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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २८

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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अगले रविवार बड़ी प्रसन्नता से मैं गणपत के साथ हाट में ग्रामपंचायत का कर वसूलने गया। इस बार सब विक्रेता मुझे जानते थे और छोटा होने के कारण सब मेरे साथ हंसी मजाक भी करने लगे। संयोग रहा कि इस बार भी मेरे द्वारा ही सबसे ज्यादा कर वसूला गया था। शाम को हम सब घर वापस लौटे। पिछला अनुभव होने के कारण इस बार हिसाब किताब जल्द ही निपट गया था। गणपत ने उसके दो मित्रों को उनका मेहनताना देकर रवाना किया फिर मुझे भी एक रूपया दिया। अब मेरे पास तीन रुपये जमा हो गए थे। हम सब जब घर वापस आए थे उस वक्त माँजी, सुशीलाबाई और सुरेश गाव में ही किसी के यहां किसी कार्यक्रम में गए थे। घर में बेबी और उनका दो वर्ष का बेटा ही थे। गणपत ने बेबी को सारे रुपये सम्हाल कर रखने को दिए। गणपत का दो वर्ष का बेटा सुदर्शन जिसे सब शुंडू नाम से पुकारते थे मेरे पास आकर बैठा। मैं उसके साथ खेलने लगा।
शुंडू को मेरे साथ खेलते देख बेबी ने मुझसे कहां, ‘बाळोबा, अब यहीं रह जाओं। यहीं तुम्हें स्कूल में भर्ती कर देते है। क्या करोगे बुरहानपुर जाकर? सिर्फ बेकार की मुसीबत! रहोगे ना यहां हमारे पास?’ -मैं क्या जवाब देता? खामोश ही रहाI
बेबी फिर गणपत से बोली, ‘ऐ जी! बाळोबा को हम यहीं रख ले क्या? तुम्हें और मुझे दोनों को काम में भी कुछ सहारा ही होगा। मुझे दिन भर घर के काम से फुर्सत नहीं मिलती। शुंडू भी छोटा ही है उसे सम्हालने और उसके साथ खेलने के लिए कोई चाहिए ही ना। अब अगले चैत्र माह फिर एक और नया मेहमान भी तो घर में आने वाला है। ठीक से पढ़ाएंगे बाळोबा को। सम्हालेंगे भी ठीक से ही। वैसे भी वहां बुरहानपुर में पागलों का ही तो बाजार है इसे भी पागल बना के छोड़ेंगे।’ दोनों जोर से हंस पड़े। सुशीलाबाई को यूं पागल कहां जाना मुझे फिर से अच्छा नहीं लगा।
‘वो बेसहारा और अनाथ नहीं है। उसका बाप अभी जिवित है।’ गणपत बोला।
‘इसीलिए बच्चें दर दर की ठोकरें खा रहे है? जीजीबाई से तो हम अच्छे से ही देखभाल करेंगे। मैं पूछती हूं जीजीबाई को और बाळोबा के बाप को। दिवाली पर आने ही वाले है।’ बेबी बोली।
‘देखों अब तुम कोई नया बखेड़ा खड़ा मत करो।’ गणपत बोला, ‘फिलहाल सब अपने मन का ही हो रहा है। अभी तो ये भी तय नहीं है कि सचमुच ही जीजीबाई ब्याह करेंगी या नहीं करेंगी? पर एक बार अगर जीजीबाई का ब्याह हो गया तो सारी जायजाद हमारे हाथ से गयी ही समझो। अत: इस उम्र में जीजीबाई को ब्याह करने से रोकना होगा और ये काम तुम ही कर सकती हो। तुम्हे जीजीबाई और माँजी की मर्जी सम्हालनी होगी। उन्हें ये भरोसा दिलाना होगा कि बुढापे में उन दोनों को हम सम्हाल सकते है।’ ‘तुम इस बात की बिलकुल फ़िक्र मत करो। मैं दोनों को सम्हाल लूंगी। मेरा कहना तो यह है कि एक लड़का जीजीबाई के पास रहे और एक लड़का हमारे पास। उसमे हर्ज क्या है?’
‘तुम तो पगला गई हो। आ बैल मुझे मार जैसी बात कर रही हो तुम। उनके झंझंट में हम क्यों पड़े?’ गणपत बोला, ‘और फिर अगर एक बेटा हम रख लेते है तो समझो उनकी आधी समस्याएं ख़त्म हो गयी। उनका जीना आसान हो जाएगा और वें ब्याह का फैसला जल्द ले लेंगे। इसलिए फिलहाल ऐसी मूर्खता मत करो और फिर मेरी ऐसी सोच है कि बाळोबा के पिता इस के लिए कतई तैयार नहीं होंगे। और होना भी क्यों चाहिए?’
‘क्यों?’बेबी ने पूछाI
‘हमें एक बेटा है और फिर भी दूसरे की तैयारी है और फिर भी अभी तक हमारा ब्याह नहीं हुआ है। बिना ब्याह के हमारी गृहस्थी भैयाजी को कतई अच्छी नहीं लगती। पिछली बार उन्होंने मुझे बुरहानपुर में इस बात पर बहुत बुरा भला कहा था। भैयाजी बहुत धर्म पर चलने वाले है। जैसे दत्तुमामा हमसे उनके मरने तक नाराज रहे वैसे ही भैयाजी भी इस बात के लिए हमसे नाराज है। इसलिए उनसे हमें सम्हल कर रहना होगा। तुम फिलहाल इस झंझट से दूर रहो तो ज्यादा अच्छा।’ ‘फिर ऐसा करे क्या कि हम देर से ही सही अब ब्याह कर ले?’ बेबी ने गणपत से पूछा।
‘तुम्हें पता है ना कि, मेरे पिता के वसीयतनामा के मुताबिक़ अगर हमने ब्याह कर लिया तो उनकी जायदाद में से हमें कुछ भी नहीं मिलेगा। पिताजी ने तो पहले ही सबके सामने बोलकर रखा था कि अगर लक्ष्मीबाई की जायदाद मुझे मिली तो वे हमें कुछ भी नहीं देंगे और मेरा हिस्सा मेरे भाइयों में बाट देंगे ताकि उनकों कोई कमी ना रहे। उनका सोच था कि किसी एक जगह ही हमें जायदाद मिलनी चाहिए। इसलिए वसीयत के अनुसार अगर यहां की जायदाद मिलती है तो पिता की जायदाद का मेरा हिस्सा मेरे भाइयों में बट जाएगा। इसी तरह अगर जीजीबाई का ब्याह होता है तो यहां का सब हमारे हाथ से जा रहा है। किसी भी हालात में तुम दोनों बहनों का ब्याह हमारी सेहत के लिए ठीक नहीं है।’ गणपत हंसते हुए बोला।
‘इसीलिए तो कह रही हूं कि अगर बाळोबा हमारे साथ रहता है और फिर अगर जीजीबाई ब्याह कर भी लेती है तो हमारे पास भी एक सहारा होगा।’
‘देखते है। अभी वो समय नहीं है।’ गणपत बोला, ‘पर एक बात की हमें बहुत हैरानी होती है और ये संयोग हमें बहुत हैरान भी करता है।’ ‘कौन सी बात?’बेबी ने पूछा।
‘तुम्हारी मौसी मतलब माँजी का ब्याह नहीं हुआ और उन्होंने बिन ब्याहे जीजीबाई को जन्म दिया। उन्हें कोर्ट से जीजीबाई की देखभाल के लिए ही सारी जायदाद और सोना दिलवाया गया। हमारा भी ब्याह नहीं हुआ है और बिन ब्याहे ही हमारे भी बच्चे का जन्म हुआ। अब जीजीबाई का भी ऐसा ही कुछ होता दिख रहा है। फिर हम सच्चा प्यार करने वाले अगर ब्याह रचा लेते है तो हमारे पल्ले फूटी कौड़ी भी ना हो ऐसे कैसे हो सकता है?’ गणपत बोलाI
‘इसीको कहते है नसीब।’ बेबी बोली, ‘पर मेरी और जीजीबाई की क्या बराबरी? कहां राजाभोज और कहां गंगूतेली? जीजीबाई है गंगाधरपंत जागीरदार की लड़की और मैं हूं उनकी आश्रित। मुझे तो मौसी ने ही पाला पोसा।’ ‘पर कुछ भी को कहो तुम्हारी मौसी लक्ष्मीबाई है बड़ी कलेजे वाली साहसी औरत। आठ साल की उम्र भी कोई उम्र होती है क्या ब्याह रचाने की? वो भी अपने गाव से पन्द्रह सौ मील दूर यहां पथरिया में? ब्याह के बाद तो उन्होंने मायके का मुंह तक नहीं देखा था और बाद में उनके भाग्य में जल्द ही विधवा होना भी तो लिखा था और फिर जागीरदार गंगाधरपंत के कारण उन्होंने कितना सहा? आज अब जीजीबाई के कारण वे चैन से नहीं रह पा रही। उनकी अपनी निजी जिन्दगी कुछ भी नहीं?’ गणपत के मन में माँजी के लिए संवेदनाएं थी शायद।
‘हां तो फिर मेरी मौसी है ही हिम्मतवाली। सारे गांव में आज भी उसके ब्याह की, विधवा होने की, उसके बाद जागीरदार गंगाधरपंत से संबंधो की, बिन ब्याहे जीजीबाई को जन्म देने की, उस जमाने में जीजीबाई को कानपूर के महंगे स्कूल में पढ़ाई के लिए भेजने की, और कोर्ट कचहरी में हिमंत से लड़कर जायदाद पाने के किस्से सुनाई देते है। यूं ही सारे गाव में सब उसे झाँसी की रानी नहीं कहते।’ बेबी बोली। ‘पर विधवा होने के बाद भी तुम्हारी मौसी जागीरदार गंगाधरपंत के चक्कर में कैसे उलझ गयी इसीका मुझे आश्चर्य होता है। ‘गणपत बोला। ‘हां इस बारे में मैंने ऐसा भी सुना है कि दत्तूमामा का मौसी से हमेशा झगड़ा होता रहता था। गुडडे गुडियों से खेलने की मात्र आठ वर्ष की उम्र में मौसी का ब्याह इसी गाव में हरिरामपंत के साथ हुआ। आगे मौसी की उम्र बढ़ी पर देह सुख भोगने के पहले ही हरिरामपंत का निधन हो गया। उम्र केसोलहवे साल मौसी विधवा हो चुकी थी। दरअसल जागीरदार गंगाधरपंत और हरिरामपंत बालसखा थे। हरिरामपंत के निधन के बाद जागीरदार गंगाधरपंत का हरिरामपंत के यहां आना जाना बढ़ गया। पहले शोक प्रगट करने के लिए, फिर सात्वना देने के लिए, फिर मौसी की पूछताछ करने के लिए, फिर मौसी की चिंता है इसलिए मौसी के हितैषी बन कर, और बाद में मौसी की छोटीमोटी जरूरते पूरा करने के बहाने वे आते रहे। जवान हुई मौसी की सुन्दर काया पर गंगाधरपंत की नजरें शुरू से ही थी। अपने मित्र के निधन के बाद उनकी राह आसान हो गयी थी। जागीरदार गंगाधरपंत और मौसी की मुलाकाते बढती गयी। एक दुसरे के आकर्षण से शरीर और मन कब एक दुसरे के हो गए यह किसी को भी पता नहीं चला और जब पता चला तब हरिरामपंत के घरवालों को रसूकदार जागीरदार गगाधरपंत से बैर लेना संभव ही नहीं था इसलिए उन्होंने मौसी को ही घर से बाहर निकाल दिया।’
‘यह सब तो भयंकर ही है। इसके आगे हमारी कहानी तो कुछ भी नहीं है।’ गणपत बोला।
‘हा तो भयंकर ही है।’ बेबी बोली, ‘हमारी कहानी तो बहुत ही छोटी सी भी है और हमारी गाडी तो पटरी पर भी आगयी है पर मौसी की सारी बातें जब खुले में आगयी तब गंगाधरपंत को अपनी पत्नी के आगे शर्मिंदा होना पड़ा। कई वर्षों के विवाह के बाद भी उनकी पत्नी जागीरदारी सम्हालने के लिए उन्हें कोई कोई वारिस नहीं दे सकी थी। हमेशा बीमार रहती थी। चिडचिडी और मुंहफट भी हो गयी थी। उसने मौसी को हवेली के दरवाजे तक भी फटकने नहीं दिया। ऐसे में बेसहारा मौसी के रहने की व्यवस्था गंगाधरपंत ने गांव में ही एक मकान खरीद कर कर दी। कुछ दिनों तक तो मौसी का तो पुरे गाव ने बहिष्कार ही कर दिया था। ब्रह्मचारी दत्तूमामा उन दिनों काशी यात्रा के बाद इधर ही घूम रहे थे। अपनी बहन की ऐसी दुर्दशा देखी और उसकी सहायता करने तथा उसके हक़ की लढाई लड़ने वें यही स्थायी रूप से अपना ठिकाना बना बैठे।’
‘वो तो समझ गया पर दत्तूमामा के अलावा बम्बई में रहने वाले अण्णा ने भी माँ-बेटी की बहुत मदत की है।’ ‘सात बहनों में अण्णा अकेला लड़का है। सातों बहनों को लडकियां ही हुई इसलिए अण्णा सब का ही लाडला रहा। मजे की बात यह कि अण्णा का कोई चचेरा भाई भी नहीं है। पर अण्णा ने अपनी सारी जिम्मेदारी बखूबी निभायी। वैसे भी अण्णा स्वभाव से दयालू और सब की सहायता करने वाला। ख़ास बात यह है कि दत्तूमामा के कारण अण्णा का भी यहां आना जाना रहता और इस तरह वे माँ-बेटी की मदद भी करते। यहां का सारा काम दत्तूमामा देखते तो बाहर का और कोर्ट कचहरी का सब काम अण्णा निपटाते। मौसी की और जीजीबाई की परेशानियां देख अण्णा का मन भी पसीज जाता था। माँ-बेटी भी अण्णा को बहुत मानती है। अण्णा ने कोर्ट कचहरी में तो माँ-बेटी की मदत की ही पर जीजीबाई की कानपुर में बीमारी के दौरान बम्बई से आकर और रात दिन एक कर अण्णा ने माँ-बेटी को जो सहारा दिया है उसकी तो मिसाल ही नहीं है। जिजीबाई जो आज थोडा बहुत ठीक दिख रही है वह अण्णा के कारण ही है।
‘सच तो यह तह कि जागीरदार गंगाधरपंत की पत्नी अपने पति के अचानक सामने आए मौसी के साथ इन संबंधों के कारण बहुत ही आहत थी। गंगाधरपंत से वो ज्यादा नाराज भी हो गयी। उसने गंगाधरपंत से बोलचाल तक छोड़ दी। उसके भाई का लड़का यानि गंगाधरपंत के साले का लड़का दामोदरपंत पढ़ाई में बहुत ही होशियार था और उसे वकालत की पढ़ाई करने परदेश जाने की बहुत इच्छा थी पर पढाई में तेज होने के बावजूद, आर्थिक स्थिति ठीक न होने से वह परदेश नहीं जा पा रहा था। पत्नी की नाराजी कम हो और वो उनसे फिर से बोलना शुरू करे इस लिए गंगाधरपंत ने अपनी पत्नी को खुश करने के विचार से अपने खर्चे से अपने साले के लड़के को विलायत पढने भेजा। उसका वहां का पढ़ाई का पूरा खर्चा भी खुद उठाया। पत्नी की नाराजी थोड़ी कम हुई पर वो अपने भाई के लड़के को बेरिस्टर बना हुआ नहीं देख सकी और पहले ही चल बसी। इधर गंगाधरपंत की पत्नी के निधन के थोड़े दिनों बाद मौसी ने जीजीबाई का जन्म दिया। बिनब्याही मौसी द्वारा लड़की को जन्म देने से रिश्तेदारों में गंगाधरपंत की बहुत बदनामी हो रही थी। रिश्तेदारों की सलाह पर उन्होंने मौसी से विधिवत ब्याह करने का भी तय किया। पर भाग्य में कुछ अलग ही लिख रखा था। मौसी से ब्याह रचाने के पहले ही गंगाधरपंत खुद स्वर्गवासी हो गए। मौसी की जिन्दगी में तो सब कुछ आधा-अधूरा ही रहा।’ बेबी बोले जा रही थी और गणपत ख़ामोशी से सुने जा रहा था। गंगाधरपंत के साले का लड़का दामोदरपंत इंग्लेंड से बेरिस्टर हो कर वापस आया और सबसे पहले उसने जो काम किया वह यह कि हवेली सहित सारी जायदाद पर कब्ज़ा कर लिया। उसने खुद को गंगाधरपंत का दत्तक लिया हुआ बेटा तो जाहिर किया जबकि मौसी को उनकी पत्नी मानने से या मौसी का गंगाधरपंत से किसी तरह से सम्बन्ध मानने तक से इनकार कर दिया। एक तरह से मौसी को पूरी जायदाद से ही बेदखल कर दिया। मौसी के पास गंगाधरपंत द्वारा दिया गया मकान ही था इसके अलावा कुछ भी नहीं था। तब अण्णा ही उनको खर्चे के लिए मनीऑर्डर भेजा करते थे। आगे जीजीबाई की पढ़ाई का खर्चा और कोर्ट कचहरी का शुरवाती खर्चा भी अण्णा ने ही किया। अण्णा ही पेशी पर दमोह जाते थे। इन सब कारणों से अण्णा पूरी तरह से कर्जे में घिर गए और बाद में जब मौसी को जायदाद मिली तब तक जीबाई को भी नौकरी लग चुकी थी। थोड़ी जमीन बेच कर और थोडा सोना बेच कर इन्होने अण्णा का कर्जा चुकाया।’ ‘कुल मिला कर यह कि बिन ब्याहे रहना इस घर की प्रथा ही बन गयी है।’ गणपत हंसते हुए बोलाI

दिपावली के दो दिन पहले ही दादा आ गए। दिपावली पर हम सब बहुत खुश थे। हमने खूब मिठाई खायी और खूब फटाके भी उडाए। गणपत ने हमें खूब फटाके लाकर दिए थे तो बेबी ने अलग अलग मिठाइयां बनायी थी। वापसी में दादा ने माँजी को बताया कि बंसतपंचमी के शुभ मुहूर्त पर ग्वालियर में मेरा और सुरेश का उपनयन संस्कार करने की सलाह मेरे ताऊजी रघुभैया ने दी है। दादा ने यह भी बताया कि उन्होंने हमारा उपनयन संस्कार समारोह आयोजित करने का तय किया है। दादा ने माँजी को, बेबी को और गणपत को भी ग्वालियर आने का निमंत्रण दिया। दादा ने माँजी को यह भी बताया कि उसी वक्त ग्वालियर में वे ताऊजी और ताईजी से सुशीलाबाई के साथ उनके विवाह के बारे में बात करने वाले है इसलिए उस वक्त उन दोनों का ग्वालियर में वहां रहना जरुरी है। दिपावली हंसी ख़ुशी मनाने के बाद दादा ने हम सब को बुरहानपुर छोड़ा और वें तुरंत उज्जैन लौट गए।
लम्बी छुट्टियों के बाद स्कूल खुले और जीवनचर्या पूर्ववत हो गयी। माँजी का मेरे से काम लेना बदस्तूर जारी था और सुरेश का कुछ काम न करना भी। बेबी और गणपत के साथ बिताएं कुछ दिनों ने ही मेरे अन्दर थोडा आत्मविश्वास भर दिया था पर रोज के काम से परेशान हो मेरा नानाजी और काकी के पास जाने का इरादा और भी पक्का होता रहा। वैसे सब ठीकठाक ही चल रहा था कि एक नयी मुसीबत आन खड़ी हुई। सुशीलाबाई का तबादला बुरहानपुर से दूर सीधा सिवनी किये जाने के आदेश स्कूल में आ गए थे। उन्हें तुरंत वहां उपस्थित भी होना था। माँजी को और सुशीलाबाई को क्या करे और क्या ना करे यह समझ में ही नहीं आ रहा था। सुशीलाबाई को दूर तो क्या बुरहानपुर भी छोड़ने इच्छा नहीं थी। यहां स्कूल में सब उनकी हालत समझने लगे थे और सब उनके साथ सहानुभूति भी रखते थे। यहां सब जमा जमाया भी था। इसके अलावा अब हम दोनों का भी सवाल था ही। फिर क्या था दादा को फिर से बुरहानपुर आना पड़ा समस्या के समाधान के लिए। वें तुरंत ही अगले इतवार को ही यहां आ गए। दादा का ऐसा कहना था कि सुशीलाबाई को तुरंत इस्तीफा ही दे देना चाहिए। जबकी माँ-बेटी का यह कहना था कि जब तक सुशीलाबाई का ब्याह नहीं होता, लगी लगाई इतनी पुरानी नौकरी छोड़ना ठीक नहीं। पर इससे भी बड़ा मुद्दा हम दोनों का था। बदले हुए हालात में हमको बुरहानपुर रखा नहीं जा सकता था। समय रहते हमारी भी व्यवस्था करनी ही थी। सारी बातों पर विचार करने के बाद दादा ने तय किया कि सुशीलाबाई स्वास्थ का कारण देकर कुछ दिनों के लिए छट्टी ले ले। इस बीच तबादला रद्द हो सकता हो तो उसके लिए कुछ कोशिश की जाए और अगर सिवनी जाना ही पड़ा तो बड़े दिनों की छुट्टियों के बाद नए साल में वहां उपस्थिति दी जाय। यह भी तय हुआ कि सुशीलाबाई के लिए सिवनी में अगर सारी व्यवस्था करनी ही पड़ी तो दादा भी पंद्रह दिन की छुट्टी लेकर वहां सब व्यवस्था करने जाएंगे। मूल समस्या हम दोनों की थी। फिर क्या था जैसे थे। मतलब सुरेश उज्जैन में और मैं कुछ दिनों के लिए ग्वालियर में नानाजी के यहां। यह मेरा नहीं दादा का सोचना था। उन्होंने माँजी से पूछा भी पर माँजी ने कहां, ‘ऐसे दोनों भाइयों को अलग-अलग रखने का क्या मतलब? रहने दो दोनों को उज्जैन में?’
‘आप सही कह रही है।’ दादा बोले, ‘पर पिछला अनुभव देखते हुए ऐसा लगता है कि बाळ अभी बहुत छोटा है। इसके अलावा सुरेश का वहां उज्जैन में सब व्यवस्थित रूप से जमा जमाया है। किरायेदार खेर भाभी ने सुरेश को बचपन से सम्हाला भी है और वे सुरेश का ध्यान भी अच्छे से रखती है। दोनों की देखभाल करना उनसे नहीं हो पाएगा इसके अलावा मेरी तरक्की भी होने जा रही है। वेतन भी बढ़ेगा। भोपाल में हमारी बैंक की शाखा बहुत जल्द ही खुलने वाली है। मुझे वहां भेजा जा रहा है। मैंने हाँ भी कर दी है। इसलिए इन बदले हालात में चार छ: माह कुछ तय कर पाना संभव नहीं होगा। भोपाल जाने के बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा। तब तक हमारा ब्याह भी हो गया होगा और सुशीला को नौकरी करने की भी जरुरत नहीं होगी फिर बच्चो को भी इधर उधर भटकना नहीं पड़ेगा। मैं ग्वालियर वैसे खबर करता हूं।’ दादा ने माँजी को अच्छे से समझाया।
उस रात मेरी ख़ुशी दोगुनी हो गयी। किसी का कुछ भी हो पर अब मैं अपने नानाजी के और काकी के पास फिर से रह पाउँगा। इतना ही मेरे लिए काफी था और यही मेरा समाधान भी था।
दूसरे दिन दादा उज्जैन रवाना हो गए।
पन्द्रह दिन बाद ही सुशीलाबाई के नाम नानाजी की चिट्ठी बुरहानपुर में घर पर आयी। माँजी ने वह चिट्ठी सुरेश को पढने के लिए दी सुरेश पढने लगा।
सुशीलाबाई को,
ग्वालियर से रामचंद्र का नमस्कार।
विनम्र निवेदन ऐसे है की, कल ही हमारे दामादजी का उज्जैन से भेजा हुआ पत्र हमें मिला। पत्र का मजमून यह था कि बदली हुई किन्ही विशेष परिस्थितयों के कारण चिरंजीव बाल्याजी को अब वहां बुरहानपुर में रखना संभव नहीं होगा। उन्होंने ये भी खबर दी है कि आपका तबादला सिवनी हो गया है और उनका खुद का तबादला कुछ ही दिनों में भोपाल होने वाला है। स्वाभाविक है कि इन हालात में बच्चों के रहने का सवाल पैदा हुआ होगा। हम हमारे दामादजी की मर्जी के बाहर नहीं है। चिरंजिव सुरेश को तो उन्होंने उज्जैन में रखने का तय कर ही लिया है । चिरंजीव बाल्याजी को हम यहां ग्वालियर में ख़ुशी-खुशी रखने को तैयार है। विशेष यह कि, चिरंजीव बाल्याजी अपने ननिहाल कभी भी आ सकते है। आप भी उनके स्कूल की चिंता न करे। वार्षिक परीक्षाओं के पहले भी वो आ सके तो उन्हें परीक्षा में बैठा सकते है। आप अपनी सुविधा अनुसार तय करे। ज्यादा क्या लिखे? आपकी माताजी को हमारा विनम्र प्रणाम कहिएं और चिरंजीव बाल्याजी और सुरेश को हमारा आशीष कहिएंI
आपका विनम्र,
रामचंद्र
चलो मेरा ग्वालियर जाना तो पक्का हो गया। आठ दिन में ही दादा का भी पत्र आ गया। उन्होंने ग्वालियर नानाजी को भी पत्र भेजा था। इसके अलावा आती बसंतपंचमी को मेरा और सुरेश का उपनयन संस्कार ग्वालियर में करना तय किया है ऐसा भी दादा ने लिखा था। चिट्ठी में दादा ने यह भी लिखा था कि हमारे उपनयन संस्कार के बाद वें माँजी और सुशीलाबाई के साथ सिवनी जा कर उनकी सारी व्यवस्था कर के आएंगे और उसके बाद ही सुरेश के साथ उज्जैन जाएंगे। सुशीलाबाई लम्बी छुट्टी पर ही थी और माँ-बेटी ने यह तय किया कि, बसंतपंचमी के आठ दिन पहले ही हम सब ग्वालियर पहुँच जाएंगे।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – २९ में


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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