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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग १०

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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‘क्यों आवडे, इसे लिया क्या? ‘काकी ने नानी से पूछा।
‘नहीं,लेने के लिए ही आयी थी।पर ये आगए थे इसलिए ठहर गयी।’
‘तो फिर अब लेले।’
नानी ने मुझे ले लिया।
‘और क्यों री आवडे, दामादजी को कौन सा दिन याद आ रहा था? कौन सी घटना थी मुझे भी बता। ‘काकी ने सहज ही नानी से पूछ लिया। -‘कुछ नहीं माँ, वो समधीजी के बुरे बर्ताव के बारे में बता रहे थे।’
अब क्या किया तुम्हारे समधी ने?’
‘किया कुछ नहीं पर ससुरजी इनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते, इनकों कुछ भी महत्व नहीं देते और समधीजी ससुरजी के ख़ास बालसखा इसलिए वें भी इन्हें नहीं पूछते। समधी होकर भी कुछ महत्व नहीं देते।’
‘ये तो हमेशा का ही है। फिर आज कौन सी नयी बात याद आयी?’
‘बताती हूँ।’ नानी ने बताना शुरू किया, ‘क्या हुआ अक्का की शादी तय होने के पहले की बात है। एक दिन दोपहर के समय ये छत्रीबाजार से घर आ रहे थे। सर्दी के दिन थे। समधीजी शायद दोपहर का खाना खा कर छज्जे पर धूप में बैठे थे। इनको सडक परे से जाता देख समधीजी वही से बैठे बैठे ही चिल्लाये, ‘अरे हो, अरे हो सोन्या… इधर आ…’
समधीजी का इस तरह बुलाना इन्हें ज़रा भी अच्छा नहीं लगा। पर वें क्या कर सकते थे? एक तो समधीजी ससुरजी के घनिष्ट बालसखा और उस पर शिंदेशाही की चालीस घोड़ों की शिलेदारी का ठप्पा। सिंधिया के राज्य में तहसीलदार रह चुक। रामाचार्य जैसे राजवैद्य उनके दामाद।फिर भला उनके पाँव जमीन पर कैसे हो सकते है? हां दिमाग जरुर सातवें आसमान पर रहता था हमेशा। इसके ठीक सब उलट था इनका। स्कूल में अदने से गरीब मास्टर। अपनी गृहस्थी चलाने तक के लिए अपने पिता पर निर्भर। यही सब सोच कर इन्होंने समधीजी की अशिष्टता का मन पर नहीं लिया और कोई भी जवाब नहीं दिया। यें वही पर रुक गए और पीछे मुड कर समधीजी की ओर देखा और सडक पर से ही उन्हें प्रणाम किया। समधीजी अपनी बैठी जगह से एक इंच भी नहीं हिले। इनके नमस्कार को अनदेखा कर मालूम है वें क्या बोले …. ‘नानी अपनी माँ को उस दिन का किस्सा बताने लगी।
‘क्या कह रहे थे? ‘काकी ने अपनी बेटी से पूछा।
छज्जे पर बैठे बैठे उपर से ही समधीजी जोर से बोले, ‘पूछ तेरे बाप को, तेरी बेटी का ब्याह निपटाना है क्या उनकों?’
‘हे भगवान! इतनी बदतमीजी? ये क्या पूछना हुआ? ऐसे बात की जाती है रिश्तों के लिए? समधीजी को रामजी थोड़ी तो मति देते? पर आवडे, ये बात तूने मुझें कभी बतायी नहीं?’ काकी बोली।
अरे माँ, तुमको क्या बताती?और तुम क्या तो कर लेती? यहां किसे पड़ी है हमारा रोना सुनने की? पर तुमकों बताती हूं, सडक पर से हर आने जाने वाले के कानों में समधीजी के शब्द पड़े होंगेI और मजा ये कि हमारी ही बेटी की शादी के लिए समधीजी इनसे पूछ ही नहीं रहे थे। वे ससुरजी के लिए संदेशा देकर उनसे पूछने के लिए भरे रस्ते चिल्लाकर कह रहे थे। उनकी इस अशिष्टता से इन्होंने बहुत अपमानित महसूस किया खुद को। इन्हें तो उस वक्त इसका भी अंदाज नहीं था कि समधीजी हमारी अक्का का विवाह किस के बेटे के साथ करवाने जा रहे थे?’
‘फिर दामादजी ने क्या जवाब दिया?’ काकी की उत्सकुता बढ़ गयी थी।
‘क्या बोलते? इन्होंने तो कोई जवाब ही नहीं दिया। वहीँ सडक पर खड़े खड़े अपनी गर्दन हिला दी और इनके गर्दन हिलाते ही समधीजी फिर से जोर से बोल पड़े, ‘फिर ऐसा कर, अपने बाप से पूछ मेरे बेटे पंढरी के लिए। और हो सके तो तेरे बाप को वैसा संदेशा मुझे भेजने के लिए भी बोल दे। समझा क्या? नहीं तो तू भूल जाएगा? एक दो दिन में कानपूर से पंढरी आने वाला है। तेरे बाप की मर्जी होगी तो जल्दी ही फेरे डलवा लेंगे दोनों से। वैसी खबर करने को कह दे पंत से। ‘ये क्या जवाब देते इन्होंने एक बार फिर से अपनी गर्दन हिलाई और चुपचाप अपने रास्ते बढ़ लिए।’
‘बहुत ही बदतमीजी हुई ये तो? ‘काकी बोली, ‘इतना बड़ा आदमी क्या नशेपत्ते में बोल रहा था? ऐसे कैसे बर्ताव कर सकते है वो?’
‘कुछ नहीं माँ ये सब ससुरजी के कारण ही है। उनकी लाख मैत्री हो और आपस में वे एक दूसरे के साथ कितना भी खुल कर बोले पर दूसरों के सामने तो उन्हें लिहाज करना ही चाहिए? ससुरजी अपने बेटे को कुछ नहीं समझते, सबके सामने हमेशा बेइज्जत करते रहते है फिर दूसरे इनका भला क्यों लिहाज करने लगे? हम दोनों अभी कमरें में यहीं बात कर रहें थे। ‘नानी बोली, ‘बहुत हो गया माँ, अब इनसे बिलकुल ही सहन नहीं होता। बहुत दु:खी है। अक्का के जाने के दु:ख से भी अभी तक यें बाहर नहीं निकल सके है। ‘अभी तक मैं नानी की गोद में ही था, नानी ने मुझे खटियां पर लिटाया।
‘मुझे अंदाज है सब का। ‘काकी बोली, ‘अक्का तो सभी की लाडली थी। माई ने ही तो उसका नाम बड़े चाव से कुसुम रखा था। यह नाम भी सब को पसंद आ गया था। परन्तु अपने सबसे बड़ी बेटी का मान रखने के लिए ही दामादजी बचपन से ही उसे प्यार से अक्का नाम से बुलाते थे और उन्होंने सभी से उसे अक्का नाम से पुकारने के लिए ही हिदायत भी दी थी। उस दिन से आखरी दिन तक घर में अक्का को कुसुम नाम से कभी किसी ने नहीं पुकारा। मुझे अच्छी तरह से याद है कि दामादजी सभी से अक्का का परिचय उनका बड़ा बेटा कह कर ही कराते थे। ‘काकी नानी से बोली, ‘आवडे, थोडा समय लगेगा दामादजी को इन सब से बाहर आने में।’
‘वैसे ससुरजी और माई भी तो अक्का को बहुत लाड करते थे। उसके सब शौक पुरे करते थे।’ नानी बोलीI
‘अक्का थी भी तो बड़ी सुशील और समझदार। उसे अपने घर की परिस्थिति का पूरा अंदाज था। माई के और तेरे हाथ के नीचे घर के सब काम कितनी जल्दी सीख कर समझदार हो गयी थी। पूरा बाड़ा उसकी तारीफ़ करते नहीं थकता था। दामादजी खुद उसे पढने के लिए ले कर बैठते थे। वक्रतुंड से लेकर रामरक्षा और समर्थ रामदास स्वामी के मन के श्लोक तक दामादजी ने उससे कंठस्थ करवा लिए थे। रोज बिना नागा राममंदिर में पूजा की सब तयारी करने से लेकर आँगन में पानी का छिडकाव करने से लेकर भांति-भांति की रंगोली निकालने का काम वह बड़ी तन्मयता के साथ करती। दामादजी की लाडली थी पर तेरे ससुर उसे किसी भी हाल में पाठशाला में दाखिला कराने के लिए आखिर तक तैयार नहीं थे।याद है ना? लड़कियों को पढ़ाने के कितने खिलाफ थे पंतजी? ‘काकी बोल रही थी और नानी सुन रही थीI
अब नानी को भी कुछ याद आया, ‘हाँ देखो तो सही, इनकी तो हिमंत ही नहीं थी पंतजी से बात करने की और उनसे पूछे बगैर अक्का को पाठशाला में दाखिला कराने की हिमंत ही नहीं थी इनकी।’
‘तेरा आदमी ना बहुत भोला,सीधासादा और आज्ञाकारी है। ‘काकी बोली।
‘हां है। पर क्या कर सकते है? मेरा तो नसीब ही खोटा है। पर माँ, हिम्मत कर के एक दो बार इन्होंने ससुरजी से अक्का के दाखिले के लिए पूछा था पर ससुरजी का हमेशा एक ही रटा रटाया जवाब था, ‘लड़कियों को पढ़ाकर क्या करना है?’
नानी सुना रही थी बीती बातें, ‘एक बार तो इन्होंने ससुरजी से बड़ी व्याकुलता के साथ विनंती भरे स्वर में बोला, ‘दादा, अक्का को कम से कम पांचवी तक तो पढने दें। ‘तब ससुरजी ने जवाब दिया था, ‘सोन्या, अपने बाड़े में सत्ताईस किरायेदार है। तुम अगर सिर्फ किराया वसूली का काम ही देख लो तो देवकीनंदन मुनीम का हमारा खर्च बच सकता है। ऊपर से हमारा ब्याजबट्टे का काम कितना फैला हुआ है। महाराज ने भरे दरबार में मेरी सिफारिश की थी और उनकी कृपा से ही पूरे उत्तर भारत का हमें पहला बिमा एजेंट होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। पर तुम्हें इन सब बातों से कोई लेना देना ही नहीं है। तुम मेरे इकलौते बेटे हो। इन सब काम में तुम्हें मेरा हाथ बटाना चाहिए पर अनेक बार समझा कर भी तुम कुछ भी करने को तैयार नहीं होते। अब मेरी उम्र हो चली है।यें सारा काम कब तक मै अकेला सम्हाल सकूँगा? हमारे बाद ये घर कैसे चलेगा? हमारे बाद तुम्हारा क्या होगा? नौकरी भी तुमको हमने लगवा दी, पर पचास रुपल्ली में तुम इतना बड़ा तुम्हारा कुनबा कैसे चलाओगे? इसलिए कहता हूँ पहले खुद हो के कुछ रुपये कमाना सीखो और उसके बाद अपने बच्चों की पढाई का सोचो। अक्का को पढाई से बिगाड़ने की बजाय उसके ब्याह का सोचो। अब उसकी उम्र विवाह लायक हो चली है। हमें तो लगता है कि हमें ही उसकी शादी का प्रबंध भी करना होगा। तुमसे तो कुछ होने से रहा। तुम्हारी गृहस्थी की गाडी भी हम ही खिचेंगे क्या? और वो भी कितने दिन?’
‘तुमकों बताती हूँ माँ उस दिन इनको ऐसा लगा जैसे जमीन फट जाए और यें उसमें समा जायI इतना अपमानित उन्होंने कभी महसूस नही किया था। परन्तु अक्का की पढाई के लिए इनके मन में बहुत बेचैनी हो रही थी। आखिर इन्होंने माई के सामने ये विषय निकाला।’
‘हा आवडे। ‘काकी बोली, ‘वैसे दामादजी इकलौते बेटे है पर माई की भी तो तीन बेटियां है ना? माई भले ही दामादजी की सौतेली माँ है परन्तु इतना जरुर है कि दामादजी को उन्होंने कभी सौतेला बेटा नहीं माना।’ -‘वही तो बता रही थी मै। ‘नानी बोली, ‘हम दोनों अक्का के दाखिले के लिए माई के पास गए, ‘माई, तुमसे थोड़ी बात करनी है। ‘इन्होंने माई से कहा।
‘क्या हुआ?’ माई ने पूछा।
‘अक्का को पढ़ाने की हमारी इच्छा है। उसको प्राथमिक पाठशाला में दाखिला कराना है पर दादा मना कर रहे है। वो मानने के लिए तैयार ही नहीं है।’
‘समझ गयी।।। पर सोन्या, अक्का अब सयानी हो रही है वह कितने दिन पाठशाला जा पाएगी?’
‘आगे का आगे देखेंगे। पर आज अगर कुछ लिखना पढना सीख लेगी तो उसका शौक भी पूरा होगा और जिन्दगी में उसके काम ही आयेगा।’
अब माई उदास हो गयी, ‘सोन्या, तुम्हारी बात मै समझ रही हूँ। मेरी दोनों बड़ी बेटियों को मै पाठशाला नहीं भेज सकी पर अब सबसे छोटी विजया को मै पाठशाला भेजे बगैर नहीं रहूंगी। अभी तो वह तीन वर्ष की ही है। पर अगर विजया का पाठशाला में दाखिला कराना हो तो उसके पहले हमें अक्का की राह आसान करनी होगी। तुम चिंता मत करो, मै इनसे बात करती हूँ। माई बोली।
‘तुमको बताती हूं, उसी शाम माई में और ससुरजी में बहुत जोर जोर से बहस हुई। माई ससुरजी के सामने अक्का के दाखिले के लिए अड़ गयी क्यों कि उन्हें भी उनकी पुत्री विजया को पाठशाला में भेजना था। आखिर ससुरजी को माई के आगे झुकना पड़ा परन्तु उन्होंने एक शर्त रखी कि पांचवी की पढ़ाई पूर्ण होने के बाद अक्का को पाठशाला छोडनी होगी। माई से उन्होंने वैसा वचन भी ले लिया।
‘सच में दिलेर है माई। ‘काकी बोली।
‘हाँ। अक्का के दाखिले के बाद हम दोनों ने माई का आभार माना पर ससुरजी की नजरों से ये हमेशा के लिए उतर गए और उपेक्षित हो गए।’ नानी बोली, ‘माँ, तुमको बताती हूं, जब समधीजी ने सडक पर इनसे अक्का के रिश्ते की बात की थी तब अक्का पाचवी कक्षा पास ही हुई थी और इनकी इच्छा उसे कम से कम आठवी तक पढ़ाने की थी। हम फिर से इस बाबद माई से बात करने ही वाले थे। अक्का की भी आगे पढने की मन से इच्छा थी। इसलिए इन्हें समधीजी का अक्का के रिश्ते के बारे में बात करना अच्छा नहीं लगा था। समधीजी द्वारा इनके साथ किये अपमानास्पद बर्ताव से भी इन्हें बहुत पीड़ा हुई थी। इसलिए इन्होंने ससुरजी को समधीजी का संदेशा दिया ही नहीं। समधीजी के प्रति इनके मन में एक अलग ही धारणा बन गयी थी।’

‘पर माँ, आदमी सोचता कुछ है और नियति के मन में कुछ और ही होता है। ‘नानी का बोलना अभी पूरा ही नहीं हुआ था, और काकी की उत्सकुता बढती जा रही थी।
‘मतलब?’ काकी ने पूछा।
‘मतलब? जिस दिन समधीजी का बेटा … अब अपने दामादजी, कानपूर से ग्वालियर आने वाले थे उसके एक दिन पहले ही समधीजी की और ससुरजी की सरदार जाधव साहब के दत्त मंदिर के विशाल आहाते में पेडो के नीचे बने चबूतरे पर मुलाकात हुई। हर गुरूवार को समधीजी और पंतजी की मित्र मंडली शाम के समय यही बैठती थी। उस गुरूवार को भी शाम के समय ये सब इक्कठे हुए थे। एक दूसरें को नमस्कार करने के बाद समधीजी ने ही सबके सामने जानबूझकर पंतजी को छेड़ा था।’
‘क्या?’ काकी ने पूछा।
‘समधीजी ने ही चालाखी से बात शुरू की। वे बोले, ‘पंत, कल आपके सुपुत्र मिले थे हमसे।’
इतना झूठ?’ काकी को आश्चर्य हुआ।’
‘हाँ! पंतजी को भी आश्चर्य हुआ था। फिर उन्होंने पूछा, ‘सोन्या मिला था? क्या कह रहा था?’
‘कुछ ख़ास नहीं अपनी बड़ी बेटी के विवाह की चिंता में डूबे लग रहे थे आपके साहबजादे।’
‘जानती हो माँ समधीजी की बात सुनकर ससुरजी को बहुत आघात पंहुचा उनके बेटे ने बिना उनसे पूछे बगैर अपनी बेटी के रिश्ते की बात उनके ख़ास मित्र से की इसलिए उन्हें आश्चर्य भी हुआ और वे दु:खी भी हुए। उन्होंने समधीजी से कहा, ‘विष्णुपंत, हमारे बेटे सोन्या की चिंता करने के लिए हम अभी जीवित है और उसके बच्चों को सम्हालने में भी हम समर्थ है। ‘घर की बाते बेटा दूसरों के सामने रखे यह उनकों जरा भी अच्छा नहीं लगा। वैसे भी उनकी नजर में अपने बेटे की कोई कीमत ही नहीं थी। इसलिए ससुरजी ने इस चर्चा को तुरंत विराम भी दे दिया। परन्तु समधीजी को तो यही विषय चाहिए था।
‘कमाल है, सोनु भैय्या ने आपको मेरा संदेशा ही नहीं दिया। ‘समधीजी ने फिर से पंतजी को छेड़ा।
‘नहीं दिया। वैसे क्या था संदेशा?’ ससुरजी ने पूछा।
‘वाकई कमाल है? ‘समधीजी बोले, ‘कल दोपहर ही हमारी चर्चा हुई। हमने आपके लिए एक महत्वपूर्ण संदेशा भी दिया था। क्यों कर नहीं दिया होगा उन्होंने मेरा संदेशा आपको? समधीजी ने पूछा। संदेशा नहीं मिलने के कारण ससुरजी थोड़े नाराज हुए। अपनी नाराजी को जाहिर न कर वें बोले, ‘सोन्या को तो हम घर जाकर पूछेंगे पर आप तो बताइये भला क्या संदेशा दिया था आपने?’
‘अरे भाई हमारा संदेशा आपसे रिश्ता जोड़ने के लिए था।’
‘मतलब?’
‘हमारे पंढरी की पढ़ाई अब पूरी हो गयी है। वो बी.कॉम हो गया है। अभी उसकी आगे पढने की इच्छा है पर वो बाद की बातें है। अब कल वों कानपुर से आ रहा है कुछ दिनों के लिए। हम आपके सोनुभैया की बड़ी बेटी कुसुम के बारे में सोच रहे थे। हमने उसे देखा भी है। अब वों बड़ी हो गयी है और उसे अब आप स्कूल में भेजना अब बंद करों। उसके विवाह की चिंता करो। हमारे बचपन की मैत्री को रिश्तों में बदलने का हमारा मानस है। आपका क्या सोच है यह हमें बताओं।’
ससुरजी ने उनके मित्र के इस तरह के किसी भी प्रस्ताव की सपने में भी कल्पना नहीं की थी। परन्तु विष्णुपंत समधीजी का यह विचार वहां सभी मित्र मण्डली को खूब अच्छा लगा। ससुरजी तो बहुत ही प्रसन्न हो गए। वें बोले, ‘विष्णुपंत, आश्चर्य है हमारे मन में ये विचार आज तक क्यों नहीं आया? हमें यह रिश्ता मंजूर है। हमारी इतने वर्षो की मैत्री अब रिश्तों में बदलेगी यह सोच कर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। हम कल से ही तैयारी में लगते है।’
‘एक बार अपने बेटे से तो पूछ लीजिए?’ मित्र मण्डली सब जानती थी पर ताना देने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहता था। सब पंतजी को छेड़ने लगे। पंतजी ने आवेश में कहा, ‘सोन्या से क्या पूछना है? एक बार बोल दिया ना हमें ये रिश्ता मंजूर है। बोलो कब करना है शुभ कार्य?
‘तो फिर तय रहाI’ विष्णुपंत समधी बोले, ‘एक दो दिन में पंढरी आएगा तब सगाई निपटा लेंगे और फिर आगे कोई अच्छा सा मुहूरत देख कर चातुर्मास से पूर्व विवाह भी निपटा लेंगे।’
‘तो फिर आज सभी मित्र मण्डली के समक्ष, दत्तात्रेय भगवान् के मंदिर में भगवान् के भी समक्ष दोनों बच्चों का विवाह करने का तय रहा।’ ससुरजी के इतना कहते ही सभी मित्रों ने उनका अभिनंदन किया।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – ११ में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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