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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २६

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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मेरा और सुरेश का कुछ ज्यादा सामान तो था ही नहीं सुशीलाबाई का भी एक ही थैली थी वे किसी को भी उसे छूने नहीं देती। उनके थैली में एक तौलिया और एक बड़ा सा पीतल का लोटा रखा रहता। इसी लोटे का इस्तेमाल वे दिन भर करती। इस लोटे की किस्मत में दिन भर सुशीलाबाई के हाथों खुद को राख से जाने कितनी बार मंजवाना लिखा रहता यह कोई ज्योतिषी भी नहीं बता सकता था। माँजी जरूर ज्यादा सामान लायी थी। इनमे घरगृहस्थी का सामान, थोड़े मसाले अचार इत्यादि थे। और हां सुशीलाबाई के कपडे भी माँजी को ही सम्हालने पड़ते इसलिए वे भी माँजी के सामान के साथ ही थे। घर में हम लोगों के अंदर आंगन में आते ही बेबी नहीं मुझे उन्हें बेबी नाम से नहीं पुकारना चाहिए। मुझसे तो वें बहुत बड़ी है पर उनका तो मूल नाम ही बेबी है और सब इन्हे बेबी नाम से ही पुकारते भी है। हां तो मैं कह रहा था कि हम लोगों के अंदर आंगन में आते ही ये बेबी सबसे पहले सामने आयी। आते ही उन्होंने माँजी के चरण स्पर्श किये और सुशीलाबाई के सीधे चरणस्पर्श न करते हुए दूर से ही झुक कर जमीन छूकर उनके प्रतीकात्मक चरणस्पर्श किये। माँजी ने पूछा, ‘गणपत दिखाई नहीं दे रहा?’
बेबी ने माँजी की नाराजी तुरंत समझ ली। बोली, ‘मौसी, वें आप सब को लेने स्टेशन पर जाने वाले थे पर आज ही ग्रामपंचायत में सप्ताह के हाट में वसूले जाने वाले कर वसूलने हेतु पूरे एक वर्ष केलिए ठेके नीलाम होने है न और इस बार हम भी ठेका लेने की सोच रहे है। इसलिए वें ग्रामपंचायत गए है।’
‘नसीब। देर आयद दुरस्त आयद।’ माँजी बोली, ‘गणपत के दिमाग में कुछ तो प्रकाश पड़ रहा है? यहीं कहना पड़ेगा …. ‘माँजी को बेबी ने आगे बोलने ही नहीं दिया वे तुरंत सुशीलाबाई की ओर मुड़ी, ‘ऐ जीजी री, सुरेश को तो मैं जानती हूं पर ये दूसरा लड़का? किसका लड़का साथ लायी हो तुम?’
सुशीलाबाई नाराज हो गयी, ‘अनाप शनाप क्या बोले जा रही हो तुम? यह सुरेश का छोटा भाई बाळ है। आजकल ये भी हमारे ही साथ रहता है।’ ‘बढियां ही है। अच्छा ही है। एक से भले दो।’ बेबी ने मुंह टेड़ा किया। उनका इस तरह से मुंह टेड़ा करना सुशीलाबाई को कतई अच्छा नहीं लगा। ‘मुंह टेड़ा करने को क्या हुआ? बहुत ही अच्छा होशियार और समझदार लड़का है। और खास बात यह कि बताए हुए किसी भी काम को करने से मना नहीं करता।’ सुशीला बाई बोली।
‘अच्छा है। बहुत अच्छा लड़का है।’ बेबी को जो समझना था वह समझ चुकी थी।
हाथ मुंह धो कर हमने थोड़ा आराम किया। दियाबाती के पहले ही बेबी रसोई घर में सब के लिए रात का भोजन बना चुकी थी। उसके बाद सुशीलाबाई के स्नान के लिए एक बाल्टी गरम पानी नहाने वाले कमरे में रख कर आ गयी। माँजी से सुशीलाबाई के कपडे ले कर वह भी वहां रख कर आयी। सुशीलाबाई के स्नान कर बाहर आने के बाद बेबी ने दिया बाती की। ‘ओम जय जगदीश हरे ‘ ये आरती भी हुई। ये आरती मैंने पहली बार ही सुनी। आरती होने के बाद बेबी जोर से बोली, ‘बोलो राधेश्याम महाराज की जय।’ हम सब ने भी जोर से बोला, ‘राधेश्याम महाराज की जय।’ इसके बाद हम सब भोजन करने बैठे। बेबी ने सबको भोजन परोसा। भोजन करने के बाद बरामदे में रखे तख़्त पर दरी बिछाकर मैं और सुरेश सो गए। सुशीलाबाई और माँजी के लिए बेबी ने बरामदे में ही दो दरियां जमीन पर ही बिछा दी थी। इसके बाद बेबी सारे दरवाजे बंद कर अपने बच्चे को लेकर ऊपर सोने चली गयी। गणपत नाम के आदमी का अभी भी कहीं पता नहीं था।
पथरिया गांव की मेरी पहली सुबह। यहां कोई सुबह जल्दी अलार्म नहीं बजा था पर बरामदे में होने के कारण सुबह की ठंडक ने जल्दी ही मुझे जगा दिया। सूरज महाराज अपनी किरणे इस धरा पर बाटना शुरू करने ही वाले थे इसके पूर्व ही मैं आंख मलते हुए तख़्त पर उठ कर बैठ गया था। माँजी का स्नान हो गया था और वें पूजा करते करते संस्कृत के श्लोकों का पाठ कर रही थी। मैं तख़्त से नीचे उतर कर बरामदे से आंगन में आया। बेबी का भी नहाना हो गया था और वे बगल के कमरे में गाय का दूध दूह रही थी। गाय दो ही थी पर पीतल की बाल्टी ऊपर तक दूध से भरी हुई थी। दूध की बाल्टी लेकर बेबी आंगन में आई, रोज घर में लगने के लिए थोडा दूध एक बर्तन में अलग रख लिया बाद में आंगन में खड़े एक आदमी को बाल्टी देते हुए बोली, ‘गंगाराम ये ले जाओं। दूध कितना बना यह बहीखातें में लिखवा लेना और शाम को मुझे सब ठीक से बताना।’ अब तक मैं भी वापस तख़्त पर आ कर बैठ गया था। सुरेश की सुबह अभी नहीं हुई थी। बेबी दूध का बर्तन लेकर अंदर रसोई में जा रही थी कि उसकी नजर मुझ पर पड़ी। हंसते हुए मुझसे बोली, ‘क्यों बाळोबा चाय पियोगे क्या?’ इतने में सुशीलाबाई बीच में आयी और बोली, ‘अरे, चाय का क्या पूछ रही हो उससे? पहले शौच मुखमार्जन, स्नान। उसके बाद दे उसे जो भी देना हो। बच्चों को बिगाड़ना नहीं।’ बेबी तो मेरा नाम तक बिगाड चुकी थी।
‘निपटने कहां जाएगा?’ बेबी ने हंसते हुए सुशीलाबाई से पूछा। मुझे कुछ समझ में नहीं आया पर सुशीलाबाई ने जवाब दिया, ‘जाने दो उसे बाहर।’
बेबी फिर से हंस पड़ी, ‘जाने दो बाहर। मैं तो बस यूं ही पूछ रही थी।’ फिर मुझ से बोली, ‘बाळोबा, जाओं ज़रा गांव घूम कर आओं।’ मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। मैं वैसे ही तख़्त पर बैठा रहा। इतने में ऊपर के कमरे से एक दुबला-पतला सा आदमी सीढियों से उतर कर नीचे आया। मैंने अंदाज लगाया कि वह गणपत ही होगा। उसने सुशीलाबाई को दूर से ही झुक कर नमस्कार किया। ‘कहाँ थे कल से गणपत? रात खाने पर भी नहीं थे।’ सुशीलाबाई ने उससे पूछा।
गणपत तो कुछ भी नहीं बोला पर बेबी ने जवाब दिया, ‘ऐ जीजी री, कल दिन भर तो ये ग्रामपंचायत में ही थे ठेके के लिए उसके बाद बड़े घर में इनके माँ की तबियत खराब होने से उधर ही थे। देर रात ही वहां से निकलना हो सका।’
‘अरे व्वा! लगता है समेट हो गयी अब घर वालों से? सुशीलाबाई बोलीI
‘कहां हुई? मेरे ससुर गुजर गए और उसके बाद इनका वहां आना जाना फिर से शुरू हो गया। पर बोलचाल अभी भी कम ही है। ये घर में सबसे छोटे है और तीन बड़े भाइयों की इनसे नाराजी अभी भी कम नहीं हुई है। उनसे तो बोलचाल भी बंद है। भौजाइयों से बोलचाल है। पर उससे क्या होता है? तीनों जेठ कह रहे है कि खेती की जमीन में और जायदाद में से एक फूटी कौड़ी भी नहीं देंगे हमें। कहते है कि पिताजी जी ने तो पहले ही बेदखल कर दिया था।’ इस बार भी जवाब बेबी ने ही दिया। गणपत तो चुपचाप सुनता रहा।
‘क्या जरुरत है भाइयों का मुंह ताकने की और उन पर निर्भर रहने की? चार पैसे कमाना सिखो। अब तो बेबी तुम्हारी भी गोद में एक बच्चा है और दूसरे की भी तैयारी है। तुम्हारी गृहस्थी की गाडी कैसे चलेगी? अब तो सुधर जाओ।’ सुशीलाबाई बोली।
अब की बार बेबी ने सुशीलाबाई को कोई जवाब नहीं दिया। वह गणपत से बोली, ‘जीजीबाई कह रही है बाळोबा को तलैया पर ले जाओं साथ में।’ बेबी ने तो मेरा नाम बाळोबा ही रख दिया। गणपत ने इशारों में बेबी से मेरे बारे में पूछा। बेबी बोली, ‘सुरेश का छोटा भाई है।’ सुशीलाबाई ने गणपत को इशारों में मेरे बारे में पूछते हुए देख लिया और थोड़े उलहाने भरे स्वर में बोली, ‘अब तो मराठी सीख लो इस तरह इशारेबाजी की जरूरत नहीं रहेगी हमारे सामने?’
‘ऐ जीजी री, बोलना नहीं आता मराठी पर समझ सब लेते है।’ फिर से जवाब बेबी ने ही दिया, ‘बुन्देलखंडी की आदत पड़ी है ना बचपन से वहीं अच्छी लगती है। धीरे-धीरे मराठी बोलना भी सीख लेंगे।’ सुशीलाबाई कुछ भी नहीं बोली और वहां से बाहर निकल गयी। सुशीलाबाई के जाते ही गणपत बोल पड़ा, ‘मतलब जीजीबाई का होने जा रहा एक और लड़का?’ गणपत के द्वारा जीजीबाई की की गयी हंसी सुनने सुशीलाबाई वहां नहीं थी। बेबी ने गणपत को मुंह पर ऊँगली रखने को कहां। बोली, ‘पहले राधा और यशोदा को खोल दो उन्हें चरनोई जाना है। गंगाराम आता होगा ले जाने के लिए, उसके बाद बाळोबा को ले जाना तलैया।’
मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया था पर मैंने देखा कि गणपत नीचे के कमरें में गया और दोनों गायों को और उनके बछड़ों को खूंटे से आजाद कर दिया। दोनों गायें बाहर आई और बेबी के पास आकर खड़ी हो गयी। पीछे पीछे बछड़े भी कुलांचे भर कर आ गए। बेबी ने गाय और बछड़ों के ऊपर से हाथ फेरा और बोली, ‘राधे यशोदे जाओं घूम कर आओं बाहर।’ दोनों गाये मानों जैसे आज्ञाकारी हो धीरे-धीरे बाहर की ओर जाने लगी। जानवर आदमी का कहां मानते है यह मैं पहली बार ही देख रहा था। मुझे तो बहुत आश्चर्यजनक लगा। अच्छा भी लगा। -‘बाळोबा चलो!’ गणपत मुझसे बोला।
‘कहाँ?’ मैंने पूछा।
‘निपटना नहीं है क्या? जीजीबाई के राज में निपटे बगैर चाय तो क्या यहां पर कुछ भी नहीं मिलेगा।’ बेबी हंसते हुए बोली। मुझे फिर भी कुछ समझ में नहीं आया था पर गणपत ने मेरा हाथ पकड़ा और बोला, ‘चलो उठो .बाहर हो कर आते है।’ हम दोनों घर के बाहर आ गए। अब मुझे भी थोड़ी जल्दी हो रही थी। गणपत ने मेरे चेहरे के भाव से यह पहचान लिया था। ‘नेक ही दूर है। नेक ही दूर है।’ गणपत के मुंह से कई बार यह सुनने के बाद आखिर गांव के बाहर का तालाब आ ही गया। गणपत मुझसे बुन्देलखंडी में बोल रहा था पर मुझे सब समझ में आ रहा था। उसके बोलने में एक अलग ही भाषा की मिठास और अपनेपन का मुझे एहसास हो रहा था। रमणीय द्रष्य था। ऊँचा सतपुड़ा पहाड़ हरा दुशाला ओढ़े गर्व के साथ यहां खड़ा था। इतना खुबसूरत द्रष्य मैंने ग्वालियर उज्जैन या बुरहानपुर में देखा ही नहीं था। पहाड़ की तलहटी में ही एक बड़ा सा तालाब पूरे द्रश्य को और भी सुन्दरता प्रदान कर रहा था। पहाड़ के ठीक सामने पर तालाब के किनारे एक भोलेनाथ का छोटा सा मंदिर था। तालाब पर सुबह वैसी आवाजाही कम ही थी। प्रात:विधि निपटने हेतु आने जाने वाले इक्का दुक्का लोग ही नजर आ रहे थे।
‘सामने दूर ही दूर तक खुला जंगल ही जंगल है कहीं भी बैठों पर ज्यादा दूर नहीं जाना। बाद में तालाब में बहुत पानी है। तुम निपट लो मैं भी निपट कर आता हूं। मंदिर में तुम्हारा इन्तजार कर रहा हूं। ‘गणपत हंसते हुए बोला और मुझे छोड़ कर चला गया। अब तक मैं समझ चुका था कि मैं यहां क्यों लाया गया हूं। मुझे संकोच हो रहा था पर गणपत तो मुझे छोड़ कर कब का जा चुका था और शरीर के नियमों से किसे मुक्ति मिली है? अजीब है पेट की कहानी। भरना भी पड़ता है और खाली भी करना पड़ता है। मेरे सामने भी क्या रास्ता था? कई किन्तु-परन्तु के बाद मैं भी सतपुड़ा परबत का उद्धार करने निकल पड़ा।
आते समय मुझे थोड़ी जल्दी थी पर वापसी में मुझें हल्का हल्का लग रहा था। गणपत किसी जिगरी दोस्त की तरह मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझसे बातचीत करते बेफ्रिकी से चल रहा था। उसकी इस तरह की बेफ्रिकी और अपनापन मुझे उसकी ओर आकर्षित कर रहा था। आते हुए और वापस जाते वक्त भी उसने मुझसे मेरी सारी जानकारी हासिल कर ली। ग्वालियर में कौन कौन है? उज्जैन में कौन कौन है? उज्जैन से मैं बुरहानपुर क्यों आया? माँजी का और सुशीलाबाई का मेरे साथ व्यवहार कैसा है? ये दोनों माँ-बेटी मुझसे क्या क्या, कैसे कैसे कितना काम लेती है? दादा इनको कुछ कहते क्यों नहीं? ऐसी सारी जानकारी घर पहुचने तक गणपत मुझसे हासिल कर चुका था। इतने अपनेपन से मेरे कंधे पर हाथ रख कर मेरे साथ अपनेपन का बर्ताव कर मुझे बराबरी का दर्जा देने वाला गणपत मेरी जिन्दगी में पहला ही आदमी था। काकी, नानाजी और दादा के मन में मेरे लिए अपनत्व था फिर भी उनकी नजर में मैं एक छोटा बालक ही रहा। गणपत का यह अपनत्व का व्यवहार निश्चित ही मुझे उसकी ओर आकर्षित कर रहा था।
घर आते ही गणपत सीधे बाहर वाले कुएं पर चला गया। अन्दर जाते ही अब मुझे चाय जरुर मिलेगी इस उम्मीद के साथ मैंने आंगन में प्रवेश किया। दरवाजे के अन्दर मैं चार कदम भी नहीं रख पाया था कि सुशीलाबाई जोर से चिल्ला पड़ी, ‘अ…रे… अ..रे ! कहां आ रहे हो? वहीं ठहरो।’ मैं तो घबरा ही गया। उसी जगह मेरे कदम जैसे जडवत हो गए।
‘बाहर से आवाज नहीं दे सकते कि आ गए हो?’ सुशीलाबाई मुझे डांटते हुए बोली।
मैं कुछ भी नहीं बोला। मुझे तो यह समझ में ही नहीं आया कि यह भूकंप क्यों आया और मेरी क्या गलती थी? सुशीलाबाई ही फिर थोड़े जोर से बोली, ‘अरे, निपट कर आये हो ना? सब छुआछूत ले कर आये हो ना बाहर से? सब गंदगी ले कर सीधे घर में क्या चले आ रहे हो?’
मैं क्या बोलता? खामोश ही रहा।
‘जाओं सामने कुएं पर से नहा कर आओं।’ सुशीलाबाई मुझसे बोली। फिर बेबी की ओर मुड़ी, ‘बेबी दहलीज पर और अन्दर जहां-जहां इसके पांव पड़े है वहां चारों ओर पानी डालों। सब जगह भ्रष्ट कर दी है इसने।’ सुशीलाबाई का आज एक अलग ही रूप मुझे दिखा। मैं तुरंत उलटे पांव कुएं पर आया। गणपत वहां नहां रहां था। मुझे देख कर हंसने लगा। मेरा चेहरा रुआंसा हो गया था। गणपत ने दो बाल्टी पानी मेरे सर पर से डाल कर मुझे पूरा भिगो दिया। हंसते हुए बोला, ‘जीजीबाई के राज में पवित्रता सिर्फ पानी से ही आती है। अब तुम भी पवित्र हो चुके हो तुम अब अन्दर जा सकते हो।’ फिर हम दोनों अन्दर आ गए। गणपत सीधे ऊपर उसके कमरे में चला गया। मैंने अपने झोले मे से पंचा निकाला और बदन पोछ कर कपडे बदल लिए। थोड़ी देर बाद गणपत ऊपर के अपने कमरे से कपडे बदल कर आ गया। सफ़ेद झक्क प्रेस किया हुआ कड़क पाजामा और सफ़ेद झक्क प्रेस किया हुआ कड़क कुर्ता। काले रंग की जेकेट और सर पर सफ़ेद खादी की टोपी। पक्का किसी राजनैतिक दल का कोई बड़ा नेता लग रहा था। बेबी ने गणपत को और मुझे पीतल के गिलास में चाय दी। अब तक सुरेश भी हमारी आवाज से जग गया था। मैं मन ही मन खुश हुआ कि अब तालाब पर जाने की बारी सुरेश की है। देखे क्या होता है? किसके साथ जाता है? जाता भी है या यही अंदर संडास में उसे जाने देंगे ? मुझे क्या? कही भी जाय? बेबी गणपत से बोली, ऐ जी, बाळोबा को भी अपने साथ ले जाओ। थोडा गांव घूम लेगा। उसका दिल भी बहल जायेगा।’ सुशीलाबाई बगल में ही खड़ी थी इसलिए बेबी ने जान बूझ कर ये मराठी में कहकर गणपत से मजाक किया। गणपत भी कम नहीं था उसने सिर्फ गर्दन हिला दी। वैसे गणपत मराठी बोल नहीं पाता था पर समझने सब लगा था। फिर बेबी ने सुशीलाबाई से पूछा, ‘ऐ जीजी री, बाळोबा को इनके साथ बाहर भेज दें क्या? थोडा गांव घूम लेगा उतना ही उसे अच्छा लगेगा।’ सुशीलाबाई ने इजाजत दे दी पर गणपत से कहा, ‘खाने के समय तक घर आ जाना। और हां बताए देती हूं बाळ को बिगाड़ने की कोशिश भूल कर भी मत करना।’
गणपत ने फिर से सिर्फ गर्दन हिला दी और हम दोनों बाहर आ गए। गणपत सबसे पहले मुझे हलवाई के यहां ले कर आयाI वहां हम दोनों ने ताज़ी गरमागरम खोएं की जलेबियां खायी इसके बाद मूंग के बड़े खाए। गणपत ने दो स्पेशल चाय का भी आर्डर दिया। मेरे लिए तो यह दावत सुखद ही थी। मैं तो बिलकुल तृप्त सा हो गया।
चाय पीने के बाद गणपत ने खुद के लिए एक तम्बाकू वाला पान लगवाया। उसे मुंह में डाला और ऊपर से पानवाले से हाथ पर तम्बाकू और मांग ली। तम्बाकू पर चूना डाल कर थोड़ी देर उसे अंगूठे से मसलने के बाद वह तम्बाकू भी मुंह में एक तरफ डाल ली। इसके बाद एक सत्ताईस नंबर छाप बीडी का बण्डल और एक जहाज छाप माचिस भी खरीदी। बण्डल में से एक बीडी निकाल कर उसे सुलगाया। इसके बाद बीडी उलटी कर उसमें से थोडा धुआं निकाला उसके बाद बीडी सीधी कर पीने लगा। मुझे याद आया यह तो बिलकुल नानाजी वाला बीडी पीने का तरीका था। यह खयाल आते ही मुझे नानाजी की याद आई। कैसे होंगे नानाजी? कैसे होंगी मेरी काकी? क्या अब मैं उनसे कभी मिल भी पाउँगा या नहीं? मेरे पास मेरे ही मन में उठे इन सवालों का कोई जवाब ही नहीं था। मैं उदास हो गया। गणपत ने मेरा चेहरा देख कर यह अंदाज लगा लिया।मुझसे उसने पूछा, ‘क्या हुआ?’
आज सुबह से गणपत मेरे साथ था और उसके इस साथ के कारण आज ही मुझे इतने आश्चर्यजनक सुखद धक्के मिले थे कि गणपत कोई बहुत पुराना परिचित और घनिष्ट आत्मीय प्रतीत होने लगा था।खोएं की स्वादिष्ट जलेबी का स्वाद अभी भी मेरे मुंह में रस घोल रहा था।गणपत के इस व्यवहार के कारण मैं प्रभावित भी था और अभिभूत भी था। मन में सोचा गणपत पूछ रहा है तो उसे सब कुछ बता दूं। इसकी मदद से अगर मुझे सुशीलाबाई से मुक्ति मिल जाय और मुझे ग्वालियर नानाजी और काकी के पास जाने को मिल सका तो कितना अच्छा होगा ? फिर भी मुझे एक ही दिन की मुलाकात में सब कुछ गणपत को बताने में संकोच हो रहा था।
मेरी खामोशी देख कर गणपत ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर एक बार फिर पूछा, ‘क्या हुआ बोलो ना?’ गणपत के उस स्पर्श से मेरी तन्द्रा भंग हुई। आंखें भीग गयी। मेरे मुंह से निकला, ‘मुझे नानाजी की याद आ रही है।’ ‘बस इतनी सी बात? ‘गणपत हंस कर बोला, ‘हम जरुर मिलेंगे तुम्हारे नानाजी से। ऐसा करे क्या कि उनको ही यहां पथरिया बुला लेते है। कैसा रहेगा?’
मेरी समझ में ही नहीं आ रहा था कि यह गणपत नाम का आदमी इतनी जल्दी मेरे मन की सारी बातें कैसे पहचान लेता है? कही यह मुझे झूठी तस्सली तो नहीं दे रहा है? देने दो क्या फर्क पड़ता है? कम से कम यह मुझसे प्रेम से तो बातें कर रहा है। मेरे लिए तो इतना ही काफी था। मुझे तो गणपत का आधार सा लगने लगा। मुझे वह अपने सबसे नजदीक भी लगने लगा। बिन मांगे जो नाश्ता कराये, हमेशा कंधे पर हाथ रख अपनेपन से बात करे वह पराया कैसे हो सकता है ? पर गणपत नाम का यह आदमी तो कमाल ही था। वह नाश्ते तक और नानाजी को यहां पथरिया बुलाने तक ही नहीं रुका था। अब तक बाजार में और भी दुकानें खुल चुकी थी। गणपत मुझे कपडें की दूकान पर ले गया। मेरे लिए उसने एक हॉफपेंट और एक बढ़िया सा बुशर्ट ख़रीदा । फिर हम जूतों की दूकान पर गए। वहां उसने मेरे लिए जूते और जुर्राब ख़रीदे। यह सब क्या हो रहा है, मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। गणपत मुझे सुखद और आश्चर्यजनक धक्के पर धक्के दिए जा रहा था। गणपत की इतनी सारी मेहरबानी और अच्छा आत्मीय व्यवहार मेरे लिए अब एक पहेली बन गया था। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था पर इस परदेस में मुझे कोई सहारा तो चाहिए था और मेरी नजर में गणपत अब इस मामले में बहुत आगे बढ़ चुका। एक अच्छे सहारे के लिए गणपत मेरी एक उम्मीद बन चूका था। इतनी सारी मेरी आवभगत के बाद गणपत मुझे ग्राम पंचायत ले कर गया। उसे सप्ताह में दो बार लगने वाले हाट बाजार में पंचायत कर वसूली का ठेका मिला था। इसलिए वह बहुत खुश भी था। हर एक से वो मेरी पहचान करवा रहा था, ‘अपनी जीजीबाई के रिश्ते में है’ ऐसा सब को बता भी रहा था। लोग मेरी ओर बड़े आश्चर्य से देखते थे। पर इससे एक बात साफ़ हो गयी कि यहां सुशीलाबाई को जीजीबाई के नाम से गांव में सब जानते है।
ग्राम पंचायत के सारे काम निपटा कर गणपत मुझे राधेश्यामजी महाराज के आश्रम में ले गया। राधेश्याम महाराज से मिलकर और उनका आशीर्वाद ले कर गणपत मुझे उसके किसी मित्र के यहां ले कर गया। वहां का द्रष्य देखकर तो मुझे उज्जैन की याद आ गयी। वैसे ही बिछाईत। वैसी ही सफ़ेद झक्क चादरे बिछी हुई। यहां सिर्फ सब के टिकने के लिए सफ़ेद लोढ़ ज्यादा रखे थे। बीच में दो तीन ताश की गड्डियों के नए पेकेट रखे थे। ट्रे में एश ट्रे के साथ ही कुछ बीडी के बण्डल और माचिसे पड़ी थी। गणपत की मित्रमंडली पहले से ही लोढ़ से टिकी हुई वहां विराजमान थी। गणपत ने सबको हंसकर नमस्कार किया और खुद एक लोढ़ से टिककर बैठ गया। उसने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे भी अपने पास बिठा लिया। गणपत ने सबसे मेरा परिचय एक बार फिर जीजीबाई के रिश्ते में है यह कह कर कराया। एक बार फिर सबको आश्चर्य हुआ। फड़ तैयार था। ताश का खेल शुरू हो गया। सबने अपनी अपनी जेब से पैसे निकाल कर सामने रख लिए। मेरे लिए यह तीन पत्ती का खेल अब कोई नया नहीं था इसलिए मेरे मन में खेल के बारे में कोई ज्यादा उत्सुकता नहीं थी। अभी थोड़ी देर पहले ही गणपत मेरे लिए एक आदर्श बनने जा रहा था। मुझे आत्मीयता से भरपूर कोई सहारा नजर आने लगा था पर गणपत जुआ भी खेलता है यह मेरे लिए आश्चर्यजनक था। मतलब जुआ खेलना, बीडी पीना और ऊपर से तम्बाकू भी खाना। तीन तीन बुरी आदतें एक ही आदमी में। अब मुझे याद आया कि घर से निकलते वक्त सुशीलाबाई ने गणपत को चेताया था कि वह मुझे बिगाड़ने की कोशिश कतई न करें पर यहाँ तो सब कुछ गड़बड़ है। अब मैं क्या करू? मुझे यहां से निकलना चहिए।
मुझे काकी की याद आई। याद आया कि ग्वालियर में एक बार किसी विषय के निकलने पर काकी ने नानाजी से कहा था, ‘दामादजी, ऐसे हार मान कर मत बैठो। जुआ न खेलते हुए भी आप सब कुछ हार कर बैठों हो यह सोच ही गलत है। सच तो यह है कि हारने के लिए जुआ ही खेलने की जरुरत नहीं होती। जिन्दगी भी एक जुगार ही है। अब मुझे ही देखिए। मैं क्या जुआ खेलती हूं ? फिर भी आवडे के पिता को, आवडे को, और अक्का को हार ही बैठी ना? मेरा तो यही सब कुछ था। और जब मेरी शादी हुई तब मुझे यह कहां मालूम था कि मैं आवडे को जन्म दूंगी, आवडे अक्का को जन्म देगी और यही सब कुछ मेरा भी सर्वस्व बन जाएगा। मुझे तो यह भी कहां मालूम था कि पहले मैं अपने पति को हार बैठूंगी, बाद में अपनी बेटी को और बाद में अपनी लाडली नाती को भी। अब किस के सहारे जिऊं? सच तो यह हैं कि अनिश्चितताओं का खेल ही तो हैं जिन्दगी। खिलाने वाले भी रामजी, जिताने वाले भी रामजी और बाजी पलटने वाले भी रामजी। हम चाहे पैसों के साथ खेले, आदमियों के साथ खेले, भावनाओं के साथ खेले, या समय के साथ खेले, ज्यादा हुआ तो ताश के पत्तों के साथ खेले। अनिश्चितता हमारा पीछा नहीं छोडती। दामादजी, मैं तो कहती हूं हमें अनिश्चितताओं के साथ भी अभ्यस्त हो जाना चाहिए तभी हम परिस्थितयों को मात दे कर संकटों का सामना कर सकते हैI’
नानाजी की वेदनाओं को काकी के अनुभव के बोल कुछ कम कर पाए या नहीं ये मुझे पता नहीं। और आज भी काकी के कहे अनुसार परिस्थितियों का और अनिश्चितताओं का आकलन करना मेरे लिए संभव ही नहीं था पर यहां इस फड़ पर बैठा मैं निश्चित ही रुकूं या जाऊं की दुविधा में घिरा था। ये गणपत भी कमाल का आदमी है मेरे मन की बात जाने कैसे इसे पता पड़ जाती है? मुझसे बोला, ‘घर जाना है ना? ठहरो थोड़ी देर किसी के साथ तुम्हें घर भिजवाता हूं।’
जुआ खेलने वाली गणपत की मित्र मण्डली, हंसी ठिठोली के साथ सभी का बिना किसी लिहाज और संकोच के ठेठ बुन्देलखंडी में उद्धार किए जा रही थी।
‘कल तो तू ढाई हजार रुपये जीता था। तेरे तो मजे ही मजे है। क्या किया पैसों का?’ गणपत के एक मित्र ने गणपत से पूछा। ‘हजार रुपये तुम्हारी भाभी को दिए। जीतने की ख़ुशी में पचास रुपये इस बालक पर खर्च कर दिए और बचे हुए यहां लाया हूं। हो गया पूरा हिसाब या और चाहिए?’ गणपत बोला, ‘मेरे ऊपर बहुत कर्जा है यार। किसी का सहारा भी नहीं। कैसे चुकाऊंगा यही सोच कर दिन रात परेशान रहता हूं।’
‘कमाल है?’ अब एक दूसरा मित्र बोला, ‘अरे, तुम जागीरदार लक्ष्मीबाई के दामाद हो। तुम्हें क्या कमी है? आखिर सभी खेती की जमीन, सारे मकान, सोना चांदी सब तुम्हारे ही लिए तो है और हां तुम्हारे जरिए हमारे लिए भी है। आखिर लक्ष्मीबाई को भी तुम्हारे सिवाय किसका आसरा है?’ सारे दोस्त हंसने लगे।
‘अरे व्वा! ऐसा कैसे कह सकते हो तुम?’ अब एक और मित्र बोला, ‘लक्ष्मीबाई की लड़की वो पगली सुशीलाबाई है ना? उसीकी तो सारी जायदाद है। गणपत का क्या है? कुछ भी नहीं।’ फिर हंसते हुए बोला, ‘हां अब ये बात और है कि गणपत पहले ही सब बेच बेच कर अपना हिस्सा वसूल कर रहा है।’
‘ठीक है ना क्या फर्क पड़ता है? पहले बेचा क्या और बाद में बेचा क्या बात तो बराबर ही है।’ गणपत का एक और मित्र बोला, ‘गणपत का क्या? मिला तो मिला नहीं मिला तो जय राधेश्यामजी की। इसलिए पहले ही सब बेचना ज्यादा होशियारी नहीं है क्या? और वो भी माँ-बेटी को भनक भी न लगने दे कर।’
अब सब जोर जोर से हंसने लगे। गणपत नाराज हो गया। हाथ के पत्ते फेंक कर बोला, ‘तुम सब चुपचाप खेलोगे या नहीं? नहीं तो मैं ये जा रहा हूं।’ सब ने अपने मुंह पर उंगली रख ली। फिर उनमें से एक बोला, ‘सब मुंह पर उंगली रख लो। कोई गणपत से कुछ नहीं पूछेगा नाही गणपत को कोई कुछ कहेगा। इसका कोई भरोसा नहीं है। कल बड़ी रकम जीता है आज वैसे ही निकल जाएगा। पर गणपत मैं कहता हूं वों सुशीलाबाई तो पगली है ना? और उसका ब्याह भी कहां हुआ है? जिन्दगी भर उसको सम्हाल लो। बस हो गया। फिर सब कुछ तुम्हारा ही तो है?’
अब गणपत गंभीर हो गया। बोला, ‘नही रे, ऐसा कुछ भी नहीं हैI वो जीजीबाई ब्याह रचाने जा रही है।’ ‘क्या …?’ सब के मुंह से एक साथ निकल पड़ा।
‘यही तो सबसे बड़ा पेंच हो गया है।’ गणपत मेरी ओर देखकर बोला। सुशीलाबाई को इस तरह पगली कहना मुझे कतई अच्छा नहीं लगा और सुशीलाबाई के ब्याह रचाने से गणपत को क्या तकलीफ हो सकती है यह भी मुझे ठीक से समझ में नहीं आया।परन्तु सुशीलाबाई की सारी जायदाद पर गणपत आंखें गडाए बैठा है यह जरुर आज पता पड़ा। क्या इसीलिए गणपत सुबह से मेरे साथ इतना अच्छा बर्ताव कर रहा है? पर इन सब बातों से मेरा क्या लेना देना? यही सोच कर मैंने अपने मन को समझाया और वैसे भी मेरे करने को कुछ था ही नहीं। -‘क्या कह रहे हो?’ एक और मित्र बोल पडा, ‘पर जीजीबाई किससे ब्याह रचाने जा रही है? कहां का है लड़का? और इस उम्र में यह पगली किस को भा गयी?’
सवालों की झड़ी सी लग गयी। खेल थोड़ी देर रुक गया। गणपत ने फिर से एक बार मेरी ओर देखा फिर बोला, ‘तनिक ठहरों। सब बताता हूं’ फिर गणपत ने अपने एक मित्र को अधूरे खेल में से ही उठाया और मुझे घर छोड़ कर आने को कहां। दोपहर के खाने के वक्त मैं घर आ गया था। घर पर सब मेरी राह ही देख रहे थे। मेरे हाथ में नए कपडे और नए जूते मोज़े देखकर सब को आश्चर्य हुआ। ‘ये किसने ले कर दिए?’ सुशीलाबाई ने पूछाI
मैंने गणपत का नाम बताया। अब के माँजी भड़क गयी, ‘क्या जरुरत थी नए कपडे और नए जूते मोज़े लेने की? खुद को कुछ काम ना धाम। किया होगा कहीं कर्जा? या बेचा होगा कुछ? या गिरवी रखा होगा कुछ? हम है ही सब छुडवाने को। बार-बार वो ही रामायण। इस गणपत ने नांक में दम कर रखा है।’ अब माँजी बेबी की ओर मुड गयी, ‘अरे बेबी, तुझे कुछ अकल है कि नहीं? तुझे नहीं समझता क्या कुछ? अरे चार पैसे जोड़ना सीखो। मैं कितने दिन पूरी पडूंगी? सुशीला खुद नौकरी कर के तुम्हारी गृहस्थी की गाडी भी खींच रही है। खाद बीज के पैसे भी वही दे? सुशीला क्या क्या करेगी? और कितने दिन करेगी? गणपत के कर्ज और जुए के कारण घर का सारा सोना चला गया। तुम्हें अभी भी कुछ समझ में नहीं आता क्या? आखिर तुम्हारी भी तो बाल-बच्चों की गृहस्थी है? ऐसे कैसे चलेगा?’ बेबी ने अपनी सफाई दी, ‘मौसी मुझे क्या मालूम कि ये दोनों बाजार में क्या करने वाले है? बाळोबा ने ही कुछ जिद की होगी?’ बेबी ने सारा मुझ पर ढोल दिया।
अब सुशीलाबाई बीच में ही बोल पड़ी, ‘बाळ ऐसा नहीं है। मैं उसे अच्छे से पहचानती हूं वो ऐसा कतई नहीं कर सकता। पर सवाल ये है कि गणपत के पास इतने रुपये आये कहां से?’
सुशीलाबाई के इस सवाल का जवाब मेरे पास था पर खामोश रहने में ही भलाई थी। वैसे भी गणपत ने मेरे लिए ही रुपये खर्च किये थे। यह प्रसंग और परिस्थिति मैंने सम्हाल ली ऐसी मुझे थोड़ी देर के लिए ग़लतफ़हमी हो गयी। हमारा दोपहर तो दोपहर रात का भी खाना हो गया हमारे सोने का भी समय हो गया तो भी गणपत का कही पता ही नहीं था।
आज दिनभर जो कुछ भी हुआ उससे गणपत मुझे मेरे सबसे करीब लगने लगा। विशेष कर मेरा और उसका उद्देश्य भी एक ही है यह भी मेरे ध्यान में आ गया। मैं सिर्फ यह चाहता था कि सुशीलाबाई हमारे दादा से विवाह न करे पर गणपत तो यह चाहता था कि सुशीलाबाई किसी से भी कभी भी ब्याह ना करे। सुशीलाबाई दादा से ब्याह करने वाली है इसलिए मुझे माँजी और सुशीलाबाई अच्छी नहीं लगती थी। गणपत को भी इसी कारण माँ-बेटी पसंद नहीं थी। कितना साम्य था हम दोनों की सोच में? सुरेश का तो इस बारे में कोई विचार ही नहीं था। वो तो मुझसे यह कह कर अलग हो गया था कि, ‘दादा शादी करे या न करे मुझे उससे कुछ भी लेना देना नहींI मुझे तो जहां दादा कहेंगे वहां रहना ही पड़ेगा।’ पर मैं इस बात के लिए तैयार नहीं था। सुशीलाबाई ब्याह कर दादा के साथ रहने वाली होंगी तो मैं दादा को भी छोड़ने को तैयार था। पर जाऊंगा कहा? मुझे लगा कि गणपत मेरे काम का आदमी हो सकता है और वह मेरी इस बाबत कुछ मदत भी कर सकता है। गणपत ही मुझे ग्वालियर नानाजी और काकी के पास भिजवा भी सकता है। अब तय रहा कि गणपत का कहा मानना और बेबी गणपत की पत्नी है इसलिए उसका भी कहा मानना। इसके बाद ही मुझे रात को नींद आई।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – २७ में


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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