डॉ. चंद्रा सायता
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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बाहर हर तरफ सन्नाटे का राज था और बुजुर्ग दद्दा के मन के अंदर बहुत शोर तथा कोलाहल था।
“राज …बे ..टा। जरा …इधर आना, जरुरी काम है।” खाँसते-खाँसते दद्दा ने वाक्य पूरा किया।
दद्दा ने पास आए पोते राज के कान में कुछ कहा। उनके झुर्रियों भरे चेहरे पर जड़ी वीरान आँखें राज को याचना की दृष्टि से देखने लगी।
शशीन्द्र रोज आफिस जाने से पहले और आने के बाद अपने अठ्ठानवे वर्षीय बीमार पिता को कमरे में देखने आता था। बीच-बीच में उन्हें जरुरत की चीजें मुहैया कराने का काम बीवी और बच्चों के जिम्मे कर रखा था।
आज शाम जब शशीन्द्र दद्दा से मिलने आया, उसे बीड़ी की दुर्गंध का भान हुआ। उसने पलंग के सिरहाने जाकर लठकते तकिये को ठीक किया। कोई वस्तु नीचे गिरी, ऐसा लगा उसे।
“राज। ओ… रा..ज। कहाँ हो तुम? एक मिनिट के अंदर दद्दू के कमरे में आ जाओ। “शशीन्द्र का स्वर बहुत तीव्र और अत्यंत कर्कश था।
राज तत्काल हाजिर हो गया।
“तुम्हें अफने दद्दू से तनिक भी प्रेम नहीं है। तभी तूने ऐसी हरकत की। तुम्हें नहीं मालूम डाक्टरों ने उन्ह़े जवाब दे दिया था। तभी उन्हें घर ले आए थे।
शांतचित राज पिता को एक कोने में ले गया। आप सिर्फ दो मिनिट मेरी बात सुनिए।
“फाँसी के सजायाफ्ता अपराधी से भी उसकी अंतिम इच्छा पूछी जाती है, तो क्या मैं इस हालत में दद्दू को देखकर उनकी उत्कट इच्छा का मान नहीं रख सकता? मैने उन्हें केवल दो बीड़ी देकर बाकी तकिये के नीचे छुपा दी थी। पीछे से कश लेने की आवाज सुन दोनों दद्दा की ओर मुड़े।
“दद्दू को देखिए। कितने खुश ओर तरोताजा लग रहे हैं।”
उनके अंदर का शोर अब शांत हो चुका था। इसलिए अब उधके चेहरे पर मुस्कान का बसेरा था।
परिचय :- डॉ. चंद्रा सायता
शिक्षा : एम.ए.(समाजशात्र, हिंदी सा. तथा अंग्रेजी सा.), एल-एल. बी. तथा पीएच. डी. (अनुवाद)।
निवासी : इंदौर मध्य प्रदेश
लेखन : १९७८ से लघुकथा सतत लेखन
प्रकाशित पुस्तकें : १- गिरहें २- गिरहें का सिंधी अनुवाद ३- माटी कहे कुम्हार से
सम्मान : गिरहें पर म.प्र. लेखिका संघ भोपाल से गिरहें के अनुवाद पर तथा गिरह़ें पर शब्द प्रवाह द्वारा तृतीय स्थान
संप्रति : सहायक निदेशक (रा.भा.) कर्मचारी भविष्य निधि संगठन,श्रम मंत्रालय, भारत सरकार।
घोषणा पत्र : यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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