Sunday, December 22राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर आपका स्वागत है... अभी सम्पर्क करें ९८२७३६०३६०

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग ०९

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

******************

धीरे-धीरे दिन गुजर रहे थे। रोजमर्रा की दिनचर्या किसी के लिए नहीं रूकती। काकी का सारा समय मेरी देखभाल में ही व्यतीत होने लगा था। वैसे भी उनकों घर में विशेष ऐसा कोई काम करने को नहीं होता और नाहि उन्हें कोई कुछ करने को कहता। काकी का पूजापाठ, हर एक दो दिन के बाद के उपवास और विशेष कर माला लेकर हमेशा रामजी का जाप। इन सब में वे नियम की पक्की थी और बस यही उनका विश्व था। रोज का भोजन भी वे दोपहर बाद एक ही समय करती थी। शाम का भोजन तो उन्होंने कई वर्षों से छोड़ रखा था। कोई भी उनसे ज्यादा बातचीत भी नहीं करता था और इस घर में कोई उनके आड़े भी नहीं आता था। कुल मिलाकर उनसे किसी को भी परेशानी नहीं थी और नाहि वे किसी को परेशान करती या कोई काम कहती।
काकी की एक अलग ऐसी अलिप्त सी दुनिया थी और उनके अपने विश्व में वें नितांत अकेली थी। अब मेरे आने से उनकी दुनिया में खलबली सी मच गयी थी। रोजमर्रा की उनकी दिनचर्या में भी खलल पैदा हो गया था। एक तो मेरी माँ उनकी बहुत लाडली थी और कम उम्र में मेरी माँ की मृत्यु उनके सामने हुई। इसलिए जाने अनजाने वे मुझसे भावनात्मक रुप से जुडती चली गयी। ऊपर से मेरे परनाना पंतजी ने मुझे सम्हालने का दायित्व भी उन पर सौप दिया। समधी की ओर से दिखाए गए इस विश्वास के कारण वे कुछ ज्यादा ही भावुक हो गयी और यही भावुकतापूर्ण व्यवहार उनके मन में मेरे लिए भी घर कर गया। मैं तनिक भी रोता तो वे तुरंत मेरी नानी को ढूंढने लगती। आंगन में, बरामदे में कुएं के पास, रसोईघर में, भण्डारघर में, यहाँ तक कि बाड़े में भी सबके यहां वे नानी को खोजती और मुझे दूध पिलाने के लिए नानी को मजबूर करती। फिर नानी झुंझला उठती। बहस होती। पर नानी की उनकी माँ के आगे एक भी नहीं चलती।
अब मैं सवा महीने का हो चुका था। मेरे जीवित रहने की संभावनाएं भी बढ़ गयी थी। मेरा ठिकाना भी प्रसव कमरें से काकी के कमरें में हो चुका था। नानी के अलावा काकी के कमरें में कोई झांकता तक नहीं था। नानाजी जरुर एकाद बार अपनी सास के हालचाल पूछने आते और दामाद होने का अपना कर्तव्य पूरा कर लेते।
अपने बेटे के दु:ख में साथ निभाने के लिए मेरे दादाजी और दादी उज्जैन पहुच चुके थे। मेरे पिताजी और मेरे बीच किसी भी तरह के संवाद की स्थिती ही नहीं बनी थी।
ऐसी ही एक दोपहर काकी परेठी मोहल्ले में अपनी ससुराल किसी काम के लिए गयी थी। मुझे सुलाकर और सूर्यास्त के पूर्व लौटकर आने का भी नानी को बोलकर गयी थी। मेरे उठने पर मुझे लेने के लिए नानी को खासकर जता कर भी गयी थी। गोपाल मामा को दूध पिलाकर और उसे पलने में सुलाकर नानी मुझे देखने काकी के कमरें में आयी। मैं खटियां पर ही लेटा था। मुझे निहारती कुछ पल नानी मेरे पास ही बैठी रही। मैं चुपचाप लेटा हूं ये देख नानी वापस बाहर जाने को हुई। इतने में नानाजी अंदर आए। उन्हें देखकर नानी रुक गयी।
‘कुछ काम हैं क्या?’ नानी ने नानाजी से पूछा।
‘कुछ ख़ास नहीं।’ नानाजी बोले।
‘फिर?’
‘कुछ नहीं। कुछ पल विश्वनाथजी के पास बैठने का मन किया सो आ गया। ‘नानाजी हँसते हुए बोले। ‘अरे बाप रे! विश्वनाथजी के पास? ‘नानी भी हँसते हुए बोली, ‘क्या मैं पूछ सकती हूँ कि, अपने नाती के लिए इतना लाड-प्यार आज अचानक कैसे क्या उमड़ आया हैं श्रीमानजी जी के मन में?’
नानाजी को नानी का यह ताना बिलकुल अच्छा नहीं लगा पर उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। वें खटियां पर मेरे पास बैठ गए और मझे एकटक निहारने लगे। फिर मेरे दायें हाथ की छोटी सी उंगलियों को खुद के हाथ से हौले हौले सहलाने लगे। मैंने उनकी एक उंगली अपनी छोटी सी मुट्ठी में कस कर पकड ली। कुछ पल नानाजी ऐसे ही खामोश बैठे रहे। नानी अचरज से हम दोनों की ओर देख रही थी। अचानक नानाजी की आंखों से आंसू बहने लगे। नानी का भी ध्यान नानाजी के आंसुओं की ओर गया। वो तुरंत हमारे पास आयी। ‘ये क्या?’ नानी के मुंह से इतने ही शब्द निकल पाये थे पर उसके पहले ही नानाजी की आंखों से आंसू बहना शुरू हो गए थे।
‘ये क्या कर रहे हो जी? शांत हो जाओं। कोई देखेगा तो क्या कहेगा? सम्हालो खुद को। ‘नानी ने अपने पल्लू से नानाजी की आंखें पोछी। नानाजी की पीठ सहलाई पर नानाजी को शांत होने में थोडा समय लगा। रह-रह कर उनकी आंखें बार-बार भीग रही थी। थोड़ी देर बाद आवेग कम हुआ।
‘मुझे अक्का की आज बहुत याद आ रही है। हमारी सबसे लाडली बड़ी बिटिया अक्का घर तो घर, बाड़े तक में सबकी लाडली थी। गुणवान, सीधीसादी, सरल स्वभाव की मिलनसार। कौन से गुण नहीं थे उसमे। विश्वास ही नहीं होता कि अब वो इस दुनिया में नहीं है।’ अपनी धोती से अपनी आंखें पोछते हुए नानाजी बोले।
अब नानी की भी आंखें भीग गयी, ‘मुझे भी उसकी बहुत याद आती है। ‘अपने आंचल से अपनी आंखें पोछते हुए वो बोली, ‘पर क्या कर सकते है? हमारे हाथ में क्या है? अपने आप को सम्हालिए। हमें अभी तीन बेटे और तीन बेटियां और है उनका भी सब देखना ही है। अक्का का दु:ख बिसारना होगा और बाकी बच्चों की ओर देखना होगा। बाकी रामजी हैं सम्हालने के लिए।
पर नानाजी के मन में कुछ अलग ही चल रहा था, ‘वो सब ठीक है, पर सच तो यही है कि हम अक्का को नहीं बचा सके। मैं इतना लाचार और नाकारा हूं क्या? सब मुझे किसी भी लायक नहीं समझते? सामने कुछ नहीं बोलते पर कोई मुझे पूछता भी नहीं है। यें क्या मै जानता नही हूं? सब समझता है मुझे। क्यों करते है सब मेरे साथ ऐसा बुरा बर्ताव?’ नानाजी बोले।
‘ऐसा बिलकुल भी नहीं हैI तुम्हारे मन में मालूम नहीं क्या-क्या चलता रहता है। ‘नानी को कुछ अलग ही कहना था, पर नानाजी का मन रखने के लिए उसने कहा।
‘क्यों मेरे लिए तुम झूठ बोल रही हो? ‘नानाजी बोले, ‘बचपन से देख रहा हूं पंतजी मुझे बिल्कुल भी नहीं पूछते। कहने को मेरे पिता है पर मेरी उपेक्षा और अपमान करने का एक भी मौका नहीं गवातें वो। अब ये ही देख लो ना, अक्का की बीमारी में, उसके इलाज के समय, उसकी प्रसूति के समय, या उसकी मृत्यु के समय यहां तक कि उसकी अंतिम यात्रा में भी, उसके तेरहीं में, या हमारे नाती के नामकरण संस्कार के समय, किसी ने भी मुझ से या तुमसे कुछ पूछा? कोई सलाह ली या सलाह दी? ख़ुशी में कभी हमें शामिल नहीं किया और हमें हमारा दु:ख अकेले ही सहन करने के लिए छोड़ दिया। अक्का के जाने के बाद मुझसे या तुमसे सहानुभूति के दो शब्द भी कोई नहीं बोला? रामाचार्य वैद्यजी भी पंतजी से और माई से ही सहानुभूति के शब्द बोलकर चले गए। हमारे खुद के दामादजी ने भी जाते वक्त सिर्फ हाथ जोड़कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली। हमारे नाती को हमारे यहां सम्हालें ये भी समधीजी पंतजी को बोलकर अलग हो गए। हम उनके समधी हैं पर उन्होंने हमसे पूछने की भी जरुरत नहीं समझी। हमसे सलाह मशविरा करने की भी जरुरत नहीं समझी। सच तो यह है कि समधीजी की नजरों में मेरी कोई कीमत ही नहीं है। अब तुम ही बोलो मैं क्या कुछ गलत बोल रहा हूं?’ नानाजी के चहरे पर वेदनाएं थी।
‘अब इसमें नया क्या है और अलग क्या है?’ नानी बोली, ‘ये तो रोज का ही है। हमारी अलग गृहस्थी नहीं। पंतजी की गृहस्थी। उनका ही पैसा। वें ही गृहस्थी चलाते है। वें ही अपनी सारी जरूरते पूरी करते है। पूछा जाय तो हमारे गृहस्थी की गाडी वें ही तो खीच रहें है। अब हमारे बड़े बेटे बालकृष्ण की पढ़ाई का ही ले लो। उसकी सारी पढ़ाई का खर्च उन्होंने ही तो किया। कानपूर में कॉलेज की पढ़ाई और वहां के रहने खाने का खर्च वें ही तो हमेशा भेजते रहें। अक्का का विवाह ससुरजी ने कितनी धूमधामसे किया। याद है ना सब? हमारे पास कहां था कुछ? ना बेटे की पढ़ाई के लिए ना बेटी के विवाह के लिए। सारे विश्व की दरिद्रता हमारे ही नसीब में। ना पास में रूपया पैसा, ना खुद की गृहस्थी। मेरी क्या हालत होती है तुम्हें मालूम है क्या? हमेशा माई का सुनना पड़ता है। उनके ताने भी जानलेवा होते है। सब घर का काम मैं और मेरे बच्चे करें और माई सिर्फ महारानी जैसा हुकुम छोडती रहें। हमारे बच्चे और हम क्या ढोरों जैसी जिन्दगी गुजारने के लिए ही हैं? कोई इच्छा-अनिच्छा, कोई पसंद-नापसन्द, कोई शौक नहीं या कोई मर्जी नहीं। इस घर में सब्जी तक अपनी पसंद की नहीं बना सकती मै। अब मुझसे बिलकुल सहन नहीं होता। ‘अब नानी भी आवेश में आगयी थी।
‘तुम भी ना कुछ भी ले बैठती हो। ‘नानाजी को भी बहुत बुरा लगा, ‘तुम्हें क्या हमारी परिस्थिति मालूम नहीं? मैं जनकगंज शासकीय माध्यमिक विद्यालय में एक अदना सा गणित का मास्टर हूं। पचास रुपल्ली माहवार तनखा में क्या होता है? और इसिलिए अपनी अलग गृहस्थी नहीं बसा सकते। कितनी बार समझाया तुम्हें। और फिर इस इतने बड़े बाड़े में कम जगह है क्या सर छुपाने को? आखिरकर मैं पंतजी का इकलौता वारिस हूं। और जहां तक माई के ताने सुनने का सवाल है तो वें क्या आज के थोड़े ही है। उनका थोडा स्वभाव ही ऐसा है। हमारी ही परिस्थिति अभी ख़राब है इसलिए थोडा सब्र करना ही होगा। माई की मर्जी मर्जी से तुम्हें चलना ही होगा। अभी हमारे सभी बच्चों का सब कुछ होना है।
‘इसलिए क्या मै जिन्दगी भर माई के ताने ही सुनती रहूं? ‘नानी बोली, ‘कुछ स्वाभिमान कुछ आत्मसम्मान है कि नहीं हमारा? इकलौते बेटे हो ससुरजी के इस नाते उन्हें हर मामलें में तुमसे सलाह मशविरा करना चाहिए या नही? हर बार दुत्कारते रहते है। ऊपर से हमारे बारे में भी सारे निर्णय खुद ही ले लेते है। हमसे पूछते तक नहीं। कोई सलाह या हमारे विचार लेने का रिवाज ही नहीं इस घर में। निर्णय लेने के बाद खबर तक नहीं करते। इधर उधर से ही हमें हमारे बारे में उनके निर्णयों का पता लगता है। अब अपनी अक्का की शादी का ही लो देख लिया न क्या हुआ अब? सादा पत्रिका का मिलान तक हमें नहीं करने दिया ससुरजी ने। हमेशा अपनी ही करते है। सारे शहर को हमारी अक्का की शादी तय होने का मालूम था हमें ही उन्होंने आखिर तक अँधेरे में रखा। अब भी सब शहरवाले कहते है कि, दामादजी को तो हमारी अक्का से शादी ही नहीं करनी थी। क्या कहते है कानपूर में ही किसी लड़की से उनका प्रेम था और वों उसीसे शादी करना चाहते थे। ‘नानी ने अपने मन की बात कह डाली।
‘अरे, पगला गई हो क्या? ‘हमारी अक्का अब इस दुनिया में नहीं है। फूल से दो बच्चें है उसके। उनकी अभी पूरी जिन्दगी पड़ी है। उनका सोचो। इस तरह की बातों का अब क्या फायदा? जो भी हो बीती ताहि बिसारदे आगे की सुध ले। अब ऐसी बातें करना हमें शोभा नहीं देता। ‘नानाजी बोलेI
‘अरे, हम दोनों ही तो है कमरे में। पर मै जो कह रही हूँ वों सही लग रहा है ना तुम्हें?’ नानी बोली।
‘तुम सही कह रही हो। ‘नानाजी बोले, ‘पर अब तुम्हारें कहने से हालात थोड़े ही बदलने वाले है?’
‘पर आदमी का व्यवहार तो बदल सकता है। ‘नानी बोली, ‘ससुरजी के ही व्यवहार के कारण पूरे शहर भर में तुम्हें कोई नहीं पूछता, ना ही तुम्हारी कोई परवाह करता है। जानते हो ना समधीजी ने कितना बुरा व्यवहार किया था तुम्हारे साथ?’
‘हां। देखो ना अपने ही समधी से ऐसे कैसे कोई व्यवहार कर सकता है? मुझे वो दिन आज भी याद है। ‘नानाजी बोलेI
इतने में काकी कमरें में आयी। नानाजी को देख कर बोली, ‘अरे व्वा दामादजी, आज इस बुढिया के कमरें में?
‘कुछ नहीं काकी अपने नाती से थोड़ी गप्पें हांकने चला आया। ‘नानाजी हँसते हुए बोलेI
‘अच्छा है। ‘काकी बोली, ‘और दामादजी कौन सा दिन आज भी याद है आपको? क्या हुआ था उस दिन? काकी ने पूछा।
‘कुछ नहीं काकी, हम तो ऐसे ही बातचीत कर रहे थे। ‘नानांजी बोले, ‘अच्छा मुझे थोडा काम है। ‘और नानाजी कमरें से बाहर चले गए।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – १० में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, हिंदी में टाईप करके हमें hindirakshak17@gmail.com पर अणु डाक (मेल) कीजिये, अणु डाक करने के बाद हमे हमारे नंबर ९८२७३ ६०३६० पर सूचित अवश्य करें … और अपनी कविताएं, लेख पढ़ें अपने चलभाष पर या गूगल पर www.hindirakshak.com खोजें…🙏🏻

आपको यह रचना अच्छी लगे तो साझा जरुर कीजिये और पढते रहे hindirakshak.com हिंदी रक्षक मंच से जुड़ने व कविताएं, कहानियां, लेख, आदि अपने चलभाष पर प्राप्त करने हेतु हिंदी रक्षक मंच की इस लिंक को खोलें और लाइक करें 👉🏻हिंदी रक्षक मंच👈🏻 हिंदी रक्षक मंच की इस लिंक को खोलें और लाइक करें … हिंदी रक्षक मंच का सदस्य बनने हेतु अपने चलभाष पर पहले हमारा चलभाष क्रमांक ९८२७३ ६०३६० सुरक्षित कर लें फिर उस पर अपना नाम और कृपया मुझे जोड़ें लिखकर हमें भेजें…

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *