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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २०

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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कुछ दिनों तक सब कुछ सामान्य रहा। वो एक रविवार का दिन था। दादा को भी छुट्टी थी। सब का नहाना हो गया और दादा का पूजापाठ भी हो गया। फिर हम सब रतन मारवाड़ी भोजनालय में खाना खाकर भी आ गये। दादा की कुछ देर दोपहर की विश्रांति भी हो गयी। हम बच्चें नीचे आंगन में खेल रहे थे। लगभग चार बजे होंगे दादा ने सुरेश को ऊपर से ही आवाज लगाई। मैं भी सुरेश के साथ ऊपर गया। दादा ने सुरेश को कुछ रुपये देकर बाजार से दो बर्कले छाप सिगरेट के पेकेट और साथ में एक माचिस लाने को भी कहा। मैं घर पर ही ठहर गया। दादा ने बाहर के कमरे में दो दरियां और उन पर दो सफ़ेद चद्दरें बिछायी हुई थी। मैं सोचने लगा कि अभी तो सोने का समय ही नहीं है फिर दादा ने यह बिछाईत क्यों भला कर के रखी है? मुझे समझ में नहीं आ रहा था। जल्द ही सुरेश भी सिगरेट के पेकेट और माचिस ले कर आगया। दादा ने पेकेट में से एक सिगारेट निकाली व उसे जला कर गेलेरी में कुर्सी पर बैठे बैठे कश लेने लगे। शायद वे किसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। थोड़ी ही देर में दो लोग आए। दादा ने उनका हंस कर स्वागत किया। सुरेश से शायद उनका परिचय था क्योंकि आते ही बराबर उन्होंने सुरेश की पीठ पर से हाथ फेर कर पूछा, ‘कैसे हो सुरेश?’ इसके बाद तीन और लोग आए फिर सब लोग गोल घेरा बना कर बिछाईत पर बैठ गए। दादा ने अलमारी में से एक ताश की गड्डी निकाली और वे भी बैठ गए। इसके बाद सब ने अपनी अपनी जेब से रुपये निकाल कर अपने अपने सामने रख लिए। उनमें से एक ने ताश की गड्डी लेकर फेंटना शुरू किया इसके बाद उसने सब को तीन तीन पत्ते बांटे और शुरू हुआ खेल पत्तों का और पैसों का भी।
दादा सिगरेट पीते है यह मुझे यहां आने के बाद ही पता पड गया था। मुझे घर में बर्कले, सीजर, के बहुत सारे खाली टिन के गोल डिब्बे दिखाई दिए थे। एशट्रे भी दिखाई दी थी जिसमें सिगरेट की राख और अधजले टुकड़े पड़े थे। पर इतनी बेफ्रिकी के साथ सिगरेट पीते हुए दादा को मैंने पहली बार ही देखा था। वैसे तो मैंने नानाजी को भी बीडी पीते हुए देखा है और काकी के कहे अनुसार बीडी सिगरेट पीना भले ही अच्छी आदत ना हो पर फिर भी किसी को सिर्फ इसी वजह से बुरा समझने का कोई कारण नहीं होना चाहिए। छोटे क्या और बड़े क्या सब ताश खेलते है यह भी मुझे मालूम था पर रुपयों के साथ पत्तों का खेल मैं पहली बार ही देख रहा था। सुरेश कह रहा था,’ रुपयों के साथ खेलने को जुगार कहते है। काकी ने एक बार मुझे पांडवों के जुगार खेलने की कहानी सुनाई थी जिसमें युधिष्टर अपना सब कुछ जुए में हार बैठते है। मतलब जुआ खेलना ये तो बुरी आदत ही है और यह भी कि दादा भी जुआ खेल रहे है यह मुझे कतई अच्छा नहीं लगा।
अब काकी ने तो मुझे इतना ही बताया था कि बीडी सिगरेट पीने से कोई आदमी बुरा नहीं कहलाता पर यहां तो दादा को दो दो बुरी आदतें है। मुझे क्या करना चाहिए इससे बढ़ कर मुझे अगले ही पल इस बात का एहसास हो गया कि मैं कुछ भी नहीं कर सकता। वैसे भी हमारे रिश्ते जन्म से भले ही जुड़े हो परन्तु जान पहचान को तो अभी कुछ ही दिन हुए है। वैसे भी मेरी सुरेश और दादा से ज्यादा बोलचाल थी ही नहीं, और इन सब में यह कि मैं सबसे छोटा था। मेरे ध्यान में यह भी आया कि काकी क्या और नानाजी क्या ग्वालियर में सभी मुझे यहां उज्जैन में दादा के पास भेजने के लिए चिंतित थे और उसके लिए वें कितनी कोशिशें कर चुके थे। काकी तो दादा के मकान को ही मेरे अधिकार का घर बताती और यह भी बताती कि मेरा लालन पालन करना सर्वस्वी दादा की जिम्मेदारी है और अगर मुझे बड़ा और समझदार होना हो यह सब दादा के पास रहकर ही हो सकता है। काकी ने मुझे यह भी बताया था कि दादा को छोड़ कर कही और रहना या जाने का विचार भी मुझे अपने मन नहीं लाना चाहिए चाहे कितने भी कष्ट दादा के साथ रहते हुए मुझे हो। वैसे मेरे मन में कही और जाने का विचार आएगा ही क्यों? दादा को छोड़ कर भला मैं कहाँ जाऊंगा? इतने सारे विचार मंथन के बाद मेरा मन शांत हुआ। काकी के शब्द बार बार मेरे मन में गूंज रहे थे, ‘आदते खराब हो सकती हैं, इंसान बुरा नहीं होता और मूल रूप में अच्छा ही होता है। सब भूल कर मैं ताश का खेल देखने लगा। उस दिन ताश का खेल देखते हुए मेरा परिचय कई नामों से पहली बार हुआ। फ्लेश, तीन पत्ती, ब्लाइंड, ओपन, कलर, ट्रेल, सिक्वेंस, पेयर, आदि नामों से तो हुआ ही पर इनके साथ कुछ और लोगों के नाम भी पता पड़े। उनमें से एक नाम था राजाभाऊ। सुरेश ने बताया कि राजाभाऊ ठीक सामने ही रहते है। मतलब महाकाल मंदिर के ठीक सामने कोने वाला मकान उन्हीं का है। नीचे उन्होंने सडक पर एक चाय वाले को और एक पान वाले को ऐसी दो दुकाने किराये से दे रखी है। शेष भाग में वे रहते है। अन्य लोगों में एक नाम मल्होत्राजी का और एक नाम शर्माजी का था। ये दोनों दादा के साथ ही बैंक में थे। दो तीन लोग और भी थे। उस दिन मुझ यह भी पता पडा कि दादा को सब बड़ेबाबू के नाम से बुलाते है। क्योंकि आज दादा के लिए सब ने यहीं संबोधन किया था सिवाय राजाभाऊ के। ताश के खेल में मुझे और सुरेश को कोई भी रस नहीं था इसलिए बड़ी देर तक हम नीचे खेलते रहे। दियाबाती के बाद खेर चाची के यहां हरी के साथ खेलते रहे। आठ बज गए तो भी ऊपर ताश का खेल ख़त्म नहीं हुआ था। भूख के मारे मेरा और सुरेश का बुरा हाल हो रहा था। मुझे तो खैर कुछ संकोच था पर सुरेश ऊपर दादा के सामने जल्दी खेल ख़त्म करने की जिद करने लगा।’ दादा जल्दी उठों न हमें ज़ोरों की भूख लगी है’ की सुरेश ने रट सी लगाए रखी थी और दादा यही कहते जा रहे थे, ‘बस दो मिनिट और।’ आखिर में रात साढ़े नौ बजे दादा के दो मिनिट पूरे हुए। सब लोग अपने अपने घरों को गए। राजाभाऊ जरुर हमारे साथ थे। निकलते-निकलते बहुत देर हो गयी थी इसलिए हम सब जल्दी जल्दी रतन मारवाड़ी भोजनालय पहुचे। पर रात्री के दस बज चुके थे और वहां खाने के लिए कुछ भी नहीं बचा था। फिर हम सब एक दो जगह और गए पर कहीं भी खाना नहीं मिला। आखिर में एक जगह हलवाई की दुकान पर हम सब ने समोसे कचोडी खा कर अपनी क्षुधा शांत की। इसके बाद मिटटी के कुल्हड़ में गरमा-गरम दूध पिया। मिटटी की सौंधी महक वाला मीठा दूध मुझे बहुत अच्छा लगा पर आज दिन भर एक अलग ही अनुभव विश्व से मेरा सामना हुआ।
राजाभाऊ भी हमारे साथ ही हमारे घर आ गए। सुरेश ने मुझे बताया ही था कि वें दादा के बहुत पक्के दोस्त है। रात देर तक दोनों मित्रों में गपशप जारी थी। वैसे भी उनका मकान सामने ही होने से उन्हें कही दूर तो जाना नहीं था और उन्हें जाने की जल्दी भी नहीं थी। दादा ने हम दोनों के लिए बिस्तर बिछा दिये थे। सुरेश तो जल्द ही गहरी नींद में सो गया पर मेरी आंखों से नींद शायद दूर थी। बहुत कोशिश के बाद भी मैं सो नहीं पा रहा था। आज दिन भर जो देखा उसी के बारे में मैं विचार करता रहा। फिर मुझे ग्वालियर की याद आई और मन ज्यादा ही बेचैन हो गया। हम दोनों को नींद में समझ दादा ने बत्ती बुझाई और दोनों मित्र गेलेरी में सिगरेट सुलगाएं बड़ी देर तक बातें करते रहे। मुझे नींद नहीं आने से मैं करवटें बदलता रहा पर मुझे दादा की और राजाभाऊ की बातें स्पष्ट सुनाई दे रही थी।

‘आज कुछ ज्यादा ही हार बैठे। हर बार हार जाते हों। ऐसे कैसे और कितने दिन चलेगा?’ राजाभाऊ बोले। ‘जान बूझ कर हारता हूं। हारने की आदत लगा ली है। औरों को जिताने का प्रण सा कर लिया है इसीलिए हारता हूं। हो गया? ‘दादा बोले। ‘ठीक है। आप साक्षात् त्याग की मूर्ति हो। लोगों को मदत करने का अच्छा तरीका खोज निकाला है तुमने। पर फिर इतनी झुंझलाहट और चिडचिडाहट क्यों?’ राजाभाऊ बोले।
‘फिर क्या करू? जुए में हारना और जिन्दगी में भी हारना। हमें बस इतना ही मालूम है। असफलता और हार मेरी पांचवी में पूजी हुई है। हमेशा असफलता और हार का पहाड़ा। तुम्हारे जैसा सुखी संसार नहीं है मेरा।’ दादा बोले, ‘इन दो बच्चों को मेरे गले बांध कर शालिनी हम सब को छोड़ कर इस संसार से चली गयी। क्या बिगाड़ा था मैंने शालिनी का? उसका ही क्या मैंने तो किसी का कभी कुछ भी नहीं बिगाड़ा। हम दोनों का संसार था पर उसे मुक्ति मिल गयी फिर यह सजा मुझे अकेले को ही क्यों? अब क्या होगा बाळ-सुरेश का और क्या होगा मेरा? कैसे सम्हालूं मैं इन दोनों को? सभी अधूरा है। और हाँ जिन्दगी भर क्या मैं ऐसे ही प्यासा और सूखा ही रहूंगा?’ ‘एक बार फिर से शादी कर लो।’ राजाभाऊ बोले।
‘ये तुम कह रहे हो?’ दादा बोले, ‘शालिनी के जाने के बाद मैंने तुम्हें किसी के साथ मेरे एक और प्रेम का इजहार किया था। वह मुझे बेहद पसंद थी और उस खूबसूरत के लिए मेरे मन में असाक्ति थी। मेरा मन उसे पाने के लिए हमेशा व्याकुल रहता। ख़ास कर शालिनी के जाने के बाद मेरे एकाकी जीवन में मैं उसका आसरा ढूंढने लगा था और उसे इसी नजर से देखने भी लगा था। हमेशा उसी के विचारों में खोया रहता। पर मेरा प्रेम इकतरफा था। उसका मुझ पर प्रेम नहीं था। मेरा प्रेम भंग जरुर हुआ पर वह तुझे बहुत मानती थी। मेरे कई बार कहने के बावजूद भी तूने उसके साथ मेरे लिए कोई बात तक नहीं की। यहीं हमारी दोस्ती?’
‘वह मेरे लिए सम्भव ही नहीं था। अरे तेरे से कितनी बार कह चुका हूं कि बिना किसी को बताये वह अपने प्रेमी के साथ मंदिर में सात फेरे ले चुकी थी। अलबत्ता यह तुझे तब मालूम ही नहीं था इसलिए तू मुझसे नाराज सा रहने लगा था। सब के सामने उनकी शादी तो बहुत बाद में हुई है।’ राजाभाऊ बोल रहे थे।
हां। पर सब जानते बुझते भी तूने ही मेरा दूसरा विवाह जबरन करवाया एक अनजान लड़की से और उसका प्रेम किसी तीसरे से ही था। याद है ना? दो दिन में ही सुरेश को घर में बंद कर और बाहर से कुण्डी लगाकर, मुझे कुछ भी बताए बिना अपने प्रेमी के साथ नौ दो ग्यारह हो गयी। बिना किसी वजह के मेरी कितनी बदनामी हुई। तुम्हें क्या फर्क पड़ा? तुम्हारे बहुत पीछे पड़ने के कारण मेरे बच्चों को सम्हालने के लिए माँ मिलेगी यही सोच कर न चाहते हुए भी मैं दूसरा विवाह करने को अनिच्छा से तैयार हुआ था। पर गधे, तुम अगर पहले ही उसके बारे में पूरी मालूमात कर जानकारी ले लेते तो मैं इस तरह मुंह के बल नहीं गिरता। सब फजीहत तुम्हारे कारण हुई और अब मुझे तीसरा विवाह करने के लिए कह रहे हो? एक बार मेरी शादी करवा चुके हो वह काफी नहीं है क्या?’ दादा बोलते जा रहे थे। अन्दर मुझे सब सुनाई दे रहा था। ‘सच में मुझसे बड़ी भूल हुई।’ राजाभाऊ बोले, ‘पर तुम्हारे आदरणीय पिताश्री मेरे कितने पीछे पड़े थे तुम्हें मालूम है न? और उन्होंने ही तो लड़की पसंद की थी। उन्होंने ही तो तुम्हें जबरन भोले पर चढ़ाया। मेरा कसूर सिर्फ इतना ही है कि उस लड़की के पिता मेरे परिचित थे। पर वें कोई मेरे रिश्तेदार नहीं थे। सिर्फ उनके रेलवे में होने के कारण हमारी पहचान थी पर वें सब यहां उज्जैन में तो रहते नहीं थे। वें सब रहते थे रतलाम में इसीलिए सही जानकारी हासिल नहीं कर पाए और ना ही लड़की के प्रेमप्रसंग की किसी को भनक ही पड पायी।’ ‘अरे,लेकिन मेरी तो जिन्दगी बर्बाद हो गयी। एक मर गयी दूसरी भाग गयी।’ दादा बोले, ‘दूसरी तो मुर्ख ही निकली। जितना साहस उसने शादी के दो दिन बाद अपने प्रेमी के साथ भाग जाने में दिखाया उतना साहस शादी के पहले अपने पिता के सामने दिखाती तो उसे और मुझे इतनी परेशानी नहीं झेलनी पड़ती और नाही उसकी और मेरी बदनामी होती और ना ही उसके माँ बाप को यूं मुंह छुपाना पड़ता। कम से कम मुझे ही किसी तरह खबर करवा देती तो मैं खुद ही पीछे हट जाता और उसकी शादी उसके प्रेमी के साथ करवा देता। आखिर दो निष्पाप और निस्वार्थ प्रेम करने वालों के बीच में कोई क्यों पड़े? यह उसके माँ-बाप को भी पता होना चाहिए था?’ दादा बोले जा रहे थे। मेरे कानों में दोनों के सिर्फ शब्द पड रहे थे। मेरे लिए बहुत कुछ ना समझने जैसा ही था पर बोलने के अंदाज से मुझे सिर्फ इतना समझ में आ रहा था दादा बहुत कष्ट में है। उनकी तकलीफ मेरे कारण नहीं थी। उन्हें जो वेदनाएं थी उसकी मीमांसा या विश्लेषण करने की या टिका टिपण्णी करने की मेरी उम्र भी नहीं थी और इतनी समझ भी नहीं थी और ना ही इसका किसी ने मुझे कोई अधिकार ही दिया था। इसलिए मुझे बिस्तरे पर लेटेलेटे मेरे कानों में सिर्फ शब्दों को पड़ने देना था, पर यह निश्चित था कि इन दोनों के वार्तालाप ने मेरी नींद उड़ा दी थी। ‘सारा सच तो बाद में ही सबकों पता पड़ा।’ राजाभाऊ कह रहे थे, ‘उस लड़की का किसी कायस्थ लड़के से प्रेम था। दोनों ने किसी को ज़रा सी भी भनक तक नहीं लगने दी थी और मंदिर में चुपके से शादी कर ली थी। दोनों अलग-अलग जाती से होने के कारण दोनों ने अपने अपने घर वालों से ये बात छुपा कर रखी। लड़की का बाप बहुत गुस्सैल था और लड़की के तो बोल भी अपने बाप के सामने नहीं निकलते। घर वालों के और समाज के डर के कारण ही लड़की शादी तक किसी के सामने कुछ भी नहीं बोल पायी हो।’ ‘बेचारी! मुझे उसकी दया आती है।’ दादा बोले, ‘परन्तु कुछ भी संबंध न होने के बावजूद मुझे कितनी परेशानी हुई? पहली मर गयी, दूसरी छोड़ गयीI मेरे ही नसीब में ही ऐसा क्यों?’
‘नियति! दुर्भाग्य और निमित्त भी।’ राजाभाऊ बोले।
‘मतलब ?’ दादा ने पूछा।
‘पंढरी, दुर्भाग्य इसलिए कि तुम्हारे हिस्से संकट, दु:ख, वेदना और संताप आया। तुम्हारे अकेले के ऊपर दो बच्चों की ठीक से देखभाल करने की जिम्मेदारी आ गयी। पर बच्चों की जवाबदारी तो वैसे भी तुम्हारी ही थी आखिर वें तुम्हारें ही बच्चें है। हां इतना जरूर है कि तुम्हारा पहला प्यार तुम्हें नहीं मिल पाया। उस पहले असफल प्यार की आग ने तुम्हें झुलसा दिया। यह तुम्हारी पहली शादी के लिए निमित्त बना। बच्चें निमित्त बने दूसरी शादी के लिए। इसके बाद जिस इकतरफा प्यार के लिये तुम्हारे मन में आसक्ति थी उसका तुम्हारे ऊपर तनिक भी प्रेम नहीं था इसलिए वह अपनी शादी करके तुम्हारे जीवन से ही चली गयी। जिस शारीरिक आकर्षण को तुम प्रेम बता रहे थे वह सच्चा प्यार था ही नहीं, और क्षणिक आवेग के कारण उसमें तुम्हें सफलता नहीं मिली। यह सब तुम्हारा दुर्भाग्य।’ राजाभाऊ लगातार बोले जा रहे थे, ‘और अब निमित्त यह है कि इन दोनों बच्चों की देखभाल तुम्हारे ही हाथों से हो यह महाकाल की इच्छा। इस ईश्वरीय इच्छा को समझो। अब नियति यह है कि तुम्हें तुम्हारा पहला प्रेम वापस मिल सके इसीलिए ही तुम्हारे जिन्दगी से तुम्हारी दो पत्नियां तुम्हे छोड़ कर चली गयी, तुम्हें मुक्त कर गयी, तुम्हारी राह आसान कर गयी। अब एक ही रास्ता। इस बार मैं तुम्हें सुशीला से शादी करने की सलाह दे रहां हूं। कानपूर में कॉलेज के समय से ही तुम दोनों में प्यार रहा है। कौन जाने अब वो अधूरा प्रेम शायद अपने पूर्णत्व की ओर अग्रसर हो। सुशीला के साथ विवाह बंधन में बंधने से तुम्हारी जिन्दगी को नया आधार मिलेगा और बच्चों की भी देखभाल ठीक से हो सकेगी।’
‘वो अब संभव नहीं। मेरे लिए भी और सुशीला के लिए भी।’ दादा बोले।
‘पर इस रंगमंच पर पात्र नहीं बदले, प्रेम नहीं बदला, भावनाएं नहीं बदली, आकर्षण नहीं बदला, जरूरतें नहीं बदली है। परिस्थिति ने दोनों को फिर से वही लाकर खडा कर दिया है जहां से सफ़र की शुरवात होनी थी। फिर से शुरू हो जीवन का सफ़र और क्या चाहिए शादी करने के लिए?’ राजाभाऊ दादा से मालूम नही क्या क्या पूछ रहे थे।
‘नहीं, नहीं अब यह कतई संभव नहीं। मेरे लिए भी और सुशीला के लिए भी। मेरे बुरे दिन ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहे है। अब मेरे दुर्भाग्य का साया सुशीला के ऊपर नही पड़ना चाहिए और तीसरे विवाह का कलंक भी नहीं चाहिए मुझे। एक बार बच्चें बड़े और समझदार हो जाय तो गंगा नहा लिए। मेरा मैं देख लूंगा क्या करना है? जो होना हो सो हो पर अब तुम मुझे शादी के लिए फिर से मत कहो। मेरे लिए यह विषय सदा के लिए यही खत्म समझों।’
‘जब तक जिन्दगी है तब तक कुछ भी खत्म नहीं होता।’ राजाभाऊ बोले, ‘कल की डगर आसान नहीं होगी तुम्हारे लिए। कल कदम कदम पर तुम्हें साथी की जरुरत होगी। उस वक्त अकेलेपन का एक एक पल जिन्दगी को बोझिल कर देगा। इसलिए कह रहा हूं कि सुशीला के साथ विवाह करने का फिर से एकबार विचार करने में हर्ज क्या है?’
‘राजाभाऊ, तुम्हें नहीं समझेगा। ‘दादा बोले,’ अब समय निकल गया है। बड़ी विचित्र परिस्थितियों से हम दोनों गुजर रहे है। कोई भी निर्णय लेना इतना आसान नहीं रह गया है अब। मेरे लिए भी और सुशीला के लिए भी। मैं अपने स्वार्थ के लिये दो बच्चों का बोझ उस पर नहीं लाद सकता। इसके अलावा, मेरे बच्चों के लिए और समाज के लिए मैं अपने बच्चों को सौतेली माँ कैसे क्या दे सकता हूं? और तुम तो यह भी अच्छी तरह से जानते हो कि पिछले कई सालों से सुशीला की मानसिक स्थिति अच्छी नहीं रही है। उसका इलाज भी चल रहा था। उसकी ऐसी हालत में उससे गृहस्थी का और बच्चों का बोझा नहीं सम्हल पायेगा। यही डर मुझे उसके साथ विवाह का निर्णय नहीं लेने देती।’ ‘चिंता मत करों सब ठीक हो जाएगा। हम सुशीला को इंदौर में किसी अच्छे डॉक्टर को दिखायेंगे। प्रेम करते हो ना सुशीला से? फिर यह सब तो झेलना ही पडेगा। ‘राजाभाऊ बोले,’ अच्छा अब मुझे स्टेशन पर निकलना चाहिए।आज रात पाली है। सुशीला के बारे में बाद में बात करेंगे। मैं हूं तुम्हारे साथ चिंता मत करो। सब ठीक होगाI अच्छा मैं निकलता हूं।’ स्टेशन मास्टर राजाभाऊ स्टेशन निकल गए। दादा ने कुर्सियां अंदर रखी, मटके में से एक गिलास पानी लेकर पिया और अपनी जगह पर आकर सो गए।

छोटा जरुर था पर राजाभाऊ और दादा की कल रात की बातें मेरे मन से दूसरे दिन भी जा नहीं पा रही थी। मेरे लिए सुरेश भी नया ही था। उसे भी कुछ बता नहीं पा रहा था और वैसे भी हो सकता है उसे सब जानकारी हो पर रात की दोनों की बातें सुनकर मुझे इतना भर समझ में आया कि दादा ने एक और विवाह किया था और वह उन्हें छोड़ कर चली गयी। मुश्किल की घड़ियां क्या होती है अब यह धीरे धीरे समझ में आ रहा था। काकी को तो उनकी कठिन परिस्थितियों में उनके रामजी का ही सहारा होता था। कम से कम काकी तो यही मानती थी। पर लगता नहीं है कि दादा को कोई सहारा हो? थोडा बहुत आसरा होगा तो वह सिगरेट का ही हो सकता है। दिनभर सिगरेट पिते बैठे रहते है। बैंक में भी धोंकनी चलती ही रहती है। उन्हें सब चेन स्मोकर कहते है। ऐसा सुरेश ही बता रहा था। काकी जैसा उनको टोकाटोकी कर कोई सही राह पर लाने वाला नहीं था। काकी अकेली थी फिर भी इतने वर्ष उन्होंने मुझे ख़ुशी ख़ुशी सम्हाला। ठीक आठ साल तक। मेरे लिए ही वें अपनी लाडली आवडे से हमेशा लडती रहती थी।
कुल मिलाकर दादा के हालात देखकर मैं सोच में पड गया कि मेरा क्या होगा? सुरेश बेफ्रिक्र था और वो ये सारी बातें सोचता भी ना हो शायद पर मुझे मेरी परिस्थिति का बखूबी एहसास था। काकी ने कई बार मुझे चेताया भी था कि दादा अकेले रहते है उन्हें कोई कष्ट नहीं देना और उनके आगे कोई जिद भी नहीं करना। अकेलापन ऐसा ही होता है क्या? मेरी अपनी परिस्थिति के कारण मुझे दादा का अकेलापन भी समझ में आने लगा।
मैंने तय किया कि जहां तक संभव हो मैं अपने लिए दादा से कुछ भी नहीं मांगूंगा। किसी चीज के लिए जिद नहीं करुंगा। ऐसा कुछ भी नहीं करुंगा जिससे उनको कष्ट हो। मैं दादा का कहना हमेशा मानूंगा। पर सुरेश के सामने इतने सारे सवाल नहीं थे। उसकी परिस्थिति मुझसे अलग थी। वो बचपन से दादा के साथ रह रहा था। तीन साल तक उसे माँ का लाड प्यार नसीब हुआ था। उसे दादा-दादी का प्यार भी नसीब हुआ था। वों दादा से एक तरह से हिलमिल गया था। दादा के पास कुछ भी मांगने या कोई जिद करने में उसे संकोच नहीं होता था। वों हमेशा जिद करता और उसकी कोई न कोई फ़रमाइश लगी ही रहती। और दादा भी उसकी हर एक फ़रमाइश और जिद पूरी करते। ऐसे ही उसने एक बार ‘जाग्रति’ हिंदी फिल्म देखने के लिए जिद की। फ्रीगंज में अशोक टॉकीज में वह सिनेमा लगा था। वैसे मैंने आज तक कुल जमा सिर्फ एक ही सिनेमा देखा था। वह था ‘बैजू बावरा’ मुझे याद आया उस दिन नानाजी शायद किसी ख़ुशी में थे। ग्वालियर के चित्रा टॉकीज में लगा था सिनेमा ‘बैजू बावरा।’ मेरा शरद मामा अपने कुछ दोस्तों के साथ ‘बैजू बावरा’ फिल्म देखने जाने वाला था। शरद मामा पंतजी की बहुत सेवा करता था इसलिए पंतजी अपने पोते से सदा खुश रहते। शरद मामा ने उनसे फिल्म देखने के लिए जाने की मंजूरी भी ले ली थी। पंतजी ने शरदमामा को न सिर्फ मंजूरी दी बल्कि नानाजी को नीचा दिखाने के लिए शरद मामा के दोस्तों के टिकिट के पैसे भी दिए। यह बात नानाजी को पता पड़ी। वें क्या कर सकते थे पर उन्होंने शरद मामा को मुझे भी उनके के साथ बैजू बावरा ले जाने के लिए कहां। उन्होंने काकी को भी इस बारे में बताया और मुझे भी समय पर तयार रहने को कहां। पहली बार सिनेमा देखूंगा इस ख़ुशी में पूरे बाड़े में सब जगह मैंने एक तरह से मुनादी सी करदी थी। पर मुझे अपने साथ ले जाना शरद मामा और उसके दोस्तों को कतई अच्छा नहीं लगा। ऐन समय पर वें सब मुझे छोड़ कर और मुझसे छुप कर चले गए। मैं तैयार हो कर बाहर दरवाजे पर ही बैठा रहा। रोज तीन बजे के लगभग नानाजी बच्चों को पढ़ाने बाहर निकलते। सबसे पहले वे दरवाजे पर अपनी काली टोपी निकाल कर उसे दो तीन बार झटकारते। उनके टोपी झटकने के साथ ही उसमें से बहुत सारे खटमल बाहर निकलते। इसके बाद वें टोपी पहन लेते। यह उनका नित्य कर्म सा था। नानाजी के कमरें में खटमल बहुत ज्यादा थे। कई बार रात में हमें देर तक खटमल मारना पड़ते। नानाजी ने अपने कमरे में एक छोटीसी कांच की शीशी में मिट्टी का तेल भर कर रखा था। जैसे ही कोई खटमल दिखता नानाजी उसे पकड कर उस शीशी में डाल डेते। उस दिन भी रोज की तरह तीन बजे नानाजी ट्यूशन देने के लिए जब बाहर निकले तो मुझे अकेले दरवाजे पर बैठे देखा।’ तुम गए नहीं मामा के साथ?’ मैं क्या बोलता? खामोश ही रहा। मुझे तो ये भी पता नहीं था की शरद मामा सब दोस्तों के साथ निकल गया पर नानाजी सारा माजरा समझ गए। मामा थोडा शरारती था और नानाजी को नीचा दिखाने के लिए पंतजी उसका इस्तेमाल करते। मैं सिनेमा नहीं गया या मामा मुझे नहीं ले गया यह इस संसार की कोई बहुत बड़ी घटना नहीं थी। सब के लिए यह बिलकुल मामूली घटना ही थी पर नानाजी का कहा मामा ने नहीं माना इसका नानाजी को बहुत बुरा लगा और उन्होंने इसे गंभीरतापूर्वक लियाI अचानक उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और पूछा, ‘सिनेमा देखना है ना?’ मैं क्या बोलता ? मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आया की हो क्या रहा है? ‘चल आ मेरे साथ।’ नानाजी ने मेरा हाथ पकड़ा और मैं यंत्रवत उनके साथ हो लिया। नानाजी मुझे लेकर गलियों में से उदाजी की पायगा होते हुए नईसडक पर आ गए। हमें बहुत देर हो गयी थी इसलिए नानाजी शायद मुझे गलियों में से लेकर आये थे, परन्तु चित्रा टॉकीज पर हाउसफुल का बोर्ड लगा था। पर नानाजी आज ठान कर ही आये थे कि वें मुझे बैजूबावरा दिखाकर ही मानेंगे और इससे भी बढ़कर शायद वें शरदमामा को दिखाना चाहते थे कि वें उसके बाप है। नानाजी का एक विद्यार्थी वहां गेट कीपर था। नानाजी ने उसे ढूँढ निकाला उसे एक आना दिया। उसने थर्ड क्लास का एक टिकिट कहीं से लाकर दिया। नानाजी ने उसे मुझे ठीक से अन्दर बिठाने को कहां और मेरी और ध्यान देने को भी कहां। मुझे बोले, ‘सिनेमा ख़त्म होते ही मैं तुम्हें लेने आऊंगा यहीं रहना। इधर उधर कहीं मत जाना।’ इतना कहकर नानाजी बच्चों को पढ़ाने निकल गए। सिनेमा हाल में अन्दर बहुत भीड़ थी और कहीं भी बैठने को जगह ही नहीं थी। गेटकीपर ने मुझे बिलकुल पडदे के पास ओटले पर ही बिठा दिया। ऐसा देखा था मैंने अपने जीवन का पहला हिंदी सिनेमा बैजू बावरा। सुरेश ने जब जाग्रति सिनेमा देखने के लिए जिद की तो दादा ने रविवार का ही दिन चुना। मेरे लिए सबसे ज्यादा ख़ुशी के पल मतलब बड़े प्यार से दादा का मुझे तैयार करना। नये कपडे, नए जूते मोज़े पहन कर मैं शान के साथ इधर उधर घूम रहा था। हम तीनों ने रतन मारवाड़ी भोजनालय में खाना खाया। वहां भी फीस्ट थी। मनपसंद भोजन, मनपसंद मिष्ठान और इसके बाद सिनेमा जाने वाले थे। और भला क्या चाहिए? खाना खाकर हम लोग घर वापस आ गए। दादा ने थोड़ी देर आराम किया। हम लोग नीचे हरी के यहां खेलते रहे। दोपहर ढाई बजे के लगभग हम सब तांगे से जाग्रति सिनेमा देखने के लिए फ्रीगंज में अशोक टाकीज पहुंचे। साढ़े छ: बजे सिनेमा ख़त्म हुआ इसके बाद वहीँ से हम सब पैदल पैदल फ्रीगंज में ही रहने वाले दादा के मित्र मल्होत्राजी के यहाँ पहुचे। मुझे और सुरेश को तो मालुम ही नहीं था कि मल्होत्राजी ने दादा को शाम के भोजन का निमंत्रण दिया हुआ है। मल्होत्राजी का शायद अभी हाल ही विवाह हुआ था ऐसा लग रहा था और घर में वे दोनों ही थे। थोड़ी देर बाद हम सब खाना खाने बैठे। मेरे लिए तो आज का दिन दोनों समय दावत ही थी। आलू प्याज टमाटर और मटर का लहसुन डाला झन्नाटेदार स्वादिष्ट रस्सा और गरमा-गरम पराठें। ऊपर से रबड़ी। रबड़ी को छोड़ कर खाने में पंजाबी ठसका था और यहीं लहजा इन दोनों की बातचीत में भी था। मैंने और सुरेश ने तो भरपेट खाना खाया। भोजन होने के बाद मल्होत्राजी ने हमें खेलने के लिए ताश के पत्ते दिए। सुरेश मुझे ताश के कुछ खेल सिखाने लगा। दादा और मल्होत्राजी बेंक की बातें करने लगे। रसोईघर का सारा काम समेट कर श्रीमती मल्होत्रा भी इन दोनों की बातों में शामिल हो गयी। हम भले ही ताश खेल रहे हो पर हमारे कान बड़ों की बातों की ओर लगे थे।
‘भाई साहब, सुशीला से आप शादी क्यों नहीं कर लेते?’ अचानक श्रीमती मल्होत्रा ने दादा से पूछ लिया। श्रीमती मल्होत्रा ने तो दादा की दु:खती रग को ही छेड़ दिया। मल्होत्राजी ने श्रीमती मल्होत्रा को बीच में ही टोक दिया, ‘अरी भागवान तुम भी क्या पूछ रही हो बच्चों के सामने?’
पर श्रीमती मल्होत्रा चुप रहने को तैयार नहीं थी, ‘और नहीं तो क्या? बच्चें भी तो सब समझते है उनकों भी तो एक माँ चाहिए। और मैं भी तो बच्चों के लिए ही कह रही हूं। भाईसाहब अभी हाल ही आकर गयी थी ना यहां माँ बेटी दोनोंI कुछ बात हुई क्या?’ श्रीमती मल्होत्रा को सब मालूम था।
‘बड़ेबाबू,कुछ बात आगे चली क्या?’ अब मल्होत्राजी ने भी पूछ लिया।
‘बहुत देर हो रही है, बच्चों को भी नींद आ रही है। फिर कभी बात करेंगे।’ इतना कह कर दादा उठ खड़े हुए। मल्होत्राजी और श्रीमती मल्होत्रा समझ गए कि उन्होंने गलत समय पर गलत सवाल पूछ लिया। हमारे सामने यूं शादी की बात करना दादा को भी अच्छा नहीं लगा। मल्होत्राजी हमें छोड़ने नीचे तक आये। हम सब तांगे में बैठ कर घर आगए।
रोज सुबह शाम इतनी दूर रतन मारवाड़ी भोजनालय में जाना वों भी सुबह, स्कूल और बैंक के समय जब जल्दी रहती है थोडा मुश्किल सा हो रहा था। इसलिए दादा ने हमारे खाने की व्यवस्था ढवले चाची के यहां कर दी। उनके घर कुछ नोकरी करने वाले सुबह शाम खाना खाने आते थे और महत्वपूर्ण यह था कि उनका मकान भी महाकाल मंदिर के सामने ही होने से हम दोनों अकेले भी वहां जा सकते थे। इसके सिवाय दादा ने अपने लिए भी शाम का डिब्बा वहीँ से लगवा लिया। अब हमारे रोज की भोजन की समस्या बहुत हद तक दूर हो गयी।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – २१ में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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