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नई पहल

राकेश कुमार तगाला
पानीपत (हरियाणा)

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आशा : माँ जी- आपको और पिताजी को तो मेरे काम में कोई ना कोई कमी हमेशा नजर आती है। आखिर क्या गलती है मेरी, जो आप हमेशा नाराज रहते हो? कभी तो मेरा उत्साह बढ़ाया करो। आपसे तो किसी तरह की उम्मीद रखना अपने आप को धोखा देने जैसा है।रोज-रोज की कहासुनी से, राजेश भी बहुत परेशान था। पत्नी की सुनता तो, जोरू का गुलाम कहलाता और माँ की सुनता तो, पत्नी कहती माँ के पल्लू से बंधे रहना जीवन भर। कभी मन में आता छोड़कर भाग जाऊं सब कुछ। ये खुद ही काम-धाम संभाल लेंगे।
शादी से पहले सब कुछ ठीक चल रहा था। माँ कहती थी मेरी बहूँ आएगी तो मैं उसे बहूँ नहीं बेटी की तरह रखूंगी। सास को बहूँ को बेटी ही मानना चाहिए। उस समय मैं सोचा करता था, मेरे घर में आने वाली लड़की बड़ी ही भाग्यवान होगी। जो उसे ऐसा परिवार मिलेंगा।आशा का स्वभाव थोड़ा सा तुनक-मिजाज था। वह छोटी-छोटी बातों पर मुँह फुला लेती थी। वह अपनी हर बात मनवाना चाहती थी। मैं भी उसे समझा कर थक गया था। माँ घर के किसी काम को हाथ ना लगती थी। बस खाली रहती थी, उनका स्वभाव बहुत रूखा हो गया था।
आज सुबह से घर में क्लेश मचा हुआ था। माँ लगातार आशा को कोस रही थी। मेरे घर में ऐसी बहूँ आई है, जिसने मेरा जीना-हराम कर दिया है। इससे तो अच्छा होता, भगवान मुझें उठा लेता है। राजेश- माँ, तुम ऐसा क्यों बोल रही हो? आशा अभी नासमझ है, उसे समझ आ जाएगी धीरे-धीरे। खाक समझ आ जाएगी उसे, माँ गुस्से में चिल्ला पड़ी। क्या यह बच्ची है, दो साल हो गए, तुम्हारी शादी को। इसमें अकल नाम की चीज नहीं है। और तू क्या हर समय इसका पक्ष लेता रहता हैं जोरू के गुलाम? जाकरअपनी जोरू के पल्लू में छिप जा। हर समय तुझे तो यह रूप-कला ही दिखती है। राजेश- माँ, के इस कटाक्षपूर्ण व्यवहार से बड़ा दुखी होता था। पर करता भी क्या?वह चुपचाप सब कुछ सहन कर लेता था।
पत्नी भी हमेशा उसे ही कहती- रहती थी कि तुम अपनी माँ को कुछ कहते क्यों नहीं? हमेशा उनके पल्लू की छाया तले रहना। कभी तो माँ को समझाया करो कि मेरे साथ अच्छा व्यवहार करें, वरना मैं आपको छोड़ कर चली जाऊंगी। तब तुम्हारे होश ठिकाने आ जाएंगे। तभी तुम्हें अपनी गलती का एहसास होगा। खैर तुम्हें कुछ समझना तो भैंस के आगे बीन बजाने जैसा है।
भगवान अब तो आप ही मेरे परिवार को इस मुसीबत से बाहर निकाल सकते हो। हे कान्हा जी, कुछ तो करो, इनकी बुद्धि किसी तरह से ठीक हो जाए। और घर से यह रोज-रोज का क्लेश दूर हो जाए। मैं अपने घर जा रही हूँ, आशा ने अपना फरमान सुना दिया। अब मुझसे और सहन नहीं होता। माँ जी, मानने वाली नहीं है, उन्होंने मेरा जीना-हराम कर दिया। उनके रोज-रोज के तानों ने मेरे मन को छलनी कर दिया है। मैं जा रही हूँ, तुम रहो अपनी माँ के साथ।
आशा अपना बैग उठाकर चल दी। मैं उसे रोकना चाह रहा था, पर माँ की आँखे, मुझें घूर रही थी। जैसे कह रही हो, जाने दे। मैं चुपचाप खड़ा उसे जाते देखता रहा। वह मेरी आँखों से ओझल हो चुकी थी।
आशा-माँ, मैं वह घर छोड़कर चली आई हूँ। अब कभी मैं वहाँ नहीं जाऊंगी, बस बहुत हो चुका। माँ-आशा, तुम कौन हो और यहाँ क्यों आई हो? तुम मेरी बेटी नहीं हो, चली जाओ यहाँ से। यह तुम्हारा घर नहीं है, जहाँ तुम्हारी शादी हुई है वही तुम्हारा घर है। आशा को अपनी माँ से इस तरह के व्यवहार की उम्मीद ना थी। वह खुद से कह रही थी, जब जन्म देने वाली माँ ऐसा कह सकती है तो और किसी से क्या उम्मीद रखनी? वह अंदर से टूट चुकी थी।
वह उल्टे पैर अपने ससुराल लौट आई। आकर अपने कमरे में जाकर खूब रोई। मन ही मन निर्णय लिया कि मैं अब कभी अपने सास-ससुर का मन नहीं दुखाऊगी। मैंने हमेशा अपने बारे में सोचा, परिवार की कोई परवाह नहीं की। वह रोज सुबह उठती सास-ससुर को चाय देती। चुपचाप काम करती, पति से बहस करना, उसने बंद कर दिया था। उसकी इस नई पहल से सारा परिवार बदल रहा था। सास- ससुर उसे आशीर्वाद देते नहीं थकते थे।
पति ने एक दिन अपनी सास को फोन पर धन्यवाद दिया। मम्मी जी, आपका फॉर्मूला कामयाब हो गया है। आशा सब कुछ सुन रही थी। पर नाराज नहीं थी, वह अपनी नई पहल पर खुश थी। वह खुद से कह रही थी। जब हम रिश्तों की कदर नहीं करेंगे, तो रिश्ते हमारी कदर कैसे करेंगे? पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे को देख कर मुस्कुरा रहे थे।

निवासी : पानीपत (हरियाणा)
शिक्षा : बी ए ऑनर्स, एम ए (हिंदी, इतिहास)
साहित्यक उपलब्धि : कविता, लघुकथा, लेख, कहानी, क्षणिकाएँ, २०० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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