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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २९

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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बसंतपंचमी के आठ दिन पहले ही हम सब ग्वालियर के छत्रीबाजार के मकान में पहुँच गए। वहां पर हमें छोड़ने के बाद माँजी और सुशीलाबाई को दादा बेबी की माँ के यहाँ मतलब सुशीलाबाई की मौसी के यहाँ छोड़ने गए। वैसे छत्रीबाजार वाले पुश्तैनी मकान में रहने का मेरा यह पहला ही अवसर था। रिश्ते जन्म से और पुराने ही थे पर पहचान नए सिरे से थी। जिन रघुभैया नहीं नहीं वे मेरे ताऊ है और मुझे उन्हे आदर के साथ ताऊजी ही कहना चाहिए तो जिन ताउजी के बारे में दादा माँजी और सुशीलाबाई को बुरहानपुर और पथरिया में बता चुके थे और जिन ताऊजी से दादा अपने ब्याह के बारे में बात करने वाले थे उन ताउजी को मैंने तो पहली ही बार देखा। इसी के साथ उनकी पत्नी राजाबाई मतलब मेरी ताईजी और सबसे बड़ी एक विधवा ताईजी भी जो यही रहती थी उनसे भी मिलना हुआ। ताऊजी के बच्चों समेत पूरा परिवार हमारे उपनयन संस्कार समारोह के लिए घर में इक्कठे हुआ था।
वैसे छत्रीबाजार का मकान बड़ा सा ही था। बैठक, आंगन, कुआं, रसोई के लिए अलग कमरा। नीचे ऊपर कुल बारह कमरें थे। हमारे उपनयन संस्कार की तैयारी जोरों से चल रही थी। बाहर सडक पर शामियाना लगाया गया था। सारा सामान लाना, हलवाई और पंडितजी को पक्का करना इत्यादि सब व्यवस्था ताऊजी और ताईजी ही देख रहे थे। वैसे हमारा कुनबा भी बड़ा था और ज्यादातर रिश्तेदार यहीं ग्वालियर में ही थे। उन सब को घर जाकर आदर के साथ निमंत्रण देना इत्यादि का सारा काम भी ताऊजी और ताईजी के ही जिम्मे था। हमारा उपनयन संस्कार घर पर ही होना था। दस मिनिटों के अंतर से मेरा और सुरेश का उपनयन मुहूर्त था। हम दोनों का उपनयन संस्कार वैसे तो निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हुआ पर बस एक छोटी सी गड़बड़ हो गयी। उपनयन संस्कार के पहले बटुक को माँ अपनी गोदी में बैठा कर भोजन कराती है। इस मातृभोजन की विधि और संस्कार का बहुत महत्त्व होता है। ऐसी मान्यता है कि उपनयन के बाद बटुक गुरुकुल में ही रहकर ही विद्या अध्ययन करेगा और इस अवधि में वह अपनी माँ से मिल नहीं पाएगा इसलिए इस मातृभोजन का महत्त्व। माँजी और सुशीलाबाई सुबह जल्द ही तैयार हो कर आ गयी थी। सुशीलाबाई की ऐसी अपेक्षा थी कि दादा का उनके साथ ब्याह होना तय होने से मातृभोजन जैसी महत्वपूर्ण विधि के लिए उन्हें ही कहा जाएगा और यह मान भी उन्हें ही दिया जायेगा। शायद दादा ने भी उनकों ऐसा कुछ बोल कर रखा होगा। पर ताऊजी ने और ताईजी ने शायद पहले से ही इस विधि और मान के लिए हमारी सुन्दर मौसी का नाम तय कर रखा था। चांदी की थाली में सारे व्यंजन परोसे गए थे। पंगत में बहुत सारे बच्चों को बैठाया गया था। सुन्दर मौसी की गोद में एक एक कर हम दोनों बैठे। सुन्दर मौसी ने अपने हाथों से हमें भोजन कराया। मौसी को मातृभोजन में बैठाया और उसको मान दिया गया कारण माँजी और सुशीलाबाई इतनी आहत हुई कि वें मंगलाचरण होते ही बिना भोजन किए वहां से निकल गयी। दादा को उन्हें मनाने के लिए बहुत प्रयत्न करने पड़े होंगेi
उधर पंतजी और माई का स्वास्थ ठीक नहीं होने से वें दोनों हमारे उपनयन संस्कार में नहीं आ सके। नानाजी और काकी जरुर आए। उन दोनों को देख कर मुझे कितनी ख़ुशी हुई यह बता नहीं सकता। उपनयन संस्कार के बाद एक विधि में, ‘ओम भवति भिक्षांदेही’ कहते हुए बटुक को सबसे भिक्षा मांगनी पड़ती है। हम दोनों ने सब से भिक्षा मांगी और सबने हमारे झोले में कुछ न कुछ रुपये रखे। काकी ने मेरे हाथ पर एक रूपया रखा। मैंने काकी की ओर देखा। मुझे ऐसा लगा वे मुझसे बहुत कुछ पूछना चाहती है। सब के सामने पूछ नहीं पा रही थी। मेरी भी हालत कुछ ऐसी ही थी। मैं भी बहुत कुछ काकी को बताना चाहता था पर बता नहीं पा रहा था। मुझे बताना था, ‘काकी दादा अब ब्याह रचाने वाले है। सुशीलाबाई ऐसी विक्षिप्त है और माँजी मुझसे बहुत काम कराती है। दादा का ब्याह हो ही गया तो मेरे ऊपर तो बहुत भारी संकट ही समझो। मुझे तो अब मेरी राह अकेले ही तलाशनी होगी। अकेले ही जीना भी होगा। काकी तुम्हारे जीवन में तुमने कमाया हुआ सारा पुण्य आज मेरी झोली में डाल दो। यह भिक्षा जीवन भर मेरे काम में आएगी।’
पर काकी भी कमाल की है। उन्हें मेरे मन की सारी बात पहले ही पता पड गयी। काकी के सामने मैं एक याचक बन कर खडा था। उनकी नजर भी मेरे अंदर कुछ खोज ही रही थी। कुछ पल वें मुझे निहारती रही फिर बोली, ‘सम्हालों अपने आप को और सम्हल कर ही रहो। मेरा ही क्या तुम्हारी माँ अक्का का भी सारा पुण्य तुम्हें मिले। खुश रहो। यशवंत हो। गुणवंत हो। रामजी तुम्हारा कल्याण करें।’ मैं तो मानों उपकृत हो गया। सबसे कीमती दान मुझे मिला था भिक्षा में। शायद जीवन भर मैं इसका मोल न चुका पाऊं। मैंने काकी के चरणस्पर्श किए। नानाजी पास ही खड़े यह सब देख रहे थे। वे बोले, ‘भिक्षा सम्हाल कर रखने वाली वस्तु नहीं है। पर काकी की यह भिक्षा तो अमूल्य और सबसे से अलग ही है। मतलब मिली हुई भिक्षा जीवन भर न सम्हाल पाओं पर पुण्य तो संचय कर ही सकते है।’ ‘हां, सिर्फ पुण्य ही संचय कर सकते है।’ काकी बोली, ‘बाकी सब वस्तुएं तो इस्तेमाल करने की होती हैं इसलिए वें इस्तेमाल भी होती है, खर्च भी होती है और खराब भी होती है,और नष्ट भी होती हैं। इसलिए पुण्य अर्जित करना, उसे संचित करना और अपने कर्तत्व से उसे वृद्धिंगत करना यह महत्वपूर्ण है। और इस कला में हमें दक्ष होने की जरुरत है। अभी तुम बहुत छोटे हो। धीरे-धीरे सीख जाओगे कि पुण्य कैसे अर्जित कर सकते है और कैसे संचय कर सकते है।’
नानाजी के सामने भी भिक्षा मांगते हुए मैंने देखा और मुझे लगा कि उनकी आंखें, उनका चेहरा भी निरंतर मुझे कुछ पूछ रहा है। वें भी मेरे चेहरे में से कुछ खोजने का प्रयास कर रहे है। पर जल्द ही उनके चेहरे पर एक निराशा उभर आई। अपने काले कोट की जेब में से एक रूपया निकल कर मुझे भिक्षा दी। फिर मेरे दोनों कन्धों पर हाथ रख कर बोले, ‘छह सात माह में बहुत बदल गए है बाल्याजी।’ मैं क्या जवाब देता? खामोश ही रहा। मैंने सिर्फ उनके चरणस्पर्श किए। पर उतने में ताऊजी हँसते हुए बोल पड़े, ‘भैय्या, आपके बाल्याजी की दुनिया अब बहुत बदल गयी है।’
नानाजी ने ताऊजी की ओर देखा और बोले, ‘हां, वो तो दिखाई दे रहा है।’ फिर दादा से बोले, ‘अब तो बाल्याजी यहीं रहने वाले है पर दामादजी जाने के पहले आप सब हमारे यहां एक बार जरुर पधारे।’
‘जी जरुर!जरुर आएंगेI’ दादा बोलेI

उपनयन के दो दिनों बाद दादा की रात की गाडी थी वापस जाने के लिए। माँजी, सुशीलाबाई और सुरेश भी साथ जाने वाले थे। उसी दिन सुबह ग्यारह बजे के लगभग माँजी और सुशीलाबाई हमारे घर आई। उपनयन संस्कार में मातृभोजन की विधि में सुशीलाबाई को माँ की जगह नहीं बैठाया इसलिए माँ बेटी थोड़ी नाराज थी। नाराजी दोनों के चेहरे से झलक रही थी। पर इस बारे में उन्होंने बोल कर नहीं दिखाया इतना ही दादा के लिए काफी था पर अभी ताऊजी और ताईजी के साथ ब्याह की चर्चा होनी थी। इन दोनों के आने के दादा बाद ब्याह की चर्चा शुरू हुई। ऊपर की मंजिल पर एक कमरें में सब बैठे थे। बाहर एक छोटी छत थी जिसकी मुंडेरी पर मैं बैठा था। भले ही मैं बाहर बैठा था पर मेरा सारा ध्यान अंदर चल रही बातों पर ही था। वैसे भी खिड़की में से अंदर का सब दिखाई दे रहा था और बातें भी सुनाई दे रही थी। अंदर बातचीत की शुरवात ताऊजी ने की, ‘कहो पंढरी, क्या कहना है तुम्हें?’
‘रघुभैया, आप तो जानते ही है कि हमें क्या कहना है?’ दादा बोले।
‘फिर तो तुम्हें भी मालूम ही है कि हमारा क्या कहना है?’ ताऊजी जोर से हंसने लगे।
मैंने खिड़की के अंदर देखा ताऊजी के जोर से हंसने से माँजी और सुशीलाबाई उनकी ओर हैरानी से देख रही थी। ताऊजी ने ये देख लिया और उन्होंने अपने आप को रोका और माँजी से बोले, ‘क्षमा करे माँजी, हमारी हंसी का बुरा मत मानना। संजीदगी हम लोगों की तासीर में ही नहीं है और हम लोगों को सुहाती भी नहीं है। कितना भी गंभीर विषय हो बातचीत हमेशा हंसी ख़ुशी और सौहार्दपूर्ण माहौल में होनी चाहिए।’ ‘आपका ठीक है।’ माँजी बोली, ‘पर हम माँ बेटी अपनी हंसी कभी का भूल चुकी है। मन ही मन हम अपने दुर्भाग्य पर हसते है।’ अचानक माहौल गंभीर हो गया। कुछ क्षण शांतता छा गयी। फिर ताईजी ने माँजी का हाथ अपने हाथ में लिया और बोली, ‘दुर्भाग्य पर तो हमेशा हंसना ही चाहिए पर दुर्भाग्य पर अपनी सारी हंसी सबकों दिखनी भी चाहिए।’ फिर वें ताऊजी से बोली, ‘आप विषय से मत भटकिए। देवरजी का क्या कहना है ये एक बार उनके मुंह से सबके सामने सुनना बेहतर है। जो भी तय होना है वो जल्द तय हो जाय तो हमारी भी निश्चिंती हो जाएगी।’ ‘बोलो पंढरI’ ताऊजी बोलेI
‘रघुभैया, आप तो जानते ही है कि कानपूर में कॉलेज में पढ़ाई के समय से ही हमारा और सुशीला का एक दूसरे से प्रेम है। परन्तु दुर्भाग्यवश जो हालात बने और परिस्थितयों के कारण जो भी घटनाएं घटित हुई उनसे आप दोनों अच्छी तरह से परिचित है। पर अब हमारे दोनों के ऊपर किसी भी तरह का बंधन नहीं है। और हम दोनों अब विवाह के बंधन में बंधना चाहते है। सुशीला को जिंदगी भर सम्हालने का हमने माँजी को वचन दिया है।’ दादा बोलेI
‘हो गया तुम्हारा?’ ताऊजी ने दादा से पूछा। फिर सुशीलाबाई से पूछा, ‘सुशीलाबाई आपकों कुछ कहना है?’ सुशिलाबाई बोली, ‘मुझे अलग से कुछ भी नहीं कहना।’
‘पंढरी,अब ध्यान से हमारी बात सुनो।’ ताऊजी बोले, ‘कॉलेज में पढ़ते हुए लड़कपन की उम्र में किसी से प्रेम होना और किसी से प्रेम करना इसे एक तरह से हम नासमझी और अपरिपक्वता ही कह सकते है। हमें इस बात का दु:ख है कि तुम दोनों का प्रेम अपनी गंतव्य तक नहीं पहुच सका और तुम दोनों विवाह के बंधन में नहीं बंध पाए। पिछले दस वर्षों में सुशीलाबाई के साथ जो घटनाएं घटित हुई और तुम्हारे साथ भी जो कुछ घटित हुआ वह मानवीय नियंत्रण से परे था। उसके लिए किसी को भी दोष नहीं दिया जा सकता पर अब हालात बहुत बदल गए है। मैं आशा करता हूं कि तुम दोनों इन बदले हालात को अच्छी तरह से समझते होंगे। तुम अब विधुर हो, तुम्हारी दो शादियां हो चुकी है, तुम्हारे दो पुत्र भी है और उनकी जिम्मेदारी सिर्फ तुम्हारी ही है। दूसरी ओर सुशीलाबाई इस उम्र में भी अभी तक अविवाहित है। मेरे कहने का अर्थ ये है कि आज की परिस्थितयों में सुशीलाबाई की तुमसे अपेक्षाएं और तुम्हारी सुशीलाबाई से अपेक्षाएं इनमें जमीन आसमान का अंतर रहने वाला है। एक दुसरे से अपेक्षाएं शीघ्र ही भंग होने का खतरा बहुत ज्यादा है। इसके अलावा सुशीलाबाई का स्वास्थ भी चिंता की बात है और इन सब के ऊपर उनकी नौकरी। इन हालात में,खुद का स्वास्थ सम्हालना, नौकरी सम्हालना, बच्चों को सम्हालना, इसकी सुशीलाबाई से अपेक्षा रखना उनके ऊपर अन्याय करना होगा। सुशीलाबाई की मानसिक स्थिति देखते हुए तुम भी अपनी नौकरी सम्हाल कर सुशीलाबाई की और बच्चों की देखभाल कैसे कर सकते हो? विवाह के बाद तुम्हारी जिम्मेदारी भी असामान्य रूप से कई गुना बढ़ने वाली है इसकी कल्पना है क्या तुम्हें?’ ताऊजी ने दादा से पूछा।
‘हमारा प्रेम हमने सहेज कर रखा था पर भूले नहीं थे। राख के ढेर में कहीं तो भी चिंगारियां दबी हुई थी पर परिस्थितियों ने उन दबी हुई चिंगारियों को फिर से भड़का दिया है। हमारा प्रेम और उस प्रेम के लिए एक दूसरे के प्रति वचनबद्धता ही अब हमारे लिए सब कुछ है।’ दादा बोलेI
‘देवरजी, ये क्या लगा रक्खा है? कैसी चिंगारी? कैसी राख? कैसा वचन? ये क्या बात हुई भला ?’ ताईजी ने दादा को कहां। ‘भाभी, आप नाराज ना हो। मैंने अपनी भावनाएं बताई बस।’ दादा बोले, ‘मुझे अब मेरे बच्चों के साथ ही सुशीला का भी ख़याल रखना ही पड़ेगा। आखिर इतने वर्ष उसने मेरे इन्तजार में ही तो बिताएं है ना?’ ‘तो कुल मिलाकर तुम निर्णय ले चुके हो?’ ताऊजी दादा से बोले, ‘सच तो यह है कि सुशीलाबाई और उनके घराने के बारे में हमें कुछ भी नहीं पता। उधर अपना कोई परिचित हैं और ना ही किसी से कोई रिश्ता है। तुम्हारे बच्चों की ऐसी खराब स्थिति देखकर हमें बहुत दु:ख होता है। अब इन हालात में उनके ऊपर कोई और नए संकट ना आए यहीं हमारी इच्छा और इश्वर से प्रार्थना। बच्चें बिना माँ के कष्ट झेल ही रहे है अब उनके जीवन में सौतेलापन किसलिए?’
‘ये क्या कह रहे है आप? हम क्या इतने बुरे है?’ माँजी बोली।
‘मैं किसी व्यक्ति विशेष के बारे में नहीं बोल रहा हूं। मैं जग की रीत और आने वाली परिस्थितयों के बारे में सब को बस आगाह करना चाहता हूं। इसके अलावा सुशीलाबाई का स्वास्थ ठीक नहीं रहता फिर वें अपनी गृहस्थी कैसे सम्हालेंगी? घर के सारे काम, बच्चों की बढती जिम्मेदारियां, उनकी पढ़ाई और ये सब खुद नौकरी कर के उनसे होने वाला है क्या?’
‘ये सब तो हमेशा ऐसे ही रहने वाला है’ दादा बोले, ‘फिर क्या मैं शादी ही ना करू?’
‘पंढरी, ऐसे झल्ला कर कुछ भी नहीं होने वाला।’ ताऊजी बोले, ‘तुम हमसे पूछने आए हो इसलिए कह रहे है। सच तो यह है कि विवाह तुम्हें करना है और यह सर्वस्वी तुम्हारी इच्छा और तुम्हारा निर्णय होकर पूर्णरूपेण निर्णय भी तुम्हें ही लेना होगा। पर तुमने लिया हुआ निर्णय तुम हमारे मुंह से सुनना चाहते हो। यह कैसे हो सकता है? आखिर परिस्थतियों का सामना तो तुम्हें ही करना है इसलिए हम सिर्फ अपनी राय ही दे सकते है। अंतिम निर्णय तो तुम्हें ही लेना होगा। बाकी तुम सब समझदार हो। किसी भी तरह का कोई भी निर्णय लेने हेतु स्वतन्त्र भी हो। हम हमेशा तुम्हारे साथ है।’
‘हमें पूरा यकीन था कि आप इस रिश्तें को स्वीकार नहीं करेंगे।’ माँजी बोली।
क्षमा करें माँजी, पंढरी को राय देना ये हमारा घरेलू मामला है और इनके विवाह का पूछे तो आप सब यह निर्णय ले ही चुके है। अगर इसमें हमारे निर्णय से कोई बदल होने वाला ना हो तो हमारी सिर्फ राय देना ही उचित होगा। फिर कुल मिलाकर सब स्थितयों को देखते हुए हमें ऐसा लगता है कि यह विषय यहीं ख़त्म हो तो ठीक रहेगा।’ ताऊजी बोले।
थोड़ी देर कोई भी कुछ नहीं बोला। फिर दादा ही बोले, ‘रघुभैया, भाभी, आती गर्मियों में हम दोनों विवाह करने की सोच रहे है।’ ‘अच्छा है। बधाई हो। ‘ताऊजी बोले।
‘बधाई हो।’ अब ताईजी भी बोली, ‘ठहरों। मैं अभी आई।’
ताईजी बाहर आयी। मेरी ओर उनका ध्यान गया पर वें बिना कुछ बोले नीचे चली गयी। थोड़ी देर बाद वें फिर ऊपर आई तो उनके हाथ में बहुत सारा सामान था। वे अंदर गयी और मुझे आवाज लगाई। ताईजी ने सुशीलाबाई के माथे पर बिंदी लगाईं। उन्हें एक साड़ी दी और उन्हें पेढ़ा खिलाकर उनका मुंह मीठा किया। मुझसे बोली, ‘बाहर बैठकर हमारी सारी बातचीत सुन रहा था ना? बदमाश कही का।’ मैं शरमा गया। सब हंस पड़े। मेरे हाथ पर एक पेढ़ा रख कर ताईजी बोली, ‘ले तू भी अपना मुंह मीठा कर अब ये तुम्हारी नयी माँ होने वाली है। माँजी का और अपनी नयी माँ का आशीर्वाद लो और हाँ,ये सब पेढ़े नीचे सब को बाट देना।’
ताईजी द्वारा दिया पेढ़ा मैंने तुरंत मुंह में डाल लिया था और वो तुरंत घुल भी गया था। अब सिर्फ मिठास बची थी। पर ताईजी द्वारा सुशीलाबाई के बारे में बताते ही मेरा मुंह कडवा हो गया। दादा के ब्याह का तय होने का पेढ़ा खाकर मीठा हुआ मुंह सुशीलाबाई को माँ के रूप में देख कर पल में ही कडवा हो गया। ना जाने मुझे क्या हुआ मेरे मुंह से अपने आप निकल पड़ा, ‘ये माँ मुझे बिलकुल पसंद नहीं है।’ मैं सीधा नीचे आ गया। क्या कह गया इसका एहसास मुझे अगले ही क्षण हो गया। अब दादा मुझसे बहुत नाराज होंगे इसका डर मुझे सताने लगा। मैं रोने लगा। नीचे किसी को भी मेरे रोने का कारण समझ में नहीं आया। थोड़ी देर बाद भोजन का समय हो गया और यह तय हुआ कि यही से सब नानाजी से मिलने जाएंगे। नानाजी से मिलने जाने का सुन मेरा रोना थम गया और उसकी जगह चेहरे की मुस्कराहट ने ले ली। ताईजी ने भी दादा से आग्रह किया कि सुशीलाबाई की भी एक बार नानाजी से भेंट करवाना चाहिए। हम सब दोपहर बाद चार बजे के लगभग राम मंदिर के लिए रवाना हुएI
राममंदिर में पहुंच कर हम सब ने सबसे पहले काकी के रामजी के दर्शन किए। दादा और सुरेश दालान में झूले पर बैठ गए। माँजी और सुशीलाबाई अलग से पटे बिछा कर बैठ गयी। मैं दौड़ कर काकी के कमरे में गया। ‘काकी मैं आ गया।’ काकी को देखते ही मैंने उन्हें प्रसन्नता से कहा। काकी बाती ओट रही थी। उन्होंने हाथ में लिया हुआ कपास एक तरफ रखा। उन्हें मेरे आने की कल्पना नहीं थी। उन्हें बेहद ख़ुशी हुई। उन्होंने मुझे हाथ पकड़ कर अपने पास बैठाया। मेरी पीठ पर से हाथ फिराया। फिर मेरी चोटी पर से हाथ फिराया फिर मेरी ओर देखकर बोली, ‘कोई बटुक मुझसे मिलने आया है आज। नए कपडे, नयी टोपी। देखों तो सही कितना अच्छा दिख रहा है। एक लड़के के तो मजे ही मजे है।’
‘काहे के मजे? कैसे मजे?’ मैंने गुस्से से कहां। उसके बाद मेरी आंखें भीग गयी।
‘अ..र..र ! रोने को क्या हुआ?’ काकी ने अपने हाथों से मेरे आंसू पोछे फिर बोली, ‘इतना गुस्सा करने को और रोने को क्या हुआ?’ ‘दादा ब्याह करने वाले है उससे।’ मेरे मुंह से निकल गया।
‘किससे?’ काकी को सब मालूम था फिर भी उन्हें मेरे ही मुंह से सुनना था।
‘उसी से। वो आयी है ना?’ मैंने कहां।
कौन आयी है?’ काकी ने हंसते हुए पूछा।
‘वो सुशीलाबाई। मंदिर में बैठी हैं। उसी से से ब्याह करने वाले है दादा।’ मैंने कहाँ।
‘फिर तो अच्छा ही है। तुम्हें माँ मिल जाएगी।’
वो कुछ भी काम नहीं करती। दिन भर छुआछूत ही करती रहती है। ये दोनों माँ बेटी मुझे बहुत परेशान भी करती है। हमेशा कुछ न कुछ काम बताती ही रहती है। ये दोनों मुझे बिलकुल भी अच्छी नहीं लगती।’मैंने कहां।
‘ऐसा नहीं कहते। अभी तुम बहुत छोटे हो। ‘काकी बोली, ‘तुम्हारे दादा को तो उससे ब्याह करना है ना ? बस तो फिर हो गया। उन्होंने कुछ अच्छा ही सोचा होगा तुम्हारे लिए। तुम्हें उनका कहना मानना चाहिए। तुम्हें तो अभी अपना सब ध्यान पढ़ाई पर ही देना चाहिए। खूब पढ़ाई करो, खूब होशियार बनो।जल्दी बड़े हो जाओं। अपने पैरों पर खड़े हो जाओं जिससे कि फिर तुम्हें किसी भी तरह की परेशानी नहीं होगी।’ काकी की भी आंखें भीग गयी थी। उन्होंने अपने आंसू पोछे। थोड़ी देर हम दोनों खामोश ही रहे। उसके बाद बाद काकी ने कहां, ‘आवडे गयी। अक्का भी गयी। अब मेरे भी कितने से दिन रह गए है? पर मेरे प्राण तुम्हारे लिए अटके रहेंगे इसलिए कहती हूं जल्दी सयाने हो जाओ तो मेरी बहुत बड़ी चिंता दूर हो जाएगी। आज कितनी भी तकलीफ हो, कोई कितना भी कुछ भी तुम्हें कहें ,सहन करना सीखो। इसीमे तुम्हारी भलाई है। रामजी तुम्हें जरूर तुम्हारी आगे की राह दिखाएंगे।’
‘पर वें दोनों मुझे हमेशा कुछ न कुछ घर के काम कहती ही रहती है। पानी भरना, झाड़ू पोछा, बर्तन धोना, धुले कपडे सुखाने डालना, माँजी के साथ बाजार जाना और अब तो माँजी रसोई के काम भी बताने लगी है। ‘मेरी ऑंखें फिर से नम हो गयी, ‘तुम्हें बताता हूं काकी कुछ काम नहीं किया ना तो रात में भूखा सोने की सजा भी कई बार देती है। ‘काकी की ऑंखें भी फिर से भीग गयी। मुझे लगा काकी मेरी ओर से कुछ कहेंगी पर एक क्षण वें कुछ भी नहीं बोली। फिर एक बार उन्होंने मेरी पीठ पर से हाथ फिराया और हँसते हुए बोली, ‘बताए हुए सब काम तो तुरंत करना ही चाहिए। यही तो उम्र है सब काम सीखने की। और फिर काम करने से कोई घिसता नहीं है। बल्कि बताए हुए सब काम करने से अपने खुद के भी कई काम आसान हो जाते है। अपनी इज्जत भी बढ़ती है। लोग अपने को चाहते भी है और पूछते भी है। हमें अपनी उपयोगिता तो खुद ही साबित करनी पड़ती है ना? और मैं कहती हूं कोई हमें सजा दे ऐसे काम करना तो बिलकुल भी ठीक नहीं है।
‘फिर मैं अपनी पढ़ाई कब करूं ‘ मुझे गुस्सा आ गया।
कक्षा में एकाग्रता रखनी चाहिए। अगर ध्यान लगाकर मास्टरजी की बातें समझ लो तो पढ़ाई आसान हो जाती है। और फिर तुम्हारे जैसे होशियार बच्चें तो अपनी ज्यादातर पढ़ाई स्कूल में ही पूरी कर लेते है। तुम तो मेरे बहुत अच्छे राजाबेटा हो फिर ऐसी नासमझी क्यों? तुम्हारी नयी माँ को तुम बिलकुल तकलीफ नहीं दोगे। मेरी बात मानोगे ना? ‘काकी की बात मेरे लिए ब्रह्म वाक्य। मैंने अपनी गर्दन हिला दी।
‘और वैसे भी तुम अब कुछ दिनों यही रहने वाले हो। फिर काहे की चिंता? आगे का आगे देखेंगे। चलो, एक बार तुम्हारी नयी माँ से भी मिल लेते लेते है।’ काकी ने कहां।
हम दोनों बरामदे में आए। मैं दादा के पास झूले पर बैठ गया। इतने में नानाजी भी वहां आ गए। मैंने और सुरेश ने उनके चरण स्पर्श किए। दादा ने और सुशीलाबाई ने भी उनको प्रणाम किया। ‘कैसे है दामाद जी आप?’ नानाजी ने दादा से पूछा। ‘ठीक हूं। आज रात की गाडी से हम सब निकल रहे है। सोचा सबसे मुलाकात कर ले। आपके बाल्याजी को भी यहां छोड़ना ही था।’ दादा बोले। ‘आया ध्यान में। अच्छा है। क्यों बाल्याजी रहोगे ना यहां हमारे पास?’ नानाजी ने मुझसे पूछा फिर दादा को बोले, ‘दामादजी, हम जो सुन रहें है वह सही क्या?’
‘हां। दादा बोले, ‘भैया अगर सब कुछ ठीक रहा तो आती गर्मियों में सुशीलाबाई से विवाह बंधन में बंधने का हमारा विचार है। आपसे मिलने के लिए ही सुशीलाबाई और उनकी माँजी हमारे साथ यहां आयी है। आपकी स्वीकृति और आशीर्वाद हमें मिलेगा ऐसी हमें उम्मीद है। ‘दादा बोले।
नानाजी ने हंसते हुए कहां, ‘दामादजी, आप हमसे नाराज प्रतीत हो रहे है। सच तो यह है कि हमें तो आपसे और सुशीलाबाई से भी क्षमा ही मांगनी है।
‘क्या हुआ भैया?’ दादा ने पूछा।
‘कुछ नहीं, बाल्याजी ने बुरहानपुर से अपनी टूटी फूटी भाषा में हमें चिट्ठी क्या लिखी, हमने भी आगा पीछा ना सोचते हुए गुस्से में सीधे सुशीलाबाई को ही खरी-खोटी लिखते हुए नाराजी भरी चिट्ठी भेज दी। इसिलिए कहां हमसे भारी भूल हो गयी हमें क्षमा कर दें। ‘नानाजी ने खड़े होकर हाथ जोड़ दिए।
‘भैया, ये क्या कर रहे है आप? दादा भी झूले से तुरंत खड़े हो गए और बोले, ‘माफ़ी क्यों कर मांग रहे है भैया आप? हम सब तो आप से बहुत छोटे है। और आपसे कोई भी गलती नहीं हुई है। हम आपकी परिस्थिती बहुत अच्छी तरह से जानते है। बाळ को इस घर ने पहले ही दिन से कितना स्नेह दिया और कितना सम्हाल कर रखा है ये हमसे बेहतर कोई नहीं जानता। मेरा बेटा अगर आज जीवित है तो सिर्फ इस घर के और घर के लोगों के कारण है। आपका और काकी का कितना स्नेह हैं मेरे बेटे से यह मैं जानता हूं। सच तो यह है कि इस घर का और आप सब का उपकार मैं कभी भी भूल नहीं सकता और फिर अगर हमसे कोई चूक होती है तो आपको हमें डांटने का भी तो पूरा पूरा अधिकार है।’
‘हमारी अक्का हमें छोड़ कर चली गयी अब कैसे तो अधिकार और किसके ऊपर तो हक़ जताएं। और क्यों कर जताएं नहीं, हमसे तो बड़ी भारी भूल हो ही गयी। किसी भी तरह से कोई भी जान पहचान न होते हुए भी हमें सुशीलाबाई को खत नहीं भेजना चाहिए था।’ नानाजी बोले।

‘भैया, हम आपको भैया कह सकते है क्या?’ अचानक सुशीलाबाई बीच में ही बोल पड़ी। नानाजी ने भी गर्दन हिला कर अपनी स्वीकृति दे दी। ‘भैया, हमारे पिता भी हमारे बचपन में ही गुजर गए।’ सुशीलाबाई बोली, ‘आज तक हमें पिता का सुख नसीब नहीं हुआ। आपकी अक्का को विवाह के बाद आखरी सांस तक पिता का सुख नसीब हुआ था। अक्का की अकाल मृत्यु का हमें बहुत दु:ख है। सच तो यह है कि आपको मालूम ही है कि कॉलेज में पढ़ते समय ही हम दोनों ने अपने विवाह का निर्णय ले लिया था। पर दुर्भाग्यवश हमारा विवाह नहीं हो सका और आपकी अक्का के साथ इनका विवाह होने के बाद हमने अपने नसीब को स्वीकार कर हमारी राह अलग कर ही ली थी। पर अब परिस्थितयां बदल गयी है। शायद भाग्य से ही हम सब इक्कठे आना चाहते है। मुझे बच्चों की जिम्मेदारी इन के साथ बांटने में ख़ुशी ही होगी। परन्तु मेरा स्वास्थ आजकल ठीक नहीं रहता। हालात के मारे हम सब आधे अधूरे नसीब वाले लोग एक दूसरे के लिए एक ही राह पर चलना चाहते है।खुशियों के पल बांटने की मंशा रखते है। किस के भाग्य में क्या लिखा है यह आज कोई नहीं बता सकता। परन्तु आप का आशीर्वाद अगर हम सब के साथ होगा तो हम परिस्थिति से भी दो दो हाथ करने में पीछे नहीं रहेंगे आप अगर मुझे अपनी बेटी मानेंगे तो यह मायके की सबसे बड़ी सौगात होगी मेरे लिए।’ सुशीलाबाई भावुकता में कह गयी।
सुशीलाबाई की बातें सुनकर काकी की आंखें नम हो गयी। उन्होंने अपनी आंखें पोछी और बोली, ‘हमारी आवडे गयी, अक्का भी गयी। अब इन बच्चों के लिए मन तडफता है। परन्तु सुशीलाबाई आपकी बातें सुनकर अच्छा लगा। समाधान भी हुआ। आप अपना स्वास्थ सम्हालिए। बच्चों का भी ख़याल रखे। हम सब का आशीर्वाद आप सब के साथ है। रामजी सब का कल्याण करें।
सुशीलाबाई ने फिर से एक बार नानाजी को और काकी को प्रणाम किया। फिर नानाजी को बोली, ‘भैया, हम आपकी अक्का की जगह कभी भी नहीं ले सकेंगे। पर खुद की संतुष्टि के लिए, बच्चों को उनकी माँ की कमी महसूस ना हो इसका प्रयास जरूर करेंगे। आज से हम भी आपको अपने पिता की जगह मानेंगे। हमें आशीर्वाद दीजिए।’
नानाजी भी भावुक हो गए। प्रसंग ही ऐसा था। धोती से उन्होंने अपनी नम हुई आँखें पोछी फिर बोले, ‘हम क्या बोले ? दामादजी जो भी तय करेंगे वो ठीक ही होगा। आप खुद को सम्हालिए और अपने स्वास्थ का ख़याल रखिए। आज से हमने भी आपको हमारी अक्का का स्थान दिया है और अक्का कहकर ही पुकारा भी करेंगे।’
सुशीलाबाई ने एक बार फिर नानाजी को प्रणाम किया। काकी ने एक सुहागन को बुलवाकर सुशीलाबाई को बिंदी लगवाकर एक साडी और नारियल और ग्यारह रूपये दिलवाए। पेढ़े मंगवाकर सब का मुंह भी मीठा करवाया। ‘भैया, हम सब रात को निकलेंगे। माँजी और सुशीला को बुरहानपुर छोड़ कर मैं और सुरेश वापस उज्जैन आ जाएंगे। अगले महीने ही सुशीला को सिवनी अपनी उपस्थिति देनी है। मुझे सब व्यवस्था करने इनके साथ जाना ही होगा। सुशीला कुछ दिनों बाद अपना इस्तीफा दे देगी। ऐसा हाल फिलहाल हमने तय किया है। इसके बाद ही हम अपने विवाह के बारे में सोचेंगे। इसके अलावा मेरा भी तबादला भोपाल होने वाला है। इसीलिए बाळ को कुछ दिनों के लिए यहां रखने हेतु आपसे निवेदन किया था। सब कुछ जमने के बाद इसे फिर से बुला लेंगे। ‘दादा बोले। ये क्या कह रहे हो दामादजी आप? और निवेदन काहे के लिए?’ नानाजी बोले, ‘ये क्या किसी पराए का घर है? बाल्याजी को पूरा अधिकार हैं उनके ननिहाल पर। जितने दिन चाहें उतने दिन रह सकते है। आप निश्चिंत रहिये।’ ‘ठीक है। तो हम निकलते है। बाळ का सामान कल छत्रीबाजार से कोई दे जाएगा। स्कूल के कागज मैं रजिस्ट्री से भेज दूंगा ताकि भर्ती में आसानी रहेगी। ‘दादा बोले।
मैंने दादा को, माँजी को और सुशीलाबाई को प्रणाम किया। सुरेश ने भी सभी को प्रणाम किया। इसके बाद सब छत्री बाजार चले गए। मैं वापस नानाजी और काकी के पास आगया था। बरामदे में काकी बहुत देर तक उनके रामजी को एकटक निहारते बैठी रही। शायद वें रामजी के आभार मान रही थी।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – ३० में


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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