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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग – ०६

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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रात आठ बजे से कर्फ्यू फिर से लगने वाला था। सब अपने अपने घरों की ओर जल्दी ही निकले गए। सांझ की दिया बाती भी हो गयी। सब का खाना भी हो गया। माँ को होश आया ही नहीं था। सब काम निपटा कर नानी कमरे में आयी। काकी तो मुझे लेकर ही बैठी थी। उनका क्या, वह थी गंगाभागीरथी (विधवा-केश वपन किये हुई)। एक ही समय खाना खाती थी। रात को कुछ भी नहीं लेती थी। नानी आकर माँ के सिरहाने बैठ गयी। माँ की हालत देख रह रह कर नानी की आँखे भर आ रही थी।
काकी नानी से बोली, ‘आवडे, ऐसी खामोश क्यों है तू?’
‘माँ मुझे खूब रोने की इच्छा हो रही है।’
‘फिर जी भर के रो ले। आ, मेरे पास में आ कर बैठ। मुझे तेरे मन की हालत समझ रही है। तुझे तेरी बिटिया की चिंता है पर मुझसे भी तो अपनी बिटियाँ की हालत नहीं देखी जाती। तू बता मै क्या करू? और रो कर क्या होगा?’
‘क्यों क्या हुआ?’ नानी ने पूछा।
‘कुछ नहीं री, तू तेरे दामाद का सोच रही है पर यहां मेरे दामाद के हाल मुझसे देखे नहीं जाते। मेरे दामादजी की परिस्थिति ठीक होती तो तेरी ऐसी बुरी हालत तो न होती। दामाद जी की जहां ख़राब हालत हो वहां मेरी लाडली के नसीब में सुख कहां से होगा? तेरे बारे में सोच सोच कर मेरा चित्त भी बहुत अशांत हो जात है। रामजी जाने कब बुलाएंगें मुझे? अब नहीं सहा जाताI ‘काकी बोली। ‘मै भी क्या करू माँ? तेरे इस बुढापे में तेरी ओर भी मै ठीक से नहीं देख पा रही हूं। इस उम्र में भी तुझे रत्ती भर आराम नहीं। मेरी बिटियाँ का कुछ कर नहीं सकती और माँ का मुझसे कुछ भी हो नहीं पाता। अपने हाथ में कुछ नहीं है। इतना फूटा नसीब लेकर भला कैसे जिए?’ नानी रोने लगी। काकी ने उसे जी भर के रोने दिया। थोड़ी देर बाद नानी ने पल्लू से अपनी ऑंखें पोछी फिर बोली, ‘सात बच्चों की गृहस्थी मेरी और यह रस्सी के ऊपर की कसरत। हमेशा भागमभाग और बेचैनी। अभावों की हमारी गृहस्थी। हमेशा जान हथेलियों पर रख कर जीना है यहां। डर डर कर ही रहना। माई और ससुरजी का कठोर बर्ताव। हमें तो कौड़ी की भी कीमत नहीं इस घर में। मेरे पति ठहरे सीधे सादे भोलेनाथ। माँबाप से डर कर रहने वाला है तुम्हारा दामाद। हमेशा उनका ही लिहाज, उनका ही सोच मन में। माँबाप का परम आज्ञाकारक और उनकी मर्जी सम्हालने वाला और उनकी मर्जी से ही चलने वाला। खुद का जैसे कोई अस्तित्व ही नहीं, खुद का कोई सोच ही नहीं। जीवन में खुद के कोई सपने नहीं, पत्नी का और बच्चों का भी खयाल नहीं। माई और ससुरजी जो कहेंगे वो ही पूर्व दिशा।’
‘अरी, मुझे क्या मालुम नहींI सब जानती हूँ।’ काकी बोली। -‘मालूम होने से क्या होता है?मै भी सब जानती हूँ। पर उससे क्या होता है?’ नानी बोली, ‘असल में तो स्कूल में इनकी पगार ही कितनी है? सिर्फ पचास रुप्पल्ली। क्या होता है इतने से रुपयों से ? और ऊपर से सब तनखा हर एक तारीख को ससुरजी के हाथों पे रख देते है। और फिर महिना भर उनसे भीख मांगते रहते है। और फिर हमेशा बाप बेटे में बहस और कहासुनी। यही सब होता रहता है हमेशा। जैसे हम लोगों का कोई अस्तित्व ही नहीं। तंग आ चुकी हूं मै।’
‘शांत हो जा आवडे।’ काकी बोली।
‘अरी माँ, शांत रहने से हालात थोड़े ही बदलने वाले है। अब अक्का का ही देखो। हमारी हालत थी क्या दूसरी जचकी करने की? और वैसे तो दूसरी जचकी तो अपने यहाँ ससुराल में ही होती है, मायके में नहीं। और अक्का के ससुराल में ही बच्चे का जन्म हो जाता तो कौन सा आसमान फट जाता? पर नहीं, ससुरजी और विष्णुपंत दोनों ने अपनी मित्रता निभायी और दोनों ने ही तय कर लिया। घर में किसी से सलाह तक नहीं ली। औरतों की कोई कीमत ही नहीं। गृहस्थी हमारी, बच्चें हमारे, जचकी हमारी बिटिया की, और हमसे कुछ पूछने की भी जरुरत नहीं समझी किसी ने। पर अपना ही सिक्का खोटा हो तो कोई क्या करे? हमारी कमजोर हालत। एक तो पगार बहुत कम है, दुसरे मेरे विवाह के बाद से, हमारी गृहस्थी ही ससुरजी के भरोसे चल रही है। सारा खर्च वे ही उठाते है। इसलिए हमारे भोलेनाथ कुछ भी बोलते ही नहीं है। कुछ भी कहो तो हमेशा इनका एक ही रटारटाया जवाब रहता है, ‘दादा तय करेंगे, क्या करना है।’ फिर कोई क्या कर सकता है? हमेशा मन मार कर रहना पड़ता है। अच्छा,ससुरजी इनसे हमेशा कहते है कि उनके साथ थोडा ब्याजबट्टे का काम किया करो, तो इनका वैसे जोर जबरदस्ती का स्वभाव नहीं होने से ये उस काम के लिए तैयार नहीं होते। इसलिए हमें ससुरजी की नाराजी कुछ ज्यादा ही झेलनी पड़ती है । रुपये पैसे ससुरजी के ताले में रहते है तो भंडारघर की चाबियां माई के पास रहती है। हमें तो जैसे ढोरों जैसे ही रहना है।’ नानी बोले ही जा रही थी। ‘अरी आवडे, कितना सोचती है तू? कितना बोले जा रही है? जुबान को थोडा आराम दें।’ काकी बोली। ‘माँ तुम भी ना? यहाँ पल पल दम घुटा जा रहा है और तुम कहती हो जुबान को आराम दें? कैसा आराम? कैसे शांति रखूं? तू भी मुझें ही उपदेश दिया कर।’ नानी झल्लाई।
‘झल्लाने की जरुरत नहीं आवडे। ‘काकी बोली। मै तेरे को उपदेश नहीं दे रही। शांत हो जा तू। ये सब ऐसे ही चलते रहने वाला है। तू क्या मुझे वही सब बताये जा रही है?मै सब जानती हूँ। तेरे बार बार बताने से हालात बदलने वाले नहीं है। पर देख,मै तुझे कुछ अलग ही बताने जा रही हूं।’
‘अब क्या है?’
‘मै जो कह रही हूँ वह ध्यान से सुन। डर मत और चिंता भी मत कर। ‘काकी ने कहां, ‘हर एक को हर एक परिस्थिती का गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और हर संकट का सामना करने के लिए खुद को तैयार करने की मानसिकता बनाए रखने की जरुरत भी है। अक्का की हालत तुमसे छुपी नहीं है। रामजी उसे मेरी भी उम्र दे दे। सबकी लाडली बड़ी गुणी बिटिया है अक्का। पर हमारे सोच विचार से क्या होता है? हर एक का नसीब अलग अलग होता है। वो कहते है ना आदमी को पहले बुरे का सोचना चाहिए। अशुभ की कल्पना पहले करना चाहिए। अक्का का कुछ भला बुरा हुआ तो इस बच्चे का क्या होगा? एक दिन का बच्चा है, बिन माँ के कितने दिन बच सकेगा यह?
‘माँ, मेरे मन में इसका तो विचार ही नहीं आया। क्या होगा इस बच्चे का?’ नानी बोली।
‘मै वही तो तेरे को समझाने की कोशिश कर रही हूँ। ‘काकी बोली, ‘आवडे, मेरे भी दिन अब बहुत ज्यादा नहीं बचे। सब नसीब के खेल है। मेरी बेटी की ससुराल में मेरे प्राण तो अटके ही है, शायद मेरी आत्मा भी यही भटके।’
‘माँ तुम ऐसे क्यों कह रही हो?’
‘तुम्हारे दरवाजे आसरा मिला। तुम सब लोगों में मन रम गया और खुद का भी यही प्रारब्ध मान लिया। परन्तु अब अक्का के इस एक दिन के बच्चे के पीछे कही आत्मा भटकती न रह जाए।’
‘साफ़-साफ़ कहों क्या कहना है तुमको?’ नानी ने काकी से पूछा।
‘समधीजी ने मुझे इस बच्चे को सम्हालने की जिम्मेदारी सौपी है। तुम सब लोगों के उपकार को कर्ज मान उसे उतारने हेतु मेरी आखरी सांस तक मैंने इस बच्चे की देखभाल करने का तय किया है। परन्तु उसके लिए मुझे तुम्हारी मदद की जरुरत पड़ेगी।’ ‘माँ, तुम क्या कह रही हो यह मेरी समझ में नहीं आ रहा। तुम क्या और मै क्या? दामादजी का बेटा है। वें जैसा कहेंगे और जैसा तय करेंगे वैसा ही हमें करना होगा ना? और भला मेरी क्या मदद लगेगी तुम्हें? और जरा सोचो इस उम्र में तुम इसे सम्हाल पाओगी क्या? वो कुछ नहीं, मै कल ही रामाचार्य वैद्यजी से साफ़ साफ़ बात करती हूँ। बाद का बाद में देखेंगे।’
‘तुम्हारे रामाचार्य वैद्यजी सिर्फ वैद्य ही है। वों भला क्या बताएँगे तुमको? अब मै ही तुमको बताती हूं। ध्यानपूर्वक सोचना। अभी थोड़ी देर पहले ही मैंने बच्चे को शहद चटाया है। आज दूसरा दिन है। अक्का की हालत तो तुझे पता ही है। अब तुरंत इस बच्चे को दूध पिलाना जरुरी है। इसलिए हाल फिलहाल तू इस बच्चे को अपना दूध पिला दें। ‘काकी गंभीरतापूर्वक बोली।
‘क्या?’ नानी एकदम दचक गयी, ‘माँ तुमने ये क्या लगा रक्खा है? मेरे गोपाल ने हाल ही में अभी दो महीने ही पूरे किए है। उसको लू या इसे लू। मुझसे ये नहीं होगा।’
‘गोपाल तो अभी सो रहा है, इसलिए फिलहाल तू इसे लेले। कल का कल देखेंगे।’
‘नहीं लूंगी।’ नानी ने जोर से कहाँ, ‘सब क्या कहेंगे?’
‘लोगों की चिंता मत कर। इस बच्चे का जिन्दा रहना महत्वपूर्ण है। लोग क्या कहेंगे ये कतई महत्वपूर्ण नहीं है। ‘रमाकाकी बोली। ‘नहीं लूंगी।’ नानी ने फिर जोर से कहाँ।
‘आवडे, मै कह रही हूँ ना ले ले। ‘काकी ने तनिक जोर से कहाँ, ‘इसकों ले ले। तुझे मेरी कसम। ‘काकी ने तो मेरे ही लिए अपनी बेटी को कसम में बांध दिया।
‘सिर्फ एक बार।’ नानी बोली, ‘पर किसी को कानों कान भी खबर नही होनी चाहिए।’ नानी ने कमरे का दरवाजा बंद किया। मुझे अपनी गोद में लिया। उस रात मेरी परनानी की कसम के कारण मेरी नानी ने मुझे पहली बार दूध से परिचित करवाया। – मै जब दूध पी रहा था तब अचानक ही मेरी माँ के करहाने की आवाज सुनाई दी। नानी घबरा गई। उसने तुरंत खुद को सम्हाला मुझे काकी को सौप दिया और नानी तुरंत माँ के पास आई। मै रोने लगा थाI
‘माँ …..! ‘मेरी माँ करहाते हुए अपनी माँ से बोली, ‘ठहर ..क्यों …गयी..? ले… ले.. ना.. मेरे.. बच्चे को। अब .. मेरा .. कोई… भरोसा… नहीं… है… लेकिन …अब.. मै.. निश्चिंत.. हूँ। मेरे… बच्चे …का …ख़याल… रखेगी…. ना…. माँ… तू ? ‘माँ की आवाज क्षीण होती जा रहीं थी। नानी कुछ भी नहीं बोली। सिर्फ मेरी माँ की ओर एकटक देखे जा रही थी।
‘अक्का, तू मत सोच अभी कुछ भी। तू सिर्फ अपनी तबियत का सोच। जल्दी ठीक हो जा। ‘काकी बोली। माँ ने कुछ भी नहीं कहा फिर उसके मुंह से सिर्फ एक ही शब्द निकला, ‘पा …. नी…. ‘
काकी तुरंत पानी का छोटा गिलास लिए माँ के पास आई। एक चम्मच औषधि जल उसने माँ के मुंह में डाला, पर दूसरा चम्मच काकी मेरी माँ के मुंह में नहीं डाल पायी। मुंह में डाला हुआ पानी तुरंत बाहर आ गया और काकी के मुंह से जोर से चीख निकली,’…अ…क्का ..’
मेरा तो सुख-दु:ख से कोई परिचय ही नहीं था पर जिनका सुख दु:ख से नजदीक से परिचय था वे सब तुरंत कमरें में आ गए।

माँ निष्प्राण हो गयी थी। सबसे पहिले काकी आगे आयी। उसने मुझे उठा लिया और मेरी माँ से दूर किया। वैसे भी मेरी माँ अब मुझसे हमेशा के लिए ही दूर हो गई थी और अब वो मेरी माँ भी नहीं थी। बस थी एक मृत देह। काकी मुझे लेकर दूर एक कोने में बैठ गयी। नानी अभी भी माँ की निष्प्राण मृतदेह के पास बैठी देह में प्राण वापस लौटने का इन्तजार कर रही थी। उसकी आँखों से सिर्फ आंसू ही बहे जा रहे थे। उसकी लाडली अक्का की ठीक से देखभाल न कर पाने की विवशता उसे ज्यादा रुला रही थी। अक्का की ससुराल वालों का वो कैसे सामना करेगी इससे वह कुछ ज्यादा ही भयभीत थी।
माई की आँखों में भी आंसू थे। पर उन्होंने नानी को धीरज बंधाने का प्रयास किया, ‘आवडे, मत रो ज्यादा। सम्हाल अपने आप को।’ ‘कैसे सम्हालू माई? तुम ही बताओं? मुझे तो अपने आप पर ही झुंझलाहट हो रही है। मै निराश हो गयी हूँ। अब क्या होगा? अक्का के दो बच्चें। कौन इनकों सम्हालेगा? क्या होगा इनका? अक्का चली गयी उस दु:ख से ज्यादा अब इन बच्चों की चिंता सताए जा रही है।’
‘आवडे, मै समझ रही हूँ तेरी भावनएं। अक्का के शरीर से प्राण क्या गएं ऐसा लगता है इस एक दिन के बच्चे की फिर से किसी ने नाल ही काट दी है और शायद सब रिश्तें ही ख़त्म कर गया है कोई। मुझे तेरी चिंता और तेरा डर समझ में आ रहा है। पर तू चिंता मत कर हम सब है सम्हालने के लिएं। तू अकेली नहीं है। मत रो।’ माई बोली।
नानाजी, पंतजी और घर के और बाहर के सब पुरुष इस अनपेक्षित संकट से स्तब्ध थे। पर उन्होंने औरतों से कम समय लिया खुद को सम्हालने में और तुरंत आगे की व्यवस्था में लग गए। माँ का मृत देह कमरे से बाहर लाकर मंदिर से लगे बाहर के बरामदे में रखा गया। अब कमरे में नानी, माई, काकी और मैं इतने ही लोग थे। काकी को रात की ठंडी हवा के झोंके सहन नहीं हो रहे थे। उन्होंने मुझे अच्छे से कुछ और पुराने कपड़ों में लपेट लिया और खुद की शाल से भी मुझे अच्छे से ढक लिया।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – ०७ में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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