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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २७

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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दूसरा दिन एक नयी सुबह लेकर आया। गणपत कल रात घर आया ही नहीं था। बेबी ने दोनों गाय का दूध निकालने के बाद खुद ही राधा और यशोदा को खूंटे से आजाद किया। मैं भी जागने के बाद तख़्त पर बैठ गया था। बेबी ने मुझे देखा और बोली, ‘बाळोबा, आज अकेले ही घूम के आओं और आने के बाद बाहर से ही आवाज लगाना। मैं आकर कुएं से दो बाल्टी पानी निकाल कर तुम्हारे सर पर उड़ेल दूंगी।’ आज मुझे तालाब पर अकेले जाने में मुझे कोई संकोच ही नहीं था पर सुशीलाबाई के डर के कारण मैं जाने से पहले अपने नहाने की पूरी तैयारी कर के गया।
पथरिया गाव मुझे भा गया था और अच्छा भी लगने लगा था। बुरहानपुर जैसा यहां दिन रात काम करने का माँजी का फरमान भी नहीं था। महत्वपूर्ण यह था कि माँजी और सुशीलाबाई की सेवा बेबी कर ही रही थी इसलिए माँजी को भी आराम सा था। मुझे तो दोनों समय खाना और सोना। बस यही काम था। माँजी के शब्दों में’ खाकर खग्रास और हग कर सत्यानाश।’ माँजी मुंहफट थी और उन्हें गालियां देने की बहुत आदत सी थी। शुद्ध बुन्देलखंडी गालियां। बुरहानपुर में मैंने माँजी के मुंह से एक भी गाली नहीं सुनी थी। यहां पथरिया में तीन दिन में मैंने उनके मुंह से कई गालियाँ सुनी। मेरे लिए सब गालियां नयी ही थी। गालियों का प्रयोग वे मुहावरें जैसा करती थी यह भी एक और आश्चर्य ही था मेरे लिए। बेबी,सुशीलाबाई और गणपत समेत कईयों का यहां कई बार उद्धार हो चुका था। बुरहानपुर की माँजी अलग थी और यहां पथरिया की माँजी बिलकुल अलग सी ही थी खैर।
निपट कर आया तो बेबी को आवाज देने की जरुरत ही नहीं पड़ी वो कुएं पर ही थी। मैं सीधा कुएं पर ही गया। मुझे देखते ही उसने दो बाल्टी पानी मेरे ऊपर उड़ेल दिया और बोली, ‘जीजीबाई के राज में अब तुम पवित्र हो गए हो और हां कल से अब खुद ही पानी कुएं से निकलना और खुद ही अपने सर पर उडेलना। मुझसे छोटी बाल्टी ले लेना, समझे।’
मैं वैसे ही भिगे बदन अन्दर आया। माँजी की पूजा हो चुकी थी और वे तैयार हो कर शायद बाहर जाने को थी। मुझे देखते ही बोली, ‘बाळ, बदन ठीक से पोछ लो। गीले मत रहो और हां जल्द ही कपडे पहन कर तैयार हो जाओं। हमें दमोह जाना है। अभी तुरंत रवाना होना होगा। मैं तैयार हूं। फिर बेबी से बोली, ‘बेबी पहले उसे चाय दे, कुछ खाने को भी दे। हमारे लिए खाने का डिब्बा भी दे दो। मैं अभी आती हूं।’ अब मेरे लिए फिर एक नया आश्चर्य था यूं माँजी के साथ दमोह जाना। अब ये दमोह नाम का क्या नया झमेला है? और मैं ही क्यों? सुरेश क्यों नहीं? वैसे सुरेश अब तक सो ही रहा था परन्तु मेरे मन की बात बेबी ने बोल दी, ‘ऐ मौसी री, सुरेश बड़ा है, उसे ले कर जाओं ना अपने साथ।’
‘रहने दो। अभी तक सो ही रहे है महाराज। बाप का लाडला है मेरे साथ भागदौड़ करना उसके बस की बात नहीं है।’ माँजी बोली। ‘माँ के साथ जा रहे हो कल लाए हुए नए कपडे और नए जूते मोज़े पहन लो। ‘सुशीलाबाई बोली। मैं ख़ुशी-ख़ुशी नए कपडे पहन कर तैयार हो गया। मुझे देख कर बेबी बोली, ‘ऐ जीजी री, देख तो कितना अच्छा दिख रहा है बाळोबा? कितने तो अच्छे नए कपडे और नए जूते मोज़े ला कर दिए हैं इन्होने, और आप लोग हो कि इनकी तारीफ़ तो छोडो इनकी ज़रा भी मान और परवाह नहीं करते ।’ ‘सच में अच्छा लग रहा है।’ सुशीलाबाई बोली, ‘ गणपत ने ठीक ही किया है पर उसके पास रुपये कहां से आए ये नहीं बताया। फिर भी उससे पूछना कि कपडों और जूतों के लिए माँ के नाम से दूकान पर कुछ उधारी की हो तो रुपये ले जाए और तुरंत उधारी चुका दे। और हां, सुरेश के लिए भी नए कपडे और नए जूते मोज़े ले कर आए। बच्चों के पिता आने वाले है दिवाली पर। त्यौहार पर बच्चों को नए कपड़ों में देख कर उन्हें भी अच्छा लगेगा।
‘गणपत पर की नाराजी सुशीलाबाई की भले कम हो गयी हो पर माँजी की नाराजी कम नहीं हुई थी। वें बीच में ही बोल पड़ी, ‘और हां ये भी पूछना कि महाराज कहां धूल चाटते घूम रहे है? दो दिन हो गए इस गणपत का पता ही नहीं है।’ फिर माँजी मुझसे बोली, ‘बाळ तैयार हो गए न? हमकों निकलना होगा।’
‘दादा आने वाले है यह सुनकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई। मैंने सुशीलाबाई से पूछा, ‘कब आने वाले है मेरे दादा?’ ‘दिवाली के दो दिन पहले आ जाएंगे।’ सुशीलाबाई बोलीI
‘अरे बाप रे! ख़ास मेहमान आने वाले है। मुझे तैयारी करनी होगी। कितना काम पडा है।’ बेबी सुशीलाबाई की ओर देख कर हंसते हुए बोली। बेबी को सब कुछ खबर रहती पर वो सुशीलाबाई से हंसी मजाक करने का एक भी मौका नहीं छोडती। पर ताज्जुब है इन माँ-बेटी का सुरेश से ज्यादा मुझ पर भरोसा है इनका? पर यह सिर्फ काम के लिए ही था। कुछ भी क्यों ना हो मुझे आज फिर बाहर घूमने का मौका मिला था। सुरेश तो कल भी दिन भर घर पर ही था और आज भी दिन भर घर पर ही रहेगा। माँजी ने निकलने की जल्दी की और हम दोनों तांगे से स्टेशन पर आ गए।
गाडी सही समय पर आ गयी थी और हम दोनों दस बजे दमोह भी पहुच गए। थोड़ी देर में ही हम दोनों कलेक्टर के कार्यालय में पहुच गए थे। मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि माँजी को वहां बहुत सारे लोग जानते थे। माँजी के अपने जमीन बाबद काम थे। कुछ इधर उधर के काम भी थे। दो चार विभागों के चक्कर लगाने के बाद माँजी के कुछ काम हुए कुछ नहीं हुए। ये सब होते होते दोपहर के दो बज हो गए। फिर माँजी मुझे लेकर उनके वकील पाठकजी के घर आयी। पाठक वकील रेलवे स्टेशन के पास राम मंदिर के आहते में ही रहते थे। राम मंदिर उनका पुश्तैनी मंदिर था और उन्होंने अपना कार्यालय भी वही बनाया था। राम मंदिर में रामजी के दर्शन पाठक वकील ने खुद माँजी को साथ ले जाकर करवाए। दर्शन करने के बाद हम लोग पाठक वकील के कार्यालय में आ गए। वहां हमने भोजन किए। वापसी की गाडी शाम की थी इसलिए माँजी वहीं थोडा विश्राम करने के लिए रुक गयी।
माँजी पाठक वकील से बात कर ही रही थी कि वहां एक सज्जन आए। खूब ऊँचे, गोरे चिट्टे, कसरती शरीर, बढ़ी हुई मूंछे और नीचे तक कल्ले। सर पर अग्रेजों वाला खाकी रंग का टोप। खाकी हॉफपेंट पहने हुए और सफ़ेद शर्ट हॉफपेंट के अन्दर किए हुए। कमर में काले रंग का बेल्ट, घुटनों तक के खाकी मोज़े पहने हुए मानो कोई शिकारी हो और हां कंधे पर दुनाली लटकी हुई। मैं तो बन्दुक देखकर डर ही गया परन्तु पाठक वकील उनको देखकर बड़े अदब के साथ खड़े हुए और उन्हें झुक कर नमस्कार किया। माँजी को देखकर वे सज्जन एक पल वहीं ठिठक कर खड़े रहे फिर उन्होंने माँजी के चरण स्पर्श किये पर माँजी के ऊपर इसका कोई असर नहीं दिखा। वे वैसी ही बैठी रही। मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ पर उतने में उन सज्जन ने ही पूछ लिया, ‘कैसी है आप ?’
‘आपकी मेहरबानी से ठीक हूं।’ माँजी के स्वर में बेरुखी थी।
‘ऐसा क्यों कह रही है आप?’
‘दामोदरपंत, आपको सब पता ही है ना कि आपके कारण ही हमारे को आज ये दिन देखना पड रहा है।’ माँजी जोर से बोली। मतलब इन सज्जन का नाम दामोदरपंत है। पर ये है कौन? देखते है। आगे पता पड ही जाएगा।
‘अब आप अपने मन से हमारे प्रति अपनी नाराजी दूर कर ही ले।’ दामोदरपंत बोले, ‘माननीय न्यायालय के निर्णय के अनुसार हम आप को तीन मकान, मकानों से सटा बड़ा वाला बारा, सौ बीघा जमीन और पच्चीस तोला सोना दे चुके है। हमने माननीय न्यायालय का निर्णय मान लिया आगे अपील तक नहीं की। ये सब आपके पाठक वकील साहब को भी मालूम है। इनकी सलाह के अनुसार ही तो आपने नागपुर उच्च न्यायालय में इस निर्णय को चुनौती दी थी ना? परन्तु माननीय उच्च न्यायालय ने भी निचली अदालत का वहीं निर्णय कायम रखा इसमें हमारा क्या दोष? हम तो माननीय उच्च न्यायालय में लिख कर दे ही चुके थे कि हमें निचली अदालत का निर्णय मान्य है इसलिए हमने वहां कोई पैरवी भी नहीं की थी। परन्तु अब इन सब बातों को कई वर्ष बीत गए है। कम से कम अब तो आप अपने मन से कड़वाहट ख़त्म कर दें यहीं विनंती है हमारी आपसे।’
‘जायजाद का क्या लेकर बैठे हो दामोदरपंत?’ माँजी आवेश में आ गयी, ‘सिर्फ आपके कारण, हाँ सिर्फ आपके कारण ही हमें न चाहते हुए भी अदालत जाना पडा और न्यायालय के एक निर्णय से हमारी जिन्दगी ही तबाह हो गयी। न्यायालय के निर्णय से हमारे और सुशीला के अस्तित्व पर ही आंच आ गयी।’
‘हम समझ सकते है। बल्कि भलीभांति समझते भी है। परन्तु ऐसा ही कुछ निर्णय माननीय न्यायालय ने हमारे बारे में भी तो दिया ही है।’ दामोदरपंत बोले।
‘दामोदरपंत आप पुरुष हो पर हम एक स्त्री है। गंगाधरपंत की विधवा के रूप में उनके बाद समाज में हम सम्मान के साथ जी सकते थे। परन्तु आपके कारण न्यायालय को इतना विचित्र निर्णय देना पड़ा। ये व्यथा हमारे मन में हमेशा रहेगी।’ माँजी बोली। ‘ज़िन्दगीभर हमें भी इसी बात का मलाल रहेगा।’ दामोदरपंत बोले, ‘हम एक बेरिस्टर है। जायदाद के मुकदमें में माननीय न्यायालय द्वारा रिश्तों के बारे में कोई निर्णय देना हमारे लिए भी ये अपने तरह का एक अलग और आश्चर्यजनक फैसला है। गंगाधरपंत ने हमें दत्तक लिया था ये हम माननीय न्यायालय के समक्ष साबित नहीं कर सके परन्तु माननीय नायालय ने सुशीला को गंगाधरपंत की आपके द्वारा जन्मी लड़की मान लिया। वहीं दूसरी ओर आप अपने आप को देवताओं और ब्राह्मणों के समक्ष और उनकी साक्ष से गंगाधरपंत की विवाहित पत्नी साबित नहीं कर सकी। सब कुछ अनोखा और विचित्र तथा अविश्वसनीय। जायदाद के बटवारे का माननीय न्यायालया ने निर्णय दे दिया परन्तु सामाजिक और पारिवारिक रिश्तों को मटियामेट कर दिया यह भी आश्चर्यजनक ही है। पर सच बताए हमारा विवाद जायदाद के लिए ही तो था। रिश्तों की मान्यता के लिए था ही नहीं। रिश्ते में तो हम आज भी आप को हमारी बुआ ही मानते है। आप हमारे लिए सदैव आदरणीय रही है और रहेंगी। गंगाधरपंत की पत्नी हमारी ख़ास बुआ थी। हम उनकी जगह आज भी आपको ही मानते है। आदमी भले जीवित ना हो पर जो जीवित बचे है उनके रिश्ते तो सहेज कर रखने ही पड़ते है। हमारी आपसे विनंती है कि अब सब कुछ भूल कर हम रिश्तों की संवेदनाओं को बचाए रखे।’
‘दामोदरपंत बड़ा अच्छा लगा यह सब सुन कर। इतने वर्षों बाद आपने अपना मन हल्का किया। ‘माँजी बोली, ‘दुर्भाग्य से हमारा आपका ज्यादा संपर्क नहीं रहा। कोर्ट की सीढियों पर ही हमारी आपकी पहली मुलाकात हुई थी। उस वक्त आप अपने दिमाग में अनेक भ्रम पाले हुए थे इसलिए हम भी विवश थे। उस समय के हालात ऐसे थे कि हमारी बच्ची और हमारे अस्तित्व के साथ ही हमारे दोनों के जीवन यापन का भी सवाल था। सुशीला की पढ़ाई का सवाल था। गंगाधरपंत के साथ हमारे संबंध नकारने से हमारे सामाजिक और पारिवारिक अधिकारों पर आघात पहुचाया गया जिसके कारण हमें बहुत दु:ख पंहुचा। वेदनाएं हुई। इस अपमान को लेकर हम आज तक व्यथित है। भुला नहीं पा रहे है कुछ भी।’ माँजी की आँखों में आंसू आ गए थे पर वें उन्होंने बाहर नहीं आने दिए। तुरंत उन्होंने अपने आंसू पोछ लिए। यह सबने देखा। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था और सच बताऊँ मुझे कुछ अच्छा भी नहीं लग रहा था। कुछ पल के लिए कमरे में खामोशी छा गयी। थोड़ी देर बाद माँजी ने ही बोलना शुरू किया, ‘दामोदरपंत, समाज में स्त्री मुक्ति और स्त्री स्वातंत्र्य की सिर्फ चर्चा की जाती है। मुद्दे रखे जाते है। स्त्रियों के प्रति समाज कितना संवेदनशील है यह बताया जाता है पर मैदानी असलियत इसके ठीक विपरीत होती है। भयंकर होती है। समाज में, परिवार में आज भी पुरुषों का वर्चस्व है। उनकें ही अधिकार है, उनकी ही व्यवस्था है, उनके ही निर्णय है और उनके ही अत्याचार है। पुरुष स्त्रियों को समाज और परिवार में सम्मान के साथ जीने ही नहीं देतें। यहीं तो हमारे विवाद का विषय था ना? मैं गंगाधरपंत की पत्नी नहीं यही से तो झगड़ा शुरू हुआ था। मेरा यही अधिकार तो आपने अस्वीकार किया था। जायदाद में किसी का हक़ आप अस्वीकार कर सकते है पर किसी का समाज में अधिकार कैसे अस्वीकार कर सकते है? इन भावनात्मक मसलों का हल न्यायालय ने भी नहीं किया यही मेरी वेदना है।’
‘बुआजी, आप शांत रहें।’ दामोदरपंत बोले। मैं और पाठक वकील मूक दर्शक बने एकाग्रता से दोनों के संभाषण सुन रहे थे। ‘कैसे शांत रहे?’ माँजी बोली, ‘आठ वर्ष की गुड्डा-गुड़ियों से खेलने की उम्र में मेरी तो शादी ही कर दी गयी मेरे घरवालों द्वारा। महाराष्ट्र के कोंकण से कोसों दूर यहां पथरियां ब्याह कर मायके वालों ने अपने हाथ झटक लिए। ससुराल में तो क्या गांव में भी कोई परिचित नहीं और मुझसे चार गुना बड़ी उम्र का पति भी अपरिचित। रजस्वला होने की उम्र से पहले ही विधवा हो गयी। विधवा होने के कारण ससुराल और मायका दोनों ही पराए हो गए। वैसे भी मायका कोसों दूर। पति की मृत्य के बाद वहां से शोक प्रकट करने भी कोई नहीं आया था। न मायका न ससुराल, मेरीसहायता के लिए कोई भी आगे नहीं आया। पढ़ाई नहीं, जीने का अनुभव भी नहीं। परिवार ने अपना होनहार बेटा खोया इसलिए ससुराल के भी सब बैरी हो बैठे और जागीरदार गंगाधरपंत? मेरे पति के बालसखा थे गंगाधरपंत। रोज का घर में उठना बैठना था पर खुद की बीमार पत्नी की सेवा सुश्रुषा, उसकी देखभाल छोड़ गंगाधरपंत की निगाहें हमेशा मेरे शरीर में कुछ न कुछ खोजती रहती। अपने मित्र की विधवा इस नाते सब के सामने हमेशा मुझसे हमदर्दी जताते। मेरे भविष्य की उन्हें चिंता है इसका दिखावा मेरे ससुराल में और सबके सामने करने से पीछे नहीं रहते। मेरी कुछ भी समझने की उम्र थी ही नहीं। पंद्रह सोलह साल की उम्र जिन्दगी में क्या माने रखती है? कुछ भी नहीं। अंधकारमय जीवन में मेरे मन किसी कोने में भी तो मंगें पल ही रही थी। उम्र का ही दोष होता है यह। पर समझदार गंगाधरपंत को जो अपनी बीमार पत्नी से हासिल नहीं हो सका वह उन्होंने झूठी संवेदनाएं दिखलाकर मुझसे हासिल कर लिया। कम उम्र के कारण मेरे पति के साथ मेरा भावनात्मक लगाव नहीं था और गंगाधरपंत के साथ सिर्फ शरीर का संबंध हो जाने से उनके साथ भी भावनात्मक लगाव नहीं हो सका। लेकिन ये सम्बन्ध कितने दिन सबकी निगाहों से छुपे रहते? एक दिन सब सामने आ ही गया। लेकिन मेरे गर्भवती होने के बाद भी जागीरदार गंगाधरपंत मुझे दूसरी पत्नी का दर्जा देने को भी तैयार ही नहीं थे। बड़ी बेशर्मी से सबसे कहते कि पहली पत्नी को भुलना संभव ही नहीं। सिर्फ पुरुषी अहंकार। कितने झूठे मक्कार और बेशर्म होते है ये बड़े रसूकदार लोग। ऊपर से ऐसे रहते है जैसे कुछ हुआ ही नहीं।’ माँजी बोले जा रही थी।
दामोदरपंत ने उन्हें रोकने की कोशिश की, ‘हम आपकी व्यथा समझ सकते है ……।’
माँजी ने उन्हें आगे बोलने ही नहीं दिया,’ …. नहीं … नही .. आप नहीं समझ सकते ये व्यथा। आप भी पुरुष ही हो परन्तु मुद्दा अलग ही है। मतलब, समाज के, धर्म के, कानून के, व्यवस्था के सारे कानून, सारे नियम पुरुषों के द्वारा, पुरुषों के हित में, पुरुषों के लिए, उनकी सुविधा को ध्यान में रख कर ही बनाए गए है। परिवार तक में और समाज में भी विवाह संस्था टिकाएं रखने की जिम्मेदारी भी सिर्फ स्त्रियों की ही मानी जाती है। मेरी ही बात करे तो सारे दोष मुझ पर डाल कर समाज चैन की नींद सोता रहा। बचपन में जबरन विवाह मेरा दोष नहीं था, विधवा होना मेरा दोष नहीं था, गर्भवती होना भी मेरे अकेले का दोष नहीं था। पर सारा दंड मेरे ही नसीब में था। गंगाधरपंत तो समाज में एक प्रतिष्ठित जागीरदार बन कर सम्मान के साथ आखिर तक जीते रहे जैसे कुछ हुआ ही नहीं। आप भी तो बेरिस्टर हो? पाठक वकील भी आज एक ख्यातनाम वकील है। आप ही बताइए सुशीला को मेरे पेट से जन्मी जागीरदार गंगाधरपंत की लड़की माना गया था फिर ब्राह्मणों के समक्ष, मंगलाष्टक नहीं हुए इसलिए इसे वैदिक पद्धति से हुआ विवाह न मानते हुए न्यायालय द्वारा मुझे गंगाधरपंत की पत्नी का दर्जा नही देना कहां का न्याय है? ख़ास कर ऐसी स्थिति में जब गंगाधरपंत की पहली पत्नी जीवित ना हो। मुझे बताइए यहां जायजाद का प्रश्न कहां आता है? यह तो सरासर अन्याय है।’
माँजी आवेश में बोले जा रही थी। बोलते बोलते माँजी को अचानक खांसी आयी। पाठक वकील ने तुरंत पानी का गिलास माँजी को दिया। थोड़ी देर शांत रहकर माँजी बोली, ‘दामोदरपंत, मुझे आजकल हमेशा एक डर सा लगा रहता है। मेरी सुशीला अपना प्रेम भी सम्हाल नहीं पायी और उसकी शादी भी नहीं हो सकी। अब तो मुझे उसके तबियत की ही चिंता अलग से परेशान करती रहती हैंI सुशीला बौखलाई सी रहती है। उसकी दिमागी हालत ठीक नहीं है। क्या करू कुछ समझ में नहीं आता।’ ‘हाँ मैंने भी सुना है।’ दामोदरपंत बोले, ‘कानपुर में कॉलेज में पढ़ते हुए उसका किसी लड़के से प्रेम हो गया था और फिर उस लड़के ने सुशीला को धोखा दिया व कहीं और ब्याह रचा लिया।’
‘उसकी अपनी भी एक अलग ही राम कहानी है।’ माँजी बोली, ‘अब उनकी पत्नी भी इस संसार में नहीं है। देर से ही सही अब इन दोनों ने विवाह का निर्णय लिया है परन्तु उनके पहली पत्नी से अब दो बच्चें भी है। देखते है इन सब झंझटों से ईश्वर मुझे कब मुक्ति देता है।’ उसके बाद माँजी ने मेरी तरफ देखते हुए कहां, ‘यह उन्हीं का छोटा बेटा है।’
‘अरे वाह .. वा ..अच्छा ही है।’ दामोदरपंत ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। फिर बोले, ‘अरे भई हम तुम्हारे मामा है। अब भूलना नहीं। याद रहेगा ना? किस कक्षा में पढ़ते है जनाब?’
‘तीसरी में’ मैंने जवाब दिया।
‘बहुत बढ़िया। खूब पढाई करो। खूब मेहनत करो। जल्दी बड़े हो। होशियार बनो। सुखी रहो। ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे। यशवंत हो। वापस जाने के पहले किसी के साथ गढ़ी पर जरुर आना । ‘दामोदरपंत से इतने सारे आशीष की मुझे उम्मीद ही नहीं थी। कई सवालों के जवाब में मैंने सिर्फ़ अपनी गर्दन हिला दी। मेरे नए बने मामाजी ने मेरे हाथ पर चांदी का एक रूपया रखा। मैंने भी उनके चरण स्पर्श किए। इसके बाद कुछ इधर उधर की बातें होती रही। थोड़ी देर बाद दामोदरपंत निकल गए। हमारी भी गाडी का समय हो गया था इसलिए हम भी स्टेशन पर आ गए।

अगले दिन फिर एक नयी सुबह। गणपत मुझे सुबह तालाब पर ही मिला। बोला, ‘आज सप्ताह का हाट है रविवार भी है आज दिन भर मेरे ही साथ ही रहना।’
‘ठीक है घर पर पूछ लेता हूं।’ मैंने कहां।
‘चिंता मत करों जीजीबाई से मैं पूछलूंगा।’ गणपत बोला।
हम दोनों घर के बाहर वाले कुएं पर नहा कर ही अन्दर आंगन में आए। सुशिलाबाई का आंगन में पहारा चल ही रहा था। गणपत और मैं दोनों ही तैयार हो गए। गणपत सुशीलाबाई से बोला, ‘जीजीबाई, हमें ग्रामपंचायत का कर वसूली का ठेका मिला हुआ है। सुरेश को और बाळोबा को ले जाए क्या साथ में? उतना ही बच्चों का मन लगा रहेगा।’
सुशीलाबाई ने कोई जवाब ही नहीं दिया पर माँजी ने बेबी से पूछा, ‘बेबी, गणपत सच बोल रहा है ना?’ फिर गणपत से ही खुद बोली, ‘गणपत, अब तो सम्हालो खुद को। तुम्हारा एक लड़का है और दूसरे की भी तैयारी है। कुछ कमाना सीखो और उससे महत्वपूर्ण यह कि सच बोलना सीखो। पैसे की बर्बादी ठीक नहीं है। नहीं ले जाओं दोनों को हाट में इसमें हमें कोई दिक्कत नहीं है पर बच्चें दूसरों के है यह ध्यान रखो।’ सुशीलाबाई तुरन्त नाराजी भरे स्वर में बोल पड़ी, ‘माँ तुमने इन्हें फिर दूसरों के बच्चें कहां।’
‘गैरों के बच्चें नहीं कहां मैंने? और लाख अपने कह ले तो भी अभी दूसरों के बच्चें ही कहलाएंगे।’ माँजी ने भी तुरंत जवाब दिया। माँजी ने इजाजत दे दी पर सुरेश अभी तैयार नही था और गणपत को जल्दी थी। इसलिए, ‘सुरेश को बाद में ले जाऊँगा’ कहकर गणपत ने मुझे साथ लिया और हम दोनों घर के बाहर निकले। गणपत को सप्ताह के हाट में अपना सामान/सब्जी वगैरे बेचने आए विक्रेताओं से पंचायत कर वसूलने का ठेका मिला था। सबसे पहले हम ग्रामपंचायत के कार्यालय में गए। गणपत ने वहां अपने दो और साथियों को बुलाया था। कुल मिला कर हम चार लोग थे वहां। गणपत ने ग्रामपंचायत से रसीदकट्टे लिए। हर एक विक्रेता से आठ आने लेकर तुरंत उसे रसीद जारी करनी थी। गणपत ने मुझे भी इस काम में शामिल कर लिया। उसने हम सब को ठीक से समझाया कि हमें क्या क्या करना है पर मुश्किल यह थी कि इस टीम में सबसे छोटा मैं ही था। हाट में सब मुझे हाथ में रसीदकट्टा लिए देख कर चौक जाते थे। किसी को भरोसा ही नहीं होता था कि ग्रामपंचायत की ओर से कोई बालक भी कर वसूलने आ सकता है। उन्हें यह प्रश्न पड़ता था कि मुझे पैसे दे या नहीं दे पर गणपत का चारों ओर ध्यान रहता। वह तुरंत मेरे पास आता और कर वसूल करवाता।
दोपहर को थोड़ी देर के लिए हम चारों खाना खाने घर आए। बेबी ने पूडियां और सब्जी तैयार कर रखी थी। जल्दी-जल्दी खाना खाकर हम सब वापस हाट के लिए रवाना हुए। अब की बार सुरेश को भी हम अपने साथ ले कर गए। सुरेश मेरे साथ ही रहा। हमें वापसी में रात हो गयी। घर आकर गणपत ने सबसे हिसाब लिया। यह एक आश्चर्य ही था कि सबसे ज्यादा वसूली मेरे ही द्वारा की गयी थी। गणपत ने खुश होकर मुझे एक रूपया दिया। इस एक रुपये का महत्व मेरे लिए बहुत ज्यादा था। अब तक मुझे एक रक रूपया बड़ों ने स्नेहवश दिया था पर यह रूपया मेरे जीवन में मेरे मेहनत की पहली कमाई थी। स्वाभाविक है मुझे गर्व तो होना ही था।
अब एक बात मेरी अच्छी तरह से समझ में आ गई कि सबकी मर्जी सम्हाल कर ही मैं सबकी मर्जी का हो सकता हूं। धीरे-धीरे मेरे ध्यान में ये भी आया कि नानाजी और काकी हमेशा मेरे साथ नहीं रहने वाले और सुशीलाबाई के साथ ब्याह होने के बाद दादा के ऊपर भी मैं ज्यादा निर्भर नहीं रह सकता। इसलिए अब मुझे अपना रास्ता खुद ही खोजना होगा इसलिए मुझे सारे काम भी करते आना चाहिए। मुझे काकी की याद आई। वह नानी को अक्सर कहा करती, ‘आवडे, आदमी परिस्थिति का गुलाम रहता है। मतलब जैसे हालात हो आदमी को वैसे ही रहना पड़ता है और रहना भी चाहिए। उसके पास तो कुछ विकल्प ही नहीं रहतें। जिनके पास विकल्प होते है उन्हें परिस्थितियों की गुलामी नहीं भोगनी पड़ती। इसीको कहते है ‘जाहि विधि रखे राम ताहि विधि रहिये।’ मैं काकी की बात भुला नहीं पा रहा था। मतलब आदमी परिस्थिति अनुसार रहता है या खुद अपने ऊपर परिस्थितियां ओढ़ लेता है? पर अब मुझे तो सिर्फ अपने जीने लायक स्थितयों का निर्माण करना ही होगा। वैसे मेरा काम इतना आसान नहीं था। गणपत ने मेरे मन की हलचल पहचान ली थी इसीलिए वह मुझे सबसे नजदीक लगने लगा था और गणपत भी तो अपने काम का कुछ मेरे भीतर खोज ही रहा होगा? गणपत अब उसके काम में मुझे भी उसके साथ लेने लगा। उसका लाउड स्पीकर किराए से देने का काम भी था। एक दो बार मेरा भी उसके साथ जलसों में जाना हुआ।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – २८ में


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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