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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २५

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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यह सब बातचीत सुन कर मैं तो बहुत ज्यादा बेचैन हो गया। मुझे तो यहां रहना ही नहीं था और दादा मुझे यहां बुरहानपुर में सुशीलाबाई के चुंगल में रखने का निर्णय लेकर अलग हो चुके थे। क्या करना चाहिये यह समझ में ही नहीं आ रहा था। यहाँ से निकल कर ग्वालियर में नानाजी के पास कैसे पहुंचा जाय इसका कोई मार्ग दिखाई नहीं दे रहा था। माँजी और अण्णा दोनों रसोई में भोजन की तयारी कर रहे थे और दादा और सुशीलाबाई दोनों कमरें में थोड़ी देर बातचीत करते रहे। सबका भोजन निपटने के बाद दादा उज्जैन जाने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने मुझे और सुरेश को अपने पास बुलाया और बोले, ‘बाळ-सुरेश, मैं अब उज्जैन के लिए निकल रहां हूं। तुम दोनों यहां ठीक से रहना। ठीक से अपनी पढ़ाई करना। माँजी को और ताई को परेशान नहीं करना। वें जैसा कहें वैसा करना। दोनों का कहा मानना। रहोगे ना ठीक से?‘ दादा ने पूछा। सुरेश ने अपनी गरदन हिला दी। मैंने दादा की किसी बात का जवाब ही नहीं दिया।
‘बाळ, मैं क्या कह रहा हूं, समझ में आया क्या?‘ दादा ने मुझसे फिर पूछा। मुझे दादा पर बहुत गुस्सा आ रहा था। बिना कोई जवाब दिए मैं कमरे से बाहर छत पर आकर मुंढेरी पर बैठ गया। मेरे लिए दादा का और दादा के लिए मेरा एक तरह से नया ही तो परिचय था। हम दोनों एक दूसरे को ठीक तरह से जानते ही कहां थे?
‘मिजाज देखों बित्तेभर के नवाबजादे का?’ माँजी बोली। अब तक सब मेरे पास आकर खड़े हो गए थे। माँजी की बात पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। दादा ने मेरी पीठ पर से हाथ फेरा और बोले, ‘बाळ, मुझे देरी हो रही है। मेरी बस निकल जाएगी। कल बैंक में जाना ही पडेगा इसलिए मैं रुक नही सकता। तुम ठीक से रहोगे ना यहां? माँजी को और ताई को परेशान तो नहीं करोगे? थोड़े दिनों में ही मैं फिर से आ जाऊँगा।‘
मैंने फिर भी कोई जवाब नहीं दिया। अब अण्णा बोले, ‘बाळ, तुम समझदार हो ना? तुम्हारे दादा को देर हो रही है। वें क्या पूछ रहे है उसका जवाब दो।‘ मैंने अण्णा की बात का भी कोई जवाब नहीं दिया। मुझे जोर से रोना आया और मैंने दादा को कस कर पकड़ लिया। हिचकियां लेते हुए बोला, ‘मुझे यहां नहीं रहना। मुझे काकी के पास और नानाजी के पास ग्वालियर जाना हैI’
दादा ने मेरे बालों को सहलाया। अपनी जेब से रुमाल निकाल कर मेरी आँखें पोछी। मुझे अपने सीने से लगाया। मैंने देखा दादा की आंखे भी कुछ भीगी सी थी। अण्णा के ध्यान में यह बात तुरंत आ गयी। उन्होंने दादा के कंधें पर हाथ रखा। अण्णा का वह स्पर्श शायद बहुत कुछ कह गया। ख़ामोशी के स्वर में संवेदनाओं के ही बोल थे।
मै तो छोटा था और दादा की वेदनाएं मेरी समझ से परे थी पर दादा को मेरे कारण बहुत वेदना हो रही थी। वें अण्णा से बोले, ‘अण्णा यहीं मैं हार जाता हूं। अब इस बच्चें को मैं क्या जवाब दूं? एक दिन का था तो माँ छोड़ कर चली गयी सात-आठ साल तक बाप का मुंह नहीं देखा।अपनी ननिहाल में बाप के जीवित होते हुए भी अनाथ जैसा रहा। हम इतने समय सिर्फ अपना ही रोना रो रहे थे, अपना ही दु:ख एक दूसरे को सुना रहे थे। मेरे निष्कलंक, निष्पाप और मासूम बच्चों को ईश्वर किस के गुनाहों की सजा दे रहा है? अण्णा, सच में मैं किसी को कुछ भी सुख नहीं दे पाऊंगा क्या? सुशीला को कुछ दे नहीं पाया। इन बच्चों को भी कोई सुख नहीं दे पाया। बाळ के समय शालिनी की जचकी उज्जैन में होती तो शायद शालिनी के प्राण बच सकते थे। शालिनी की इच्छा भी उज्जैन में ही जचकी की थी। पर परिवार में मेरे पिताजी ने किसी की एक भी नहीं सुनी। सावन के माह में थोड़े दिनों के लिए मायके गयी थी। उसे वापस उज्जैन भेजा ही नहीं मायकेवालों ने। क्या तो पिताजी ने पंतजी को बोला कि बहू को जचकी के बाद ही उज्जैन भेजें। उस समय भी मैं अपने पिता का विरोध नहीं कर सका और इस तरह मै शालिनी के भी प्राण नहीं बचा पाया। इतनी असफलता और बदनसीबी मेरे ही हिस्से में क्यों? और अब सुशीला और ये बच्चें! हम सब की हमेशा हो रही दुर्दशा। कैसे सम्हालूं सब हालात को? कुछ भी समझ में नही आता।‘ दादा की एक एक वेदना एक एक दु:ख अण्णा के सामने शब्दों में व्यक्त हो रहे थेI
अण्णा ने दादा के कंधे पर फिर से हाथ रखा और दादा का हाथ अपने हाथ में लिया और बोले,‘ पंढरीनाथजी मैं आपकी हालत समझ रहा हूं।आपकी डगर बड़ी कठिन है परन्तु परिस्थिति के आगे हार मानने से कुछ भी हासिल नहीं होगा। चिंता मत करियें, अब यहां से जो भी होगा वह अच्छा ही होगा। और हां आज मैं भी आपको एक वचन देता हूं कि आज से बाळ-सुरेश मेरी बहन के बेटे है यही मैं समझूंगा। मैं हमेशा आपके साथ हूं। चिंता करने की जरुरत नहीं।‘
दादा को इन सांत्वनाओं के बोल से निश्चित ही धैर्य मिला होगा? दादा को इस की जरुरत भी थी। ‘बाळ, मैं अब ज्यादा देर नहीं ठहर सकता। जल्द ही आकर तुम्हें ग्वालियर ले जाऊँगा।’ दादा ने सिर्फ मेरा मन बहलाने के लिए मुझे झूठी तस्सली दी यह मैं समझ रहा था। परन्तु दादा जैसा कोई भी विकल्प न होने वाला मैं भी दादा के जैसा बदनसीब ही तो था। आखिर मैं कर भी क्या सकता था? खुद ही रोना और खुद ही खुद को समझाना और जी भर कर रो लेने के बाद खुद ही चुप हो जाना और खुद के ही आंसू खुद अपने ही हाथों से पोंछना। वैसे अब इन सब से मैं ऊब गया था। दादा द्वारा झूठी तस्सली देने पर मैंने अपनी ओर से कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी। मेरा रोना कब का थम गया था।
दादा ने माँजी के हाथ में एक खजूर छाप सौ रुपये का नोट रखा और माँजी से बोले, ‘माँजी यह रख लीजिए। बच्चों के लिए भी खर्च होना ही है और आप चिंता न करे मैं हर महीने आपको नियम से रुपये भेजता रहूंगा।’ फिर दादा ने मुझे और सुरेश को एक एक रूपया दिया। हम दोनों ने दादा के चरणस्पर्श किये। दादा निकलने ही वाले थे कि सुशीलाबाई हड़बड़ी में आगे आई उन्हें कुछ याद आया था। वे दादा से बोली, अगले माह दशहरे के बाद दिवाली की छुट्टियों में हम सब पथरिया जाने की सोच रहे है। इस वर्ष दिपावली पथरिया में ही मनाएंगे। आप थोड़ी छुट्टी लेकर आ सको तो हम सब त्यौहार साथ ही मनाएंगे। छुट्टी लेकर आने की तुरंत ही पत्र लिखकर खबर करना। ‘दादा ने सिर्फ अपनी गर्दन हिलाई और नीचे उतर गए। अण्णा उनको सडक तक छोड़ने गए। दुसरे दिन अण्णा भी बम्बई वापस चले गए। जाते वक्त वें भी मुझे और सुरेश को एक एक रूपया दे कर गए।
अब यह पथरिया मतलब मेरे लिए कौनसा नया संकट लेकर आने वाला है इस चिंता में मेरे दिन रात का चैन खो गया। देर रात तक मुझे नींद नहीं आती। खानाबदोश का यह जीवन और भटकन मुझे बहुत पीड़ा देने वाली साबित हो रहा थी। ईश्वर को मुझे जितने भी कष्ट देने हो भले मुझे दे दे पर मुझे मेरे नानाजी के और काकी के पास ग्वालियर भिजवाने की व्यवस्था करवा दे। इसके लिए मैं चाहे जितनी भी दिक्कतें हो ख़ुशी ख़ुशी सहन करने के लिए मैं तैयार हूं।
दिन गुजर रहे थे। हमारा स्कूल भी नियमित चल रहा था। माँजी की जरूर पथरिया जाने की तैयारी शुरू हो गयी थी। दादा और अण्णा आकर गए थे और सब ने नानाजी की चिट्ठी को ज्यादा महत्व ही नहीं दिया था। पर मैंने नानाजी को पोस्टकार्ड भेजा था इसलिए माँजी और सुशीलाबाई जरूर मुझसे नाराज रहती थी। माँजी ने तो मेरे लिए उनके मन में एक तरह का पूर्वाग्रह सा रख लिया था। मेरी गिनती वे संसार के सबसे ज्यादा बिगड़ैल और शरारती न सुधर सकने वाले बच्चों में करने लगी थी। मेरे साथ उनका व्यवहार तो बदल ही गया था पर अब वो औरों के साथ भी मेरे बारे में चर्चा करती और मुझे नीचा दिखाने की कोशिश करने लगी। वें सबको बताती कि ननिहाल में मेरी ओर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया गया और नाही मुझे कुछ सिखाया गया। कोई संस्कार, कोई अनुशासन, कोई तमीज और बड़ों के साथ व्यवहार तक मुझे नहीं सिखाया गया। इन सब के लिए हरदम मेरे नानाजी का उद्धार होने लगा। माँजी की नजर में मेरे द्वारा नानाजी को पोस्टकार्ड भेजना इस दुनियां का कोई सबसे बड़ा अपराध सा था। और नानाजी ने पोस्टकार्ड के जवाब के रूप में सुशीलाबाई को पत्र लिखकर जैसे उससे बड़ा कोई अपराध कर दिया हो। मेरे से बोलते समय या मेरे सामने औरों से बोलते समय मुझे हमेशा तानों का सामना करना पड़ता। सुरेश से दोनों माँ बेटी बहुत प्रेम से रहती, पर मेरे साथ उनका बर्ताव हमेशा कठोर रहता। माँ-बेटी के विचारों में मेरे जैसे शरारती बच्चों को सही रास्ते पर लाने का एक मात्र उपाय, कठोर बर्ताव, कठोर अनुशासन के साथ बच्चों को हमेशा घर के काम के बोझ तले दबाए रखना ही था। माँजी हमेशा मुझसे कोई न कोई काम करवाती रहती जबकि सुरेश बड़ा होने से छूट जाता। उसकी पढ़ाई ज्यादा और कक्षा भी मुझसे बड़ी इस कारण माँजी और सुशीलाबाई ने उसे छूट देकर रखी थी। वैसे भी सुरेश स्वभावत: काम करने का इच्छुक नहीं होता था।
मेरे घर के काम में बेतहाशा बढ़ोतरी हो गयी थी। झाड़ू-पोछा, बर्तनवाली द्वारा साफ़ किये बर्तन नीचे से लाकर उन्हें फिर से धोकर जगह पर जमाना, माँजी द्वारा धोये गए कपडे सुखाने डालना, सूखे हुए कपड़ों को ठीक से घडी कर जगह पर जमा कर रखना, नीचे से पानी भरना, माँजी के साथ बाजार जाना, सामान और सब्जी की थैली उठाकर चलना, माँजी को रसोई में मदत करना, रात को सबके सोने के लिए बिस्तरे बिछाना और सुबह उन्हें ठीक से जगह पर रखना। इत्यादि इत्यादि। इसके अलावा पथरिया जाने की तैयारी में भी माँजी मेरी मदत लेने लगी। इन सब काम के बोझ से मेरा दम घुटने लगा। मन में असंतोष बढ़ने लगा। विद्रोह करने की इच्छा तीव्र होने लगी। हर बार पलट कर जवाब देने की और बहस करने की आदत सी लग गयी। काम के समय माँजी से बहस होने लगी इस कारण माँजी का सुशीलाबाई से मेरी शिकायत करना भी बढ़ गया। सुशीलाबाई भी मेरी शिकायतें सुन सुन कर तंग आ गयी। अब मुझे दंड देना भी बढ़ गया। इनमे रात का खाना न देकर भूखा सुलाने की शिक्षा ज्यादा होने लगी। माँजी ने भी उस एक रात के बाद मुझे नींद से जगा कर सुशीलाबाई से छुप कर खाना खिलाने की कभी पहल नहीं की। उलटे सुबह उठते ही हर रोज उनका एक ही पहाड़ा होता, ‘खाना चाहिए तो बताएं हुए काम करना होंगे।’ और भूख का तो ऐसा है कि अच्छों अच्छों को झुका देती है। मैं तो खैर तीसरी कक्षा में पढ़ने वाला एक आश्रित ही था।फिर क्या था एक बार नहीं मुझे तो हर बार झुकना पड़ता था।
माँ बेटी के कारण मेरा जीना मुश्किल हो गया था। मुझे हमेशा काकी की और नानाजी की याद आती और मुझे बेचैन कर जाती। काकी हमेशा ही कहती थी, ‘बच्चों को हमेशा बड़ों का कहना मानना चाहिए। बड़ों के बताएं काम करना चाहिए। अच्छें बच्चोँ को बड़ों के बताएं किसी काम के लिए मना नहीं करना चाहिए।’ परन्तु विपरीत परिस्थितियों में क्या करना चाहिए यह काकी ने मुझे नहीं बताया था।
ग्वालियर में जब किरायेदार भाभी ने मेरी उम्र का ख़याल न कर के मुझे गेहूं पिसवाने चक्की पर भेजा था और वापसी में गरम आटा कपडे की थैली में लाना मुझे कठिन लग रहा था और ठोकर खाकर मैं गिरने ही वाला तब मेरी मदद करने नानाजी के दो हाथ आगे बढे थे। मकान मालिक हो कर भी उस दिन नानाजी ने किरायेदार की आटे की थैली घर पहुंचाई थी और किरायेदार भाभी को अच्छी नसीहत भी दी थी। यह सब सिर्फ मेरे ही लिए तो किया था नानाजी ने। परन्तु यहां बुरहानपुर में इस वक्त नानाजी के वे दो हाथ मेरी मदत के लिए उपलब्ध नहीं थे और नाही काकी का कवच मुझे मिलने वाला था। मेरे लिए तो सांत्वना और प्रोत्साहन के दो शब्द भी नहीं थे।
इन परिस्थितियों में मुझे सुरेश से ईर्ष्या होने लगी। दादा का लाडला था इसलिए सुशीलाबाई का भी लाडला था सुरेश। किसी भी काम के लिए उसका नकार घंटा ही होता था। वैसे वो किसी के भी लेने देने में नहीं होता। हमेशा अलिप्त और अलग सा रहता। हमेशा अपने ही बारे में सोचता। पर ये दोनों माँ बेटी मुझे अलग सा और तटस्थ रहने ही नहीं देती। पहले वे मेरे लिए मुसीबत पैदा करती और बाद में मैं खुद अपने ऊपर नयी नयी मुसीबतें ओढ़ लेता। इस कारण अब मैं जबर भी होता जा रहा था। मुश्किले सहन करने की क्षमता बढ़ती जा रही थी, पर हर हमेशा की कठिनाइयों के कारण मेरा स्वभाव चिड़चिड़ा होता जा रहा था और इस कारण मेरी डगर भी कठिन होती जा रही थी। मैं अपनी पढाई स्कूल में ही निपटा लेता था इसलिए मुझे घर में पढ़ाई करने की कभी जरुरत महसूस नहीं होती। परन्तु सुरेश हमेशा घर पर ही पढ़ाई करता दिखाई देता और इसलिए उसे हर काम को बड़ी आसानी से मना करने का बहाना भी मिल जाता। सभी सुरेश को अक्सर पढ़ाई करते देख उसकी बहुत तारीफ़ करते। माँ-बेटी तो मुझे नीचा दिखाने के लिए सुरेश की कुछ ज्यादा ही तारीफ़ करती। मुझे बहुत बुरा लगता। अपमानित भी लगता, पर मैं कर ही क्या सकता था? मेरे पास कोई उपाय ही नहीं था पर इस कारण मेरी जिंदगी का पहला प्रतिस्पर्धी होने का मान सुरेश को मिला।
दशहरे के पहले ही माँजी की पथरिया जाने की तैयारी पूरी हो गयी थी और दशहरे के एक दिन पहले हम सब पथरिया पहुंच गए। पथरिया गांव में वैसे बस्ती ज्यादा नहीं थी पर रेलवे स्टेशन थोड़ा दूर था। हम सब तांगा करके घर पहुंचे। पूरे गांव में माँजी और सुशीलाबाई के आने की खबर फ़ैल चुकी थी। मकान में लम्बा सा एक बरामदा था जिस पर कवेलू चढ़े थे। उसी से सटा एक छोटा सा कमरा था जिसे रसोईघर बनाया गया था। बरामदे के सामने एक बड़ा सा आयताकार आंगन था। एक तरफ बरामदे से ही सटा एक कमरा और था और इस कमरें के ऊपर एक और कमरा था। नीचे के कमरे में दरवाजा नहीं था और उसका इस्तेमाल दो गाय बांधने में होता। गाय के साथ उनके बछडे भी थे ही। इसके ऊपर का कमरा रहने के लिए था। इसके सामने दूसरे सिरे पर जहां आंगन ख़त्म होता था वहां पर एक कमरा और था जिसका इस्तेमाल शौचालय के लिए होता था। विशेष यह कि ऊँचे से बने शौचालय में मैले के लिए तसला रखने का इस्तेमाल होता और उसे ले जाने और सफाई के लिए रोज भंगन घर आती। उसके जाने के बाद पूरा घर धोया जाता। संडास के बगल के कमरे का इस्तेमाल नहाने के लिए होता। रसोई घर संडास और बाथरूम के ठीक पीछे बहुत बड़ा खुला आहाता सा था जिसे सब बारा कहते थे। बारा क्या खेत जैसा ही था। इसमें एक बहुत बड़ा कुआं था। बारे में अमरुद और बेर के बहुत सारे पेड़ लगे थे। खुली जगह में बहुत सारी सब्जी भी उगाई जाती। आंगन के बाहर बायीं ओर एक छोटा सा एक कमरा था उसके बाद सामने एक कुआं और था और इस कुंए का पानी मीठा होने से आस-पास की औरतों की भीड़ यहां पानी भरने के लिए हमेशा दिखाई देती।
यहां पथरिया गांव के इस घर में माँजी के बहन की एक लड़की भी रहती। इसे सब बेबी कहकर बुलाते। माँजी सात बहने थी। इनमें सब से बड़ी बहन के इकलौते बेटे थे अण्णा। माँजी की पांच बहने वहीं महाराष्ट्र में कोंकण मे ही ब्याही थी। माँजी के अलावा उनकी सबसे छोटी बहन ग्वालियर में ब्याही थी। इस सबसे छोटी बहन की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी और ऊपर से बेटे की चाह में सात बेटियां इस धरा पर आ गयी। अपनी छोटी बहन की थोड़ी मदत हो इस द्रष्टी से माँजी उसकी सातवीं जन्मी बच्ची को छह माह की होने के बाद से ही अपने साथ ले कर आयी थी। यही बेबी अब इस घर में रह रही है।
सब बहनों में बड़े माँजी के एक इकलौते भाई भी थे। आजीवन ब्रह्मचारी रहे माँजी के भाई का नाम दत्तात्रय था पर वें दत्तूमामा के नाम से मशहूर थे। दत्तूमामा माँजी की खेतीबाड़ी और कोर्ट-कचहरी के काम में उनकी मदत करने करीब ४० वर्ष पूर्व महाराष्ट्र के कोंकण से जो यहां पथरिया में आए तो अपनी बहन के यहां ही रुक गए और अपने जीवन की आखरी सांस तक अपनी बहन की मदद करते रहे। माँजी को तो हमेशा सुशीलाबाई के साथ, सुशीलाबाई की पढ़ाई के सिलसिले में कानपुर में ही रहना पडा था। फिर यहां पथरिया में सब काम दत्तूमामा के जिम्मे ही रहता। चाहे दत्तूमामा हो या बेबी थे तो दोनों ही माँजी के आश्रित। इसलिए दोनों माँजी का बहुत ही खयाल रखते थेI घर का सारा काम बेबी सम्हालती। बेबी कभी स्कूल नहीं जा सकी और माँजी ने भी अपनी खुद की बेटी की जिम्मेदारी और जागीरदारी की झझटों के कारण बेबी को पढ़ाने के बारे में कभी सोचा ही नहीं। दिखने में बहुत खूबसूरत, गोरी चिट्टी और ऊँची बेबी अपनी उम्र के सोलवहें साल ही गांव के ही एक बेरोजगार आवारा और अपने परिवार से बेदखल किये गए, गणपत नाम के लड़के के साथ प्यार में अंधी होकर अपना सर्वस्व गवां बैठी और गर्भवती हो गयी।
दत्तूमामा को यह पता पड़ते ही उन्होंने सारा घर सर पर उठा लिया। एक तो दत्तूमामा आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत कठोरता से पालने वाले दूसरे बजरंगबली के अनन्य भक्त। रोज बिना नागा प्रात: चार बजे उठने वाले। दंड बैठक पेलने वाले। नियम से व्रतवैकल्य पालने वाले और एक ही समय भोजन करने वाले। ऐसे बजरंगबली के पवित्र भक्त और छुआछूत को मानने वाले दत्तूमामा को बेबी का बिना विवाह किये अल्हड़ता में गर्भवती होना भला कहा सहन होने वाला था। आखिर माँजी ने भी तो बेबी की देखभाल की जिम्मेदारी दत्तूमामा को ही सौपी थी। इन सब कारणों से दत्तूमामा बेबी से इतने ज्यादा नाराज हुए कि उन्होंने तुरंत बेबी को घर से बाहर ही निकाल दिया। बेबी से बोले, ‘सुशीला की माँ आने के बाद वही तय करेगी तुम्हारा क्या करना है? यह घर तो उसका ही है। मैं इस इस घर को अपवित्र नहीं होने दे सकता। अब मेरे रहते तुम यहां नहीं रह सकती।’ माँजी भी आते ही बेबी पर बहुत नाराज हुई पर ‘लड़की पेट लेकर कहाँ जाएगी? घबराकर इस उम्र में कुछ गलत कदम उठा बैठी और कोई अनहोनी हो गयी तो और मुश्किल’ यह सोच कर माँजी ने दत्तूमामा को समझाया। माँजी के समझाने के बावजूद भी दत्तूमामा की बेबी से नाराजी कम नहीं हुई पर माँजी की खातिर उन्होंने बेबी को घर में वापस आने दिया। पर वे बेबी को माफ़ करने को तैयार नहीं हुए। गणपत का कभी भी मुंह नहीं देखेंगे ऐसा प्रण कर बैठे। गणपत की छाया पड़ने से उनका धर्म भ्रष्ट होगा इसलिए गणपत को वें आंगन तक में आने देने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने माँजी को लगभग ऐसी धमकी ही दे डाली की गणपत के घर में आने का दिन उनकी जिंदगी का आखिरी दिन होगा। कानपूर में सुशीलाबाई की नौकरी और उनकी देखभाल के लिए माँजी का यहां पथरिया में रहना संभव ही नहीं था और वैसे भी दत्तूमामा माँजी के बड़े भाई थे और यहां की सारी व्यवस्था उनके ही जिम्मे थी इसलिए माँजी ने दत्तू मामा को बेबी के लिए ज्यादा कुछ भी नहीं कहां। बेबी को घर में वापस प्रवेश दिलवाकर वे वैसे ही कानपूर लौट गयी। बेबी की घर वापसी जरुर हुई परन्तु गणपत को आसपास दिखने की भी बंदी थी। बेबी गणपत से बाहर जा कर मिलने लगी। इस तरह से बेबी का बिन ब्याहे ही आधा अधूरा संसार शुरू हुआ। दोनों के सबंध तो जगजाहिर हो ही गए थे और गणपत को तो उसके घरवाले पहले ही घर से बेदखल कर चुके थे। बेबी माँजी पर आश्रित थी और गणपत बेबी पर आश्रित हो गया।
आगे बेबी ने एक बेटे को जन्म दिया और दत्तूमामा ने इंसानियत के नाते जचकी की सारी व्यवस्था की। मासूम नन्हे बच्चे की किलकारी के कारण दत्तूमामा की बेबी से नाराजी ज्यादा दिन नहीं टिक सकी और उन्होंने बेबी को माफ़ कर दिया पर बेरोजगार और आवारा गणपत से उनकी नाराजी रत्तीभर भी कम नहीं हो सकी। उसे तो घर के आंगन में भी आने पर पाबन्दी थी। उलटे उसे ये संदेसा भी भिजवाया गया कि दत्तूमामा के जीवित रहते उन्हें अपना मुंह भी नहीं दिखाना वरना उसके गंभीर परिणाम होंगे। आगे कुछ दिनों बाद दत्तूमामा का निधन हुआ और गणपत का गृहप्रवेश हुआ। माँजी को भी पथरिया में खेतीबाड़ी सहित सारे काम सम्हालने के लिए कोई घर का आदमी चाहिए ही था। गणपत तो गणपत, यह सोच कर माँजी ने गणपत को घर में रहने दिया और इस तरह बिन ब्याह के इस जागीरदार घराने का घरजमाई बनकर गणपत पूरे गांव में गर्व से घूमने लगा।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – २६ में


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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