दिख रही थी। मैंने भगवान् के फोटो में लक्ष्मीजी को देख रखा था। बुआ ने वैसी ही क्या तो लाल रंग की भारी नौगजी रेशमी साडी पहनी थी। ऊपर से बहुत सारे गहने चमक रहे थे। बुआ के चेहरे पर एक अलग ही चमक थी। मैंने ऐसा वैभव पहली बार ही देखा था। जो भी कुछ हो बुआ के स्पर्श में मुझे ममता और वात्सल्य की ऊब महसूस हो रही थी। नानाजी ने अब बुआ को भी झुक कर नमस्कार किया। ‘अरे भई पंढरी के ससुर आये है। उनके लिए कुछ नाश्ते पानी का इंतजाम करो। और हां गुड पानी पहले भेजो।’ फूफाजी बुआ से बोले। ‘हां भिजवाती हूं।’ बुआ बोली और मेरा हाथ पकड कर मुझे अपने साथ अंदर लेकर आयी। मुझे बैठने के लिए एक पटा बिछाया और मेरे सामने दूसरे पटे पर खुद बैठ गयी। बुआ ने एक नौकर को बैठक में कुछ नाश्ता, गुडपानी और कैरी का पन्हा ले कर जाने को कहां। फिर मुझसे पूछा, ‘स्कूल जाते हो?’
मैंने सिर्फ गर्दन हिला कर अपनी स्वीकृति दी।
‘किस कक्षा में पढ़ते हो?’
मैंने फिर अपनी दो उंगलिया उठा दी ।
बुआ हंसने लगी, ‘अच्छा तो जनाब दूसरी कक्षा में है? पर दूसरी कक्षा के इस विद्यार्थी को बोलना नहीं सिखाया क्या किसीने?’ अब मुझे बोलना पड़ा। मैंने धीरे से जवाब दिया, ‘हा सिखाया हैं ना?’
‘शाबास ! अच्छा बताओं भला तुम्हें क्या अच्छा लगता है?’
मैं सोचने लगा कि मुझे क्या अच्छा लगता है। मुझे तो किसी मिठाई का नाम तक नहीं मालूम था। पर तब तक बुआ ने खुद ही पूछ लिया, ‘दूध शक्कर पोहे लोगे?’
मैंने सिर्फ गर्दन हिला दी। कई बार राम मंदिर में मैंने दूध शक्कर पोहे लिए थे। पर वो रामजी को चढाया भोग होता इसलिए हर बार मेरे हाथ पर आधा चम्मच ही मिलता। फिर भी वे मीठे होने से मुझे अछे लगते। ठंडे ही सही पर दूध शक्कर पोहे से मैं परिचित हो गया था। अब किसी ने मेरे सामने दूध शक्कर पोहे से भरा चांदी का कटोरा लाकर रख दिया था। कटोरा गर्म था। बुआ बोली, ‘लो I’ मैंने चांदी का चम्मच हाथ में लिया ही था कि बुआ फिर बोली, ‘ठहरो। गर्म होंगे। आज मैं ही अपने मुन्ने को आराम से खिलाती हूं।’ बुआ ने मेरे हाथ से चम्मच ले लिया और एक एक चम्मच फूंक मारकर धीरे-धीरे मुझे खिलाने लगी। मेरे लिए यह सब जितना नया था उससे बढ़ कर आश्चर्यजनक था। रोज बासी रोटी खाने वाला मैं, आज ये गरम दूध शक्कर पोहे मुझे बेहद स्वादिष्ट लग रहे थे। और उससे बढकर बुआ जो बड़े स्नेह से अपने हाथों से मुझे खिला रही थी उससे मैं आनंदित हो रहा था। तृप्त हो रहा था। संतुष्ट हो रहा था। बाद में बुआ ने ढेर सारे बेर, ढेर सारे अमरुद और उनके खेत से आई हुई ढेर सारी अलग-अलग ताज़ी सब्जी, साथ में एक डिब्बे में अनारसे और गुजियां भरकर, सब एक थैले में मेरे लिये रख कर मेरे साथ बैठक में आगयी। नानाजी मेरा इन्तजार ही कर रहे थे। नानाजी ने निकलते वक्त मुझे फिर से दोनों के चरण छूने को कहां। मैंने पहले बुआ के चरण स्पर्श किये। बुआ बोली, ‘फिर से आना। आते रहना।’ फिर मैंने फूफाजी के चरण स्पर्श किये। फूफाजी मेरी पीठ पर हाथ रख कर बोले, ‘यशवंत हो ! गुणवंत हो !!’ फिर उन्होंने मेरे हाथ पर जार्ज पंचम छाप चांदी का एक रूपया रख दिया। हम दोनों घर से बाहर निकले। सब्जी और फलों से भरे दोनों थैले नानाजी के हाथों में थे।
पहले दूध शक्कर पोहे, फिर फल और सब्जी मिठाई और चांदी का एक रुपया। मेरे लिए तो आज का दिन कुछ अलग ही रहा। नानाजी के साथ चलते-चलते मैं सोच रहा था कि फूफाजी के यहां मेरा परिचय,’ पंढरी का पुत्र कहकर था। फिर ये भावभीना आत्मीय स्वागत, वो बुआ का अपने हाथों से खिलाना, वो चांदी का रुपया पंढरी के पुत्र के लिए था या कि मेरे लिए? और मजेदार बात यह कि उनके पंढरी से मेरी तो अभी तक मुलाकात ही नहीं हुई है। उनका पंढरी और मेरा पंढरी एक ही है क्या यह प्रश्न रास्ते भर मुझे बेचैन कर रहा था। काकी के मुंह से पांडूरंग का नाम सुना था। उनकी पंढरपुर की यात्रा करने की इच्छा वे कई बार सबके सामने बोल कर दिखाती पर उनकी पंढरपुर के पंढरी के दर्शन की इच्छा आज तक पूरी नहीं हो सकी थी। वें अपनी इस वेदना को कई बार औरतों में बोल कर भी बताती। एक बार ऐसे ही सब औरते राम मंदिर के बरामदे में गेहूं बीन रही थी और मैं वहां झूला झूल रहा था। काकी को जब मैंने बोलते हुए सुना तो मालूम नहीं मुझे क्या सूझी मैं सब के सामने बोल पडा,’ काकी जब मैं बड़ा हो जाऊँगा ना तो तुम्हें पंढरपुर ले जाकर तुम्हारें भगवान पंढरी के दर्शन जरुर करवाऊंगा। यह सुन कर बरामदे में बैठी सब औरते हंसने लगी थी। उनमें से एक काकी को बोली थी,’ काकी तुम बड़ी नसीब वाली हो। तुम्हारे दामाद का नाती तुम्हें पंढरपुर की यात्रा कराने वाला है। अब तुम्हारे पंढरी से तुम जल्द ही मिलने वाली हो।’ यह सुन कर काकी हंस पड़ी थी और मुझ से बोली थी, ‘मेरे श्रवण बेटे, जब तू बड़ा होगा तब तू होगा दूसरे पंढरी के पास और मैं रहूंगी तीसरे पंढरी के पास।’ यह सुन कर सब औरते गंभीर हो गयी थी। मुझे कुछ भी समझ नहीं आया था। मैंने काकी से पूछा था, ‘काकी कितने पंढरी होते है? हर एक का पंढरी अलग होता है क्या? इस पर सब औरतों को फिर से हंसी आगयी थी। काकी बोली थी, ‘हां मेरे बच्चे सब का पंढरी अलग अलग ही होता है।’
यही बात नानाजी के साथ चलते चलते मैं रास्ते भर सोच रहा था। अगर सबका पंढरी अलग अलग होता है तो फिर मैं अपने पंढरी को कब देख पाऊंगा? उससे कब मिलूंगा? मिलूंगा भी या कभी नहीं मिल पाऊंगा? पर सच में मेरे नसीब में ईश्वर ने वह क्षण आज ही लिख कर रखा था। आज ही मेरी मुलाकात मेरे फूफाजी से और बुआ से हुई, आज ही स्वादिष्ट दूध शक्कर पोहे खाने को मिले, आज ही चांदी का रूपया भी मिला ऊपर से अनारसे, गुजियां, बेर, अमरुद और नानाजी को ढेर सारी सब्जी मिली। और शायद आज ही मेरे नसीब में मेरे पंढरी से मिलना लिखा था।
अनारसा गुजियां, बेर, अमरुद, मुझे कितने खाना हैं, कब कब खाना हैं और कितने कब कब किस किस को बांटना हैI मैं यही सोचते हुए नानाजी के पीछे पीछे चल रहा था। जीवाजीगंज का पूल पार करने के बाद उस्ताद हाफिजअली खां साहेब के मकान के सामने अचानक नानाजी रुक गए। मैं भी ठहर गया। मैंने देखा नानाजी के सामने एक आदमी खड़ा था। नानाजी को देखते ही वह भी रुक गया था। उस आदमी ने सडक पर ही नानाजी को झुक कर नमस्कार किया। नानाजी कुछ पल के लिए उसे आश्चर्य के साथ देखते ही रहे। फिर उनके मुंह से निकला, ‘अरे दामादजी आप ?कब आये उज्जैन से?’
‘कल शाम को। और ये कौन है?’ उस आदमी ने मेरी ओर देख कर पूछा।
‘अरे क्या दामादजी? ये आपका ही बेटा है।’ नानाजी हंसते हुए बोले।
वह आदमी थोडा लज्जित सा हुआ। बोला, ‘ओह ! मुझे लगा गोपाल है।’
‘कोई बात नहीं। रहने दीजिये। गोपाल तो कानपूर में है। और कैसे चल रहा है उज्जैन में, घर में सब का स्वास्थ कैसा है?’ नानाजी ने पूछा। मैं नानाजी के पीछे खडा था। मैंने देखा एक सांवला सा आदमी, झक्क सफ़ेद पेंट और झक्क चमकदार सफेद बुशर्ट पहने, काले रंग का सुन्दर गॉगल चढ़ाये, काले चमकदार चमड़े के जूते पहने, नानाजी के सामने खड़ा था और नानाजी उसे अपना दामाद कह रहे थे। उज्जैन की भी चर्चा हुई। इतना ही नहीं नानाजी मुझे उसका बेटा बता रहे थे। तो यही आदमी हैं मेरा पिता? और काकी जिसे मेरा पंढरी कह रही थी वह भी यही आदमी है। अब ये आदमी सच में मेरा पिता है। मुझे बहुत अच्छा लगा। मैं आनंदित भी हुआ। जरा ठहरिये। अब वह आदमी मेरा पिता है। उसको अरेतुरे और इकहरे नाम से संबोधित करना अच्छा नहीं। मैं अपने पिता को पहली बार देख कर थोडा लजाकर संकोचवश नानाजी के और पीछे होकर मेरे पिता को कनखियों से देखने लगा। ये पता पड़ने के बाद भी कि मैं उनका पुत्र हूं उनका मेरी ओर कतई ध्यान नहीं था। वें थोड़ी देर नानाजी के साथ बोलते रहे और बिना मेरी ओर देखे, बिना मुझसे बोले अचानक वहां से चले गए। पिता पुत्र का संवाद नहीं हो पाया। मेरे पिता मुझसे पहली बार मिलने के बाद भी, बिना मुझसे बोले, बिना मेरी ओर देखें ऐसे कैसे जा सकते है? इसका मुझे आश्चर्य हुआ। मुझे घोर निराशा भी हुई और मैं दु:खी भी हो गया।
‘भैय्या, यहीं मेरे दादा थे क्या?’ मैंने नानाजी से पूछा।
‘हाँ।’
‘फिर वों बिना मुझसे बोले, बिना मेरी और देखे इस तरह अचानक क्यों चले गए?’
‘वें थोड़े जल्दी में थे। तुम्हारे दादाजी विष्णुपंतजी की तबियत बहुत खराब है। इसीलिए उनको उज्जैन से अचानक आना पड़ा। अभी वें तुम्हारे फूफाजी वैद्यजी को बुलाने ही उनके घर जा रहे है। उन्होंने कहां है वें तुमसे बाद में घर आकर मिलेंगे।’ नानाजी ने कहां जरुर पर उनके जवाब से मेरा समाधान नहीं हुआ। मेरे सारे उत्साह पर पानी सा फिर गया थाI

मेरे दादा मुझसे एक शब्द भी नहीं बोले। मेरी ओर उन्होंने ठीक से देखा तक नहीं इससे मैं बहुत व्यथित हो गया। आखिर एक पिता अपने पुत्र के साथ ऐसा व्यवहार कैसे कर सकता है? जब से थोड़ी समझ मुझे आयी थी तब से माँ क्या और पिता क्या काकी ही मेरा विश्व था। अब धीरे-धीरे नानाजी भी अपने से लगने लगे थे। पर ये दोनों मेरे माँ-बाप नही थे। इनके सामने मैं बच्चों की तरह कोई जिद कोई आग्रह नहीं कर सकता था और इन दोनों की ऐसी परिस्थिति भी नहीं थी। हमेशा मुझे एक संकोच के साथ ही रहना पड़ता। बाल सुलभ इच्छओं को दर किनार करना पड़ता। बड़ों का लबादा हमेशा ओढ़े रहना पड़ता। मेरे को ये सब धीरे-धीरे समझने लगा था। परन्तु पाठशाला में या खेलते हुए सब बच्चें जब अपने-अपने माँ बाप की चर्चा करते तब मुझे मेरे माँ बाप न होने का आभास तीव्रता से होता। मैं उनके लिए तरसता, व्याकुल हो उठता। मेरी माँ के बारे में तो काकी समेत सब मुझे कई बार समझा चुके थे कि वह भगवान के घर गई है और अब वो कभी वापस नहीं आएगी। मैं भी अब भगवान के घर जाने का अर्थ समझ चुका था और मैंने अपने मन को इस बात के लिए समझा लिया था कि अब मुझे बिना माँ के ही जीना है। पर मेरे पिता? उनके बारे में सब मुझे बताते की एक दिन वो आएंगे और मुझे उनके साथ ले जाएंगे। और तब से मैं मेरे पिता के आने की राह देख रहा था। मुझेविश्वास था कि एक दिन वों मुझे लेने जरुर आएंगे। इसी विश्वास के साथ मेरे दिन गुजर रहे थे पर आज मेरी सब उम्मीदों पर पानी सा फिर गया था। लेकिन नानाजी के यह बताने के बाद की मेरे दादा घर आकर मुझे अपने साथ ले जायेंगे, एक आशा की किरण मुझे फिर से दिखाई देने लगी। मैं थोडा उत्साहित भी हुआ।
घर आते ही मैं काकी के पास गया और बड़ी ख़ुशी के साथ उन्हें बताया, ‘काकी आज मैंने अपने दादा को देखा।’ ‘अरे व्वा ! सच में? भगवान ही मिल गए।’ काकी को भी बहुत ख़ुशी हुई। उन्होंने मुझे अपने पास बिठाया। मेरी पीठ पर से हाथ फिराया। फिर मेरे बालों को सहलाते हुए बोली, ‘चलो मतलब अब तुम अपने खुद के घर बहुत जल्द ही जाने वाले हो। रामजी जल्द ही मुझे मेरी जिम्मेदारी से मुक्त करने वाले है।’
मुझ से ज्यादा ख़ुशी काकी को ही हुई थी। फिर मैंने काकी को सबकुछ विस्तार से बताया। नानाजी के साथ कैसे मैं फूफाजी के घर गया था, कैसे मुझे बुआ ने चांदी के कटोरे में चांदी की चम्मच से अपने हाथों से दूध शक्कर पोहे खिलाए। उनके घर से निकलते वक्त कैसे बुआ ने थैला भर कर बेर, अमरुद, सब्जी और विशेष कर अनारसे और गुजियां आदि दी। अब बेर, अमरुद और सब्जी आदि तो नानाजी सीधे रसोईघर में ही ले गए थे। पर मेरी जेब में जार्ज पंचम का चांदी का सिक्का था। वह निकाल कर मैंने काकी के हाथ पर रख दिया, ‘फूफाजी ने मुझे दिया है।’
‘अच्छा हैI’ काकी ने सिक्के को दोनों ओर से देखा फिर बोली, ‘तुम्हारे पिता के घर से किसी ने पहली बार ही तुम्हें कुछ दिया है। यह चांदी का सिक्का उस स्नेह की भावनाओं से तरबतर होता मुझे दिखई दे रहा है। इस सिक्के को खर्च नहीं करना। सम्हाल कर रखना।’ ‘काकी, तुम्ही सम्हाल कर रखो। जब जरुरत होगी मांग लूँगा। ‘फिर मैंने काकी को अपने मन की शंका बोल कर बतायी,’ काकी, मेरे दादा सचमुच मुझे ले जायेंगे ना?’
‘तुमको ले ही जाना चाहिए उन्हें। उनका फर्ज भी है। अरे मेरी मुक्ति कैसे होगी? रामजी तुम्हारे पिता को एक दिन जरुर सदबुद्धी देंगे जिससे वो तुम्हे आकर ले जायेंगे।’ काकी बोलीI
काकी के कहने पर मैंने भरोसा रख लिया और सुबह दादा के मुझसे न बोलने से जो चित्त अशांत हुआ था वो थोडा शांत हुआ। शाम को राममंदिर के बरामदे में मैंने सब बच्चों को बड़े उत्साह और प्रसन्नतापूर्वक बताया,’ आज मुझे मेरे दादा मिले थे और जल्द ही वो मुझे आकर ले जाएंगे। मैं उनके साथ उज्जैन जाने वाला हूं।’ उस शाम मैंने राममंदिर के बरामदे में सब बच्चों को बेर, अमरुद, गुजिया और अनारसे की दावत दी।
बेर, अमरुद, गुजिया और अनारसे खाने के बाद हम सब बच्चें झूले पर बैठे रामरक्षास्तोत्र जोर जोर से कह रहे, उसी समय मेरे दादाजी विष्णुपंत के निधन की खबर आई। घर में एक ही कोहराम मच गया।मेरे दादाजी मेरे नानाजी के समधी थे परन्तु वे पंतजी के घनिष्ठ मित्र भी थे। घर के सब बड़े तुरंत छत्रीबाजार जाने के लिए तैयार हुए। पंतजी को घुटनों की तकलीफ थी और उनकों चलने फिरने से ज्यादा दिक्कत होती इसलिए किसी को तांगा लेने के लिए भेजा गया। काकी को उनके कमरे में जैसे ही मेरे दादाजी के निधन की खबर मिली वें तुरंत बरामदे में आयी परन्तु इसके पहले ही नानाजी सब को लेकर छत्रीबाजार निकल चुके थे। मेरे दादाजी को कब ले कर जाएंगे यह काकी को पता करना था। परन्तु उनको यह बताने वाला घर में कोई नहीं था। काकी मेरे पास आयी और मेरा हाथ पकड कर अपने साथ कमरे में ले कर आयी और बोली, ‘तुम्हें कुछ पता चला क्या? दामादजी ने कुछ बताया क्या?’
‘क्या पता चला? और नानाजी तो सब को लेकर छत्रीबाजार गए है।’
‘अरे, विष्णुपंत नहीं रहे।’
‘कौन विष्णुपंत? और नहीं रहे मतलब?’ हड़बड़ी में मेरे मुंह से निकल गया।
‘अरे ऐसा क्या कह रहे हो? विष्णुपंत यानी तुम्हारे दादाजी। तुम्हारे दादा के दादा।’ काकी व्यथित स्वर में बोली। ‘विष्णुपंत को कभी देखा हो मुझे याद नहीं आया। फिर उनसे कभी संपर्क भी नहीं रहा। सुख दु:ख समझने की उम्र भी नहीं थी।फिर काकी ही बोल पड़ी,’ अरे नहीं रहे मतलब वो भगवान के घर गए। अब कभी नहीं आयेंगे।’ ‘जैसे मेरी माँ गयी है।’
‘हां। तू उनका पोता है। तुझे उनके अंतिम दर्शन करना चाहिए। इसलिए उनको कब ले जाएंगे यह पता पड़ना जरुरी है। दामादजी भी बिना मुझे कुछ बताए चले गए। मेरा ऐसा अंदाज है कि उन्हें अब सुबह ही ले जाएंगे। इसलिए तू सुबह अपने नानाजी के साथ छत्रीबाजार जाकर उनके अंतिम दर्शन कर लेना।’
पर अंतिम दर्शन का अवसर ही नही मिला। विष्णुपंत दादाजी के जाने की खबर यहां थोड़ी देर से ही मिली थी और जब नानाजी सब को लेकर छत्रीबाजार पहुचे थे तो वहां उनकी अंतिम यात्रा की पूरी तैयारी हो चुकी थी। ऐसे में नानी और माई वहीं ठहर गयी और पंतजी उसी तांगे से श्मशान भूमि अपने मित्र के अंतिम दर्शन और श्रधांजली देने को रवाना हुए। नानाजी को भी पंतजी के लिए उन्हीं के साथ जाना पड़ा।
छत्रीबाजार गए हुए सब लोग देर रात को वापस आये और नहाने धोने और खाना वगैरे निपटते निपटते देर हो गयी थी। मैं और काकी कब के सो चुके थे। हमें किसी के आने का पता ही नहीं चला था। दूसरे दिन की सुबह कुछ भी अलग नहीं थी। काकी मुझे सुबह विष्णुपंत के अंतिम दर्शनों के लिए भेजने वाली थी पर सुबह उठते ही उन्हें सब बातें पता पड गयी। मैं मेरे दादाजी के अंतिम दर्शन नहीं कर सका इसका उन्हें बहुत दु:ख पंहुचा। पर मेरा, काकी का और उनके रामजी का भी शायद परिस्थिति पर कोई बस नहीं था।सब के सब लाचार। अब रामजी का बोले तो उनके हाथ में भी क्या था? जन्म से पहले और मृत्यु के बाद रामजी के हाथों में भी क्या रहता है?
मुझे और काकी को मेरे पिता ने एक बार फिर निराश किया। काकी को उम्मीद थी कि कम से कम तेरहीं के दिन मैं अपने दादाजी के पिंड को नमस्कार कर पाऊंगा। परन्तु तेरहीं के दिन इस घर से कोई छत्रीबाजार गया ही नहीं। सिर्फ नानाजी स्कूल से सीधे छत्रीबाजार तेरहीं के लिए पहुचे थे। मेरे पिताजी तो मुझे एक भी दिन मिलने नहीं आए। वें तीसरा कर के सीधे उज्जैन निकल गए थे और वापस दो दिन के लिये आए थे और तेरहीं और गंगापूजन होते ही तुरंत उज्जैन रवाना हो गए। शाम को जब काकी ने नानाजी से पूछा तब उन्हें सब पता पड़ा कि मेरे पिताजी को छुट्टी नहीं मिलने से वें मुझसे मिले बिना शीघ्र ही निकल गए। नानाजी ने यह भी बताया की मेरी परीक्षाएं ख़त्म होने के बाद गर्मियों की छुट्टियों में वे आकर मुझे उज्जैन ले जाएंगेI
मेरे पिता के साथ उज्जैन जाने के जितने भी सपने मैंने संजो रखे थे वें सब ध्वस्त हो गए। अब परीक्षाएं ख़त्म होने का इंतज़ार करने के सिवा कोई चारा नहीं था। मैं तो निराश हो ही गया था पर काकी का भी मन बहुत ज्यादा खिन्न हो गया। वें उदास सी रहने लगी। उनसे अब मेरी देखभाल नहीं हो पा रही थी। काकी और नानाजी मुझे मेरे पिता के पास जल्द से जल्द भेज कर अपनी जिमेदारी के बोझ से मुक्त होना चाहते थे। पर उनकी इच्छा और प्रयत्नों को यश नहीं मिलने से वे निराश थे। उदास काकी का अपने कमरे में माला लेकर रामजी का जाप शुरू हुआ। आज काकी निश्चित ही अपने रामजी से झगड कर ही रहेंगी। शायद वे रामजी से पूछे अभी और कितने दिन उनको इस तरह रामजी के नाम की माला फेरनी पड़ेगी?

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – १६ में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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