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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग -०३

लेखक
विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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रिश्ते आदमी को जन्म से ही अपने आप मिल जाते है। भले ही रिश्तों का कोई आकार प्रकार ना हो, परन्तु रिश्ते धीरे-धीरे अपने आप जुड़ते जाते है और श्रृंखलाबद्ध हो जाते हैI अटूट बंधनों में बंध जाते हैं। कुछ रिश्ते अचानक कोई लॉटरी खुल जाए ऐसे भाग्योदय जैसे उस लॉटरी में खुले इनाम की तरह मिल जाते है। जैसे परिवार में किसी की शादी तय होती है और वरमाला पड़ते ही अचानक कई सारे रिश्ते जुड़ जाते है। कुछ रिश्ते पुष्प जैसे होते है, खिलते जाते है, बहार लाते रहते है, महकते जाते है और हमेशा खुशबूं ही बिखेरते रहते है। गुलाब की पंखुड़ियों में अक्षरों से लिपट जाते है।
कुछ रिश्ते पत्थर जैसे जडवत रहते है। अक्षरशः गले में पत्थरों की माला जैसे बोझा बन लटकते रहते है और उन्हें जबरन ढोते रहना पड़ता है। कुछ रिश्ते मन में चिडचिडाहट पैदा करने जैसे होते है। बिलकुल हैरान परेशान कर जाते है। कुछ रिश्ते मिठास लिए होते है। कुछ रिश्ते भावनाओं का अम्बार होते है। कुछ रिश्ते निर्मित होने के पाहिले ही विश्वास के संकट से रूबरू हो जाते है और ख़त्म हो जाते है तो कुछ रिश्ते जबरन ख़त्म कर दिए जाते है। कुछ रिश्तों की हमें सदैव लालसा रहती है तो कुछ रिश्ते हमें नापसंद रहते है। कुछ रिश्तों के लिए मृत्यु को भी आव्हान देने के लिए कोई आगा पीछा नहीं सोचता, तो कुछ रिश्तों को मृत्यु के मुंह में धकेलने से भी किसी को कोई संकोच नहीं होता। कुछ रिश्ते मैत्री का अपनापन देकर जाते है तो कुछ रिश्ते कट्टर दुश्मनी में बदल जाते है। कुछ रिश्ते हल न हो सकने वाले गणित की तरह होते है, और कितना भी प्रयत्न करले आखिर तक रिश्तों का गणित हम हल नहीं कर पाते और उस गणित का उत्तर हमें मालूम ही नहीं होता। कुछ रिश्ते जिन्दगी में उलझन बन जाते है और लाख प्रयास कर ले रिश्तों की उलझी डोर को हम सुलझा नहीं पाते और वे ज्यादा ही उलझते जाते है। कुछ रिश्ते खोज कर सामने लाना पड़ते है और रिश्तों को परवान चढ़ने में भी समय देना पड़ता है। इसमें अधीरता नहीं चलती और तत्काल परिणाम की आशा करना मुनासिब नहीं होता।
हर एक रिश्ते का महत्त्व समझने में भी समय लगता है, और उसका महत्व समझे तब तक वह रिश्ता ही कालबाह्य होकर न जाने कहाँ खो जाता है और अपना महत्व ही खो बैठता है। फिर शेष रहती है सिर्फ यादें। कुछ रिश्तों की यादें हमें हैरान-परेशान कर जाती है। कुछ रिश्तों की यादें आग का दरिया बन जाती है। हमेशा जलाती रहती है। एक दर्दनाक अंत तक हमें जीने नहीं देती। कम्बख्त इन रिश्तों का रंग भी अलग अलग परिस्थितियों में अलग अलग होता है।
‘मैं था मैं नहीं था’ इस उपन्यास का बाल नायक उसके जन्म से ऐसे ही सभी स्थायी रिश्तों की खोज में है। उसके एक रिश्ते की खोज पूरी हो भी नहीं पाती कि उसके सामने दूसरा ही कोई नया चेहरा रिश्ता बन कर खड़ा रहता है। रिश्ते जीवन के प्रवाह में प्रारब्ध के साथ बहते हुए किसी स्थायी मजबूत किनारे का काम भी करते है। कुछ रिश्ते खुद खोजने पड़ते है तो कुछ रिश्तों की पहचान करवानी पड़ती है।
‘मै था मै नहीं था’ का बालनायक अपने रिश्तों की खुद होकर ही पहचान करने में जी जान से लगा हुआ है। जिन्दगी के इस सफ़र में उसे जीवन की कठोर खुरदरी राह पर ओर सुलझे अनसुलझे रिश्तों का परिचय करवाने के लिए उसके अपने भी साथ है। उसे रिश्तों की गर्माहट, रिश्तों का रूखापन, रिश्तों की चंचलता, और रिश्तों के ठंडेपन से समय समय पर रूबरू करवा रहें हैं। वैसे भी रिश्तों का भावनाओं से नजदीक का संबंध रहता है और व्यवहार से शायद थोड़ी दूरी। व्यवहार के लिए योग्यता और पात्रता जरुरी है। इस हाथ दे उस हाथ ले का समान व्यवहार जरुरी है, और इस अबोध उम्र में ये कैसे संभव है ? परन्तु भावनाएं जन्मजात ही हमें मिलती है। ‘मैं था मैं नहीं था’ का बालनायक अबोध मासूम और निर्लिप्त उम्र में ही खुद की भावनाओं में लिप्त खुद की ही भावनाओं से और व्यवहार के साथ दो चार हो रहा है। परन्तु उसके साथ होने वाले व्यवहार का अर्थ समझने में वो असमर्थ है।
‘मै था मै नहीं था’ का बाल नायक बिलकुल अपने जन्म के पाहिले ही क्षण से जीवन के लिए संघर्ष कर रहा है। उसका अस्तित्व है परन्तु उसके अस्तित्व का एहसास औरों को नहीं है और उसके परिस्थितियों के बारे में भी सब अनभिज्ञ है। एहसास के लिए रिश्तों को समझना और उन रिश्तों से वैसी अपेक्षाएं रखना, और अपनी ओर से उनकों समझना एवं वैसा आचरण तथा व्यवहार करना और वैसे ही खुद के जीवन में अंगीकृत करना, रिश्तों के छक्के पंजे, इन सब का गहराई से अध्ययन करना जीवन के लिए भी उपयोगी होता है। इसलिए रिश्तों की दुनिया में व्यवहार में भी समझदार होना बहुत जरुरी होता है।
रिश्तों के खेल में हर एक के स्वभाव का अपना एक ख़ास ऐसा महत्व होता है। एक जैसे स्वभाव के लोग मिलते ही अक्सर जल्द ही मित्र बन जाते है। बाहर की दुनिया में एक जैसे स्वभाव, समान पसंद नापसंद के लोग खोजने से मिलते है, परन्तु जीवन के सफ़र में हर एक घर में रिश्तों का हार, हर एक के गले में अपने आप आ जाता है। और रिश्तों के फूलों वाला यह हार काँटों सहित प्रत्येक व्यक्ति को जीवन से मृत्यु तक ढोते रहना पड़ता है। अक्सर गले में पड़ा रिश्तों का यह हार ताजा भी नहीं रहता और उसका निर्माल्य भी नहीं बन पाता। कुछ समय के लिए निकाल कर उसे खूंटी पर भी नहीं रख सकते। गले से निकाल कर फेंक भी नहीं सकते। समय और जरुरत के दों फूलों से निर्मित रिश्तों का यह हार हम अस्वीकार भी नहीं कर पाते, और अपनी सुविधा के अनुसार स्वीकार करना स्वार्थ कहलाता है। सब कुछ बहुत मजेदार ही है, लेकिन दुनिया तो इसी पर टिकी है?
रिश्तों की वेदनाए बहुत कष्टप्रद होती है। वेदनाओं के कारण अक्सर रिश्ते झुलस जाते है। कभी कभार एखाद रिश्तें के कारण सभी रिश्तों को भी अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है।
मै था मतलब अस्तित्व होना और मै नहीं था मतलब अस्तित्व होकर भी उस अस्तित्व को सभी के द्वारा नजरअंदाज कर देना। सच तो यह है कि यह उपन्यास भले ही आत्मकथनात्मक हो परन्तु वास्तविकता को कल्पना का आवरण थोडा ज्यादा ही दिया है। कथानक बुने जाने हेतु यह आवश्यक था।
विगत दस वर्षों से मेरे मन में इस उपन्यास का कथानक सजीव हो रहा था। बीते पाच वर्षो में मै यह उपन्यास पूर्ण कर पाया। सच तो यह है की इस कहानी को लिखना मेरे लिए थोडा कठिन था। क्योंकि इसका नायक बालक होकर भी यह बच्चों के लिए लिखा गया बाल उपन्यास न होकर, वस्तुतः यह बड़ों के लिए लिखा गया है। इस एक नये प्रयोग में एक कथा के साथ अनेक कहानियां है। ‘मै था मै नहीं था’ के अबोध और मासूम बाल नायक को उसके रिश्तों की खोज में जो रिश्ते मिलते है वें रिश्तें भी अपनी असीम वेदना लिए जी रहे है, और उन सभी की कहानियाँ भी इसमें शामिल है।
बिन माँ के इस नन्हे नायक का जीवन वेदनामय ही है। अपनी परिस्थितयों से वो अपनी क्षमता के अनुसार संघर्ष कर रहा है। और नियति से ही क्यों न हो आधे-अधूरे अपने प्रारब्ध के साथ कुछ अपने उसके हमसफ़र भी साथ हो लिए है। उसके सुख-दु:ख के पलों को बाटना चाहते है। परन्तु निष्ठुर नियति किसे छोड़ती है। तो भी ये मासूम नसीब से दो-दो हाथ करने को सदैव तत्पर है।
मूलरूप से मराठी में लिखे गए ‘मी होतो मी नव्हतो’ इस उपन्यास को फरवरी २०१६ में ठाणे, मुंबई के अनघा प्रकाशन, द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका विमोचन महाराष्ट्र के जलगाव में दिनांक १६ फरवरी २०१६ को मराठी के अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों, श्री मधु मंगेश कर्णिक, भारत सासने, अरुण म्हात्रे, प्रकाशक पिता-पुत्र, श्री मुरलीधर नाले एवं अमोल नाले, तथा अनेक गणमान्य मान्यवरों के तथा, महाराष्ट्र के तत्कालीन मंत्री माननीय एकनाथजी खडसे की उपस्तिथि में सम्पन्न हुआ था। तबसे ही मै इसके हिंदी अनुवाद के बारे में सोच रहा था। इस उपन्यास को महाराष्ट्र में उत्तम प्रतिसाद मिला। इसीलिए अब इस मराठी उपन्यास को, सुधारित और अनुवादित किए जाने की जरुरत महसूस हुई। और इस तरह इस उपन्यास की मूलभावना को सहेजते हुए एक तरह से यह मौलिक रचना हिंदी प्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत है………।
आपका विश्वनाथ शिरढोणकर ….🙏   उपन्यास आरम्भ …

मै था मै नहीं था


होता है क्या ईश्वर इस दुनिया में? देखा हैं क्या भगवान् किसीने कहीं? सब एक दुसरे से यहीं पूछते रहते हैं। मै क्या बता सकता हूँ? मुझे तो अभी कुछ मालूम ही नहीं है, और नाही इस दुनिया का मुझे कोई अनुभव हैं। मै तो अभी यह भी नहीं बता सकता कि ईश्वर का अस्तित्व मान्य करना चाहिए या उसके आस्तित्व को सिरे से नकार देना चाहिए?
सच बताऊँ अभी तो मेरा जन्म ही नहीं हुआ है। मै अपनी माँ के गर्भ में हूँ। आपको आश्चर्य हो रहा हैं? आप सोच रहे होंगे की मै कैसे बोल सकता हूँ? पर अभिमन्यु अगर अपनी माँ के गर्भ में युद्ध कौशल्य सीख सकता हैं, तो क्या मै आपसे संवाद स्थापित नहीं कर सकता? वैसे अब समय भी आ ही गया है, परन्तु ईश्वर कब मुझे जन्म देगा ये इस संसार में कौन बता सकता है?
मुझे तो यह भी पता नही है की ईश्वर ने ‘आत्मा‘ जैसी कोई अज्ञात वस्तु मेरे ह्रदय में रखी है क्या? मेरा भाग्य कहे नियति कहे, कैसे होगा या कैसे होगी इस बारे में मै आने वाले अगले कई वर्षों में शायद सोच भी ना पाऊ? क्योकि ऐसा कहते है की, कौन कहा जन्म लेगा, किसके यहाँ जन्म लेगा, किस घराने में, किस शहर में, किस देश में जन्म लेगा यह वही तय करता है। इससे बढ़ कर मजेदार बात और कौन सी हो सकती है? है की नहीं?
फिर भी चूंकि अब मै जन्म लेने ही वाला हूँ, इसलिए मेरे भाग्य से पहले मेरे जन्म के बारे में तो सोचना ही होगा ना? अब इतना तो तय है की जन्म का समय नजदीक आने से यह बात निश्चित हो गयी है की उपरवाले ने इस परिवार में किसी लक्ष्मी की बजाय एक सुन्दर खुबसूरत (इन शब्दों के उपयोग का हक़ मेरे जन्म के बाद ही इस परिवार के लोगो को है) बालक को भेजना तय किया है। एक बात तो तय है की इस घराने को, रोते-रोते ससुराल जानेवाली, तीज त्योहारों पर और शादीब्याह जैसे समारोहों के अवसर पर बार-बार मायके आने वाली एक बिटिया नहीं मिलने वाली। यही इसी घर में खूंटा गाड़कर बैठनेवाला एक कुलदीपक मिलने वाला है।
पर मेरा जन्म कैसे और किन परिस्थितयों में होने वाला है यह किसे पता है? मेरा मतलब, मेरा जन्म कृष्ण जैसा होने वाला है, जहां जन्म होते ही वासुदेव को एक दिन के बालक कृष्ण को टोकनी में रख कर, मध्यरात्रि में मुसलाधार बारिश में और गले-गले तक पानी में यमुना नदी पार कर के गोकुल में जाकर यशोदा के यहाँ छोड़ना पड़ा था। देवकी ने अपने सीने पर बड़ा सा पत्थर रख कर अपने कलेजे के टुकड़े को खुद से दूर किया था। एक माँ का बालक की सुरक्षा के लिए किये गये इतने बड़े मातृत्व के त्याग का उदहारण और कहाँ मिल सकता है? मेरे कहने का तात्पर्य यह है की मेरे जन्म के कारण कहीं मेरे माता-पिता पर कोई संकट तो नहीं आने वाला? या जिस तरह कुंती ने कर्ण को जन्म देते ही एक टोकनी में रख कर बिना आगे पीछे का विचार किये गंगा मैया के हवाले कर दिया और तेज बहते धारे में इत्तफाक से कर्ण बच गया और उसका लालनपालन माता राधा ने किया और पांडवों का बड़ा भाई होकर भी जिन्दगी भर उसे सूत पुत्र के तानें सुनने पड़े। कर्ण एक शुरवीर होकर, दानवीर होकर जीवन पर्यन्त अपमानित होकर हीन भावना से ग्रसित होता रहा। ठीक उसी तरह मेरे जन्म के बाद मेरे माता-पिता की ओर से कोई अनहोनी तो नहीं होगी? कोई बड़ा संकट, कोई तूफ़ान तो नहीं आएगा?
अभिमन्यु जैसे माँ के गर्भ में हर एक के लिए कुछ सीखना भला कैसे संभव हो सकता है? मेरे सामने तो ऐसे चक्रव्यूह पैदा नहीं होंगे ना जिन्हें भेदना मेरे लिए सम्भव ही नहीं होगा? या मेरा जन्म भगवान् रामचंद्रजी जैसा होगा जहां जेष्ठ युवराज होते हुए भी और सत्ता सुख और संसारसुख भोगने के बजाय उनके भाग्य में वनवास लिखा था। अपनों से दूर होना पड़ा, पिता का वियोग सहन करना पडा, और इससे बढ़कर बिना किसी कारण के लक्ष्मण जैसे भाई को भी १४ वर्ष पत्नी वियोग में जंगल-जंगल भटकना पड़ा था। इसका दोष भी रामचंद्रजी का ही कहलाया ना? इतना होने पर भी निष्ठुर नियति यही नहीं रुकी। वनवास में भी विपन्न अवस्था में खुद की पत्नी को रावण द्वारा भगाए जाने का संकट झेलना पड़ा था। इससे बढकर दु:ख और शर्मिंदगी भला क्या हो सकती है? और वनवास भी आसानी से व्यतीत हो ऐसा नहीं था। वैसे सच तो यह है कि जिन्दगी में हर एक को कभी न कभी वनवास भोगना ही पड़ता है। इस दुनिया में आना, वनवास भोगना, और वापस उसी दुनिया में जाना। मेरा भी ऐसा ही होगा क्या? जिन संकटों का हम सामना ही नहीं कर सकते वें संकट ईश्वर इस मासूम उम्र में हमें देता ही क्यों है?
आखिर मैं इतना क्यों सोच रहा हूँ? अभी तो मुझे जन्म लेना है। मेरे माँ बाप कौन होंगे यह तो अब तय हो ही चुका है। सिर्फ मेरा चेहरा वें और उनका चेहरा मैं, मेरे जन्म के बाद ही देख पाएंगे। पसन्द-नापसंद या के माँ बाप चुनने का विकल्प ईश्वर ने इन्सान को दिया ही नहीं हैI दोनों की ही मज़बूरी समझिए। पर अब तो माँ-बाप तय हो गए मतलब रिश्तेदार भी तय हो ही गए है। सिर्फ एक दुसरे को पहचानना भर बाकी है।

दिसंबर का महीना। पूनम का दिन और दत्तजयंती भी है। क्या तो कडाके की ठण्ड पड़ रही है। माँ को महसूस हो रही है और उसके कारण मुझे भी महसूस हो रही है। सुबह से ही माँ अस्वस्थ सी लग रही है, और बेचैन भी है। खटिया पर ही दिनभर लेटी हुई है। अब मेरी माँ, मतलब उसका परिचय तो आपको देना ही होगा तभी तो हम आगे बढ़ सकेंगे।
मध्यप्रदेश के ग्वालियर शहर में जनकगंज में बक्षी की गोठ नामक एक गली है। इस गली में सखारामपंत के कई मकान है। उनमें से एक बड़े से मकान में उनका पूरा कुनबा रहता है। सच तो यह हैं कि मकान गिरवी रख कर साहूकारी ब्याज पर जरूरत मंदों को रुपये उधार देना यही उनका व्यवसाय है। वैसे कहने को अपनी सेवानिवृत्ति के पूर्व, वे शासकीय माध्यमिक विद्यालय, जनकगंज में शिक्षक भी थे। परन्तु उनका मुख्य पेशा उधार देने का ही था। और ख़ास बात यह की उनके पास एक पालतू टट्टू (खच्चर) भी था और वै उसी पर बैठ कर विद्यालय भी जाते थे। विशेष उल्लेखनीय यह की टट्टू पर सवारी के कारण शहर में वे ‘टट्टू मास्टर’ के नाम से प्रसिद्ध थे। इन सखारामपंत के इकलौते पुत्र रामचंद्रराव, वें भी शासकीय माध्यमिक विद्यालय, जनकगंज में गणित के शिक्षक है। रामचंद्रराव ‘सोनुभैय्या’ के नाम से मशहूर है। इन्हीं सोनुभैय्या की सबसे बड़ी कन्या ‘कुसुम’ के गर्भ से ही मैं जन्म लेने वाला हूं। जन्म के बाद मेरी कहलाने वाली माँ (अभी मेरा जन्म नहीं हुआ है) को इस घर के सभी स्नेह से ‘अक्का’ कहकर संबोधित करते है। इस अक्का का मैं दूसरा जन्म लेने वाला पुत्र कहलाऊंगा। दूसरा इसलिए की मेरी माँ की यह दूसरी प्रसूति होगी और तीन वर्ष का मेरा एक बड़ा भाई भी है। धीरे-धीरे, मेरे जन्म के बाद आनेवाले दिनों में सभी का परिचय होगा। आपका भी और मेरा भी।
नानी की, मतलब मेरी माँ की माँ की भागदौड थमने का नाम नही ले रही। वों बेचारी भी क्या करेगी? उसे भी तीन माह का एक बेटा है। ऐसे में अपनी बेटी की जचकी, निर्विघ्न निभाने की जिम्मेदारी भी उसी की है। ऊपर से मेरी माँ के अलावा नानी के छह और बच्चें है। भरापूरा कुनबा। सास, ससुर, ननद, जमाई, और आनेजाने वालों का हरदम रेला। वों बेचारी कहाँ कहाँ ध्यान देगी और क्या क्या तो देखेगी? पर रामजी है ना सभी का बेडा पार करने के लिए? इस बाड़े में प्रभु रामचंद्रजी का एक पुराना मंदिर भी है और पूरे परिवार की प्रभु रामचंद्रजी में अट्टूट श्रद्धा, भक्ति और आस्था है।
गोधुली की बेला। दिया बाती के बाद रात के रसोई की तैयारी शुरू होने ही वाली थी की मेरी माँ की तबियत कुछ ज्यादा ही खराब होने लगी। मेरी होने वाली नानी जानकीबाई तुरंत दौड़ कर कमरे में आई। मेरी माँ के सर पर ममतामायी हाथ फेरते हुए बोली, हं .. अक्काबाई, बिलकुल चिंता नही करना …. और घबराने की तो बिलकुल भी जरुरत नहीं। अब समय आगया है। मैं हूँ ना? बिलकुल नहीं घबराना। मैं इनको बुलाती हूं। दुर्गाबाई दाई को तुरंत बुलवा लेती हूं।
बाहर हवा में इतनी ठंडक थी की सोनुभैय्या, मतलब मेरे होने वाले नानाजी रजाई ओढ़े, कपकपांते, बीडी के कश लगाते, दूसरी मंजिल के उनके कमरे में बैठे थे। ऐसे में ही मेरी नानी ने उनकों बुलावा भेजा। उनके आते ही बोली, ‘सुनिए जी! बीडी पीते क्या बैठे हो? अक्का को ज्यादा दर्द हो रहा है। तुरंत दुर्गाबाई दाई को बुला लाइए, और हाँ रात का समय है, दाई को साथ ही लेकर आइए। ‘इस समय?’
‘हां इसी समय।’
‘अरे, बाहर तो कर्फ्यू लगा हुआ है। पुलिस की गश्त भी चल रही है। इस समय दुर्गाबाई दाई को कैसे बुला सकते है …… ?’ नानी ने नाना को आगे बोलने ही नहीं दिया, ‘हाँ इसी समय बुलाना होगा। अजी जचकी कर्फ्यू से रुकनेवाली है क्या? बोलिए उन गोरों के सिपाहियों को। वैसे भी अब चार छ: महीने में अपना मुंह काला कर उनके देश जाने ही वाले है ना?’ ‘अरे हाँ …. निश्चित ही देश को स्वतंत्रता मिलनेवाली है। पर अंग्रेजों की वापसी के लिए अभी थोडा समय लगेगा। और फिर अभी तो उनकी ही व्यवस्था है ना?’
‘मुझे कुछ नहीं मालूम। आप तुरंत जाइए और दुर्गाबाई दाई को साथ लेकर आइए।’
‘ठीक है… मै देखता हूँ क्या किया जा सकता है।’
कपकपांती ठण्ड के कारण मेरे होने वाले नानाजी की रजाई छोड़ने की कतई इच्छा नहीं थी, परन्तु उनकी लाडली बिटिया की जचकी का सवाल था। देश को स्वतंत्रता मिलने की घोषणा हो चुकी थी परन्तु वो दिन आने में अभी समय था। इसके अलावा दंगे-फसाद शुरू ही थे। दोपहर को ही बाड़े पर साम्प्रदायिक दंगों में दो युवकों की मौत के कारण पुरे इलाके में कर्फ्यू लगाया गया था। पर नानाजी क्या करते? मजबूरन नानाजी घर के बाहर निकल पड़े।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – ०४ में

परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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