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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग ०२

वरिष्ठ साहित्यकार
भारत सासणे
पुणे

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प्रस्तावना

विश्वनाथ शिरढ़ोणकर द्वारा लिखित उनका नया मराठी उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ (मैं था मैं नहीं था) अनघा प्रकाशन ठाणे, द्वारा प्रकाशित किए जाने पर मुझे प्रसन्नता है।
कथानायक अपने बचपन की सहेजी हुई यादें अलगद बता रहा है। उसका बचपन सुखावह, आनंदी और स्मरणीय रहा हो ऐसा भी नहीं है। परन्तु ये यादें दु:खद है ऐसा भी नहीं है। छोटे बच्चों की नजरों से गुजरा हुआ भूतकाल वर्णन करने की शैली, इसके पूर्व भी कुछ मराठी के उपन्यासों में भले ही हमारे पढने में आयी हो फिर भी विश्वनाथ शिरढोणकरजी ने इस वर्णन के लिए बिलकुल सबसे अलग ऐसा एक नया प्रयोग किया है। उनका बाल कथानायक, ‘जैसे जैसे उसको याद आ रहा है’ वैसे वह सब बता तो रहा ही है परन्तु, उसके गुजरे हुए भूतकाल को समझ कर उस गुजरे जमाने को आज के परिवेश में निवेदन कर प्रस्तुत कर रहा है। उसकी अपने बीते समय को समझने की प्रक्रिया निरंतर चलती ही रहती है इसलिए घटनाओं का अर्थ बाद में भी समझा जा सकता है। शिरढोणकरजी का बाल कथानायक उसके कक्षा चौथी तक के ही घटनाक्रम को बता रहा है। परन्तु उन घटनाओं को वो सिर्फ बालसुलभ नजरों से नहीं देख रहा है। जो भी कुछ अच्छी बुरी नाटकीय घटनाएँ उसके बचपन से उसके परिवार में घटित हुई, वें घटनाएँ वों एक नाट्य निवेदक के रूप में वयस्कों जैसी संवेदनाओं के साथ बताता है। मतलब इतनी छोटी सी उम्र में बड़ों की जिन्दगी में जीने के लिए होने वाले संघर्ष की उसे ठीक से समझ संभव न हो, फिर भी वो बाल निवेदक उसके बचपन की क्रमबद्ध यादें सहज रीती से बताते हुए, उसके जीवन संघर्ष को आज के वातावरण में आज की परिपक्व नजरों से देखकर सहज सुलझाकर सामने रख रहा है। दुहेरी निवेदन की ये अनजाने ही बुनी गयी उपन्यास की शैली अपने विशिष्ट लक्ष को निश्चित ही प्राप्त कर लेती है। बालक के अनुभव और उसकी बुद्धि से परे, मृत्यु, प्रसूति, विवाह, इत्यादि वयस्कों के साथ होने वाली घटनाएं भी कथानायक उत्साह से अपनी याददाश्त के प्रवाह में बताते जाता है। तत्कालीन परिस्थितियों में जो कुछ भी विपदाएं बालक के इर्दगिर्द, उसके परिवार के, और समाज के समक्ष उत्पन्न हो रही थी वे भी वों इसी प्रवाह में बता रहा है। ये निवेदन का प्रवाह तटस्थता के साथ प्रकट होता रहता है और सुदैव से इस याददाश्त को भूलने का श्राप मिला हुआ नही है। बड़ों के मध्य होने वाले स्वाभाविक संवादों का प्रकटीकरण बाल कथानायक के समक्ष होता रहा, और यही संवाद जैसे के तैसे निवेदन में भी होने के कारण इनमें कृत्रिमता का दोष निर्मित होने की शक्यता होने के बावजूद निवेदक अपने बचपन में घटित घटनाओं को वर्तमान में उसकी याददाश्त के जरिए और वर्तमान परिस्थितियों के आकलन के अनुसार कहने के कारण ‘जैसे याद है’ वैसे सीधे वर्णन न कर भूतकाल समझाकर कहने का प्रयत्न करने के कारण भी उसका निवेदन कथित कृत्रिमता के दोष से मुक्त होता रहता है। यहीं शैली उपन्यास को विशिष्टता प्रदान करती है।
इस उपन्यास में जो भी तात्कालिक वातावरण और कालखंड के वर्णन करने का प्रयास किया गया है वह कालखंड और तात्कालिक वातावरण महाराष्ट्र से बाहर का है। इसलिए उस वक्त के कालखंड में ग्वालियर, सागर, उज्जैन, बुरहानपुर, पथरिया आदि क्षेत्र में मराठी भाषिकों के जीवनयापन पद्धति के बारे में भी ये उपन्यास भाष्य करता है। स्थानीय परिस्थितियों से प्रभावित, तत्कालीन मराठी भाषा भी संवादों के माध्यम से झांकती रहती है, और निवेदक तटस्थता से इन सब घटनाओं पर अलिप्त भावनाओं से प्रकाश डालता रहता है। इसलिए यह सुखद यादों की शृंखला जैसे ‘रमणीय बचपन’ के बारे में भी कुछ नहीं बताती, वैसे ही दु:खद बचपन के बारे में भी कुछ नहीं कहती। जैसे-जैसे अनुभव प्राप्त होता जाता है, वैसे वैसे हौले-हौले, तटस्थता और अलिप्ततासे वर्णन करने का बाल कथानायक का स्वाभाविक आग्रह होता है। इसलिए यह एक अलग प्रकार की निवेदनात्मक शैली सिद्ध होती है और इस उपन्यास का अंत भी नहीं होता।
शायद लेखक को अपने बाल कथानायक की स्वाभाविक निवेदन शैली के माध्यम से इस उपन्यास को आगे भी लिखने की इच्छा हो। उसकी रचना लेखक को अवश्य ही करनी चाहिए। उपन्यास में तत्कालीन जीवन यापन पद्धति का प्रवाह कही भी अवरोधित नहीं हुआ है, इसके विपरीत वह स्वछन्द मानसिकता के साथ आगे भी निर्बाध प्रवाहित होता रहता है। अर्थात यह उपन्यास बाल कथानायक के आगे के जीवन क्रम को वर्णन करने की आवश्यकता निर्माण कर, पाठकों में भी इसकी उत्सकुता निर्माण करता है। कथानक के विस्तार की आवश्यकता और पाठकों की उत्सकुता को बनाएं रखने हेतु इस उपन्यास का भाग दो भी हमारे सामने शीघ्र ही आएगा ऐसी कल्पना हम कर सकते है। बाल मनोविज्ञान को समझते हुए तत्कालीन घटनाओं का अर्थ लगाने का सक्षम प्रयास शिरढोणकरजी ने किया है। इस हेतु उपन्यास में से एक संदर्भ का यहाँ उल्लेख करना उपर्युक्त होगा और इसीसे हमें अगले भाग के संकेत मिलते हैI
दादा के मन में ठीक इस समय क्या चल रहा था इसका अंदाज मुझे नहीं हो पा रहा था। पर मेरे मन में क्या चल रहा है इसका अंदाज दादा को था। मेरा ध्यान दादा की ओर गया। वे बड़ी देर से मेरी ओर देख रहे थे। मुझे देख कर हंस दिए। मेरे बालों को सहलाते हुए बोले, ‘चिंता मत करो। तुम अभी बहुत छोटे हो। बहुत सी बातें मैं तुम्हें आज नहीं समझा सकता। उसी तरह से तुम्हारे ढेर सारे प्रश्नों का उत्तर भी मैं आज नहीं दे पाऊंगा। जब तुम बड़े हो जाओगे तो धीरे धीरे सब बातें तुम्हारी समझ में आजाएंगी। और तब शायद तुम्हारे ढेर सारे सवालों का जवाब भी तुम्हें मिल सकेगा।
पर फिर काकी उनके प्रश्न हमेशा रामजी से क्यों पूछती रहती थी? उनकों उनके सवालों के जवाब क्यों नहीं मिलते थे? ‘अचानक मेरे मुंह से निकल गया’।
दादा को आश्चर्य हुआ। मेरे इस सवाल से वें असहज और निरुत्तर हो गए।
अब तुम धीरे धीरे बड़े हो रहे हो। इतने प्रश्न तो सुरेश भी नहीं पूछता। परन्तु फिर से कहता हूं तुम अभी बहुत छोटे हो। इतना मत सोचा करो। कई प्रश्नों के तो जवाब ही नहीं होते। मतलब जवाब होते है पर वे हमें मालूम नहीं होते। इसीको हम इसे भाग्य कहते है। तुम बेफ्रिक्र रहो। ‘सब ठीक हो जाएगा।’
शिरढोणकरजी से लेखक इस नाते, अनेक प्रश्न पूछना पड़ेंगे और उनकें जवाब भी उन्हें ढूंढने होंगे। एक अच्छा उपन्यास लिखने और प्रकाशित करने हेतु मै, क्रमश: श्री शिरढोणकर और अनघा प्रकाशन ठाणे का अभिनंदन करता हूँ और शुभकामनाएं व्यक्त करता हूँ।

भारत सासणे
पुणे

उपन्यासकार : विश्वनाथ शिरढोणकर


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