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विराम चाहिए

विजय गुप्ता
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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हृदय स्पंदन ही अपवाद रहे,
बाकी जगह विराम चाहिए।

अंतर्मन से सृजनशील रहे,
तन को कुछ विश्राम चाहिए।

गुजरे वक़्त के कर्मकार में भी
कर्मठता का जलवा था

दायित्व बोध और मंशा को
वाक्य-विन्यासों का हलवा था

जीवन चक्र का मर्म यही है,
अवरोध विरोध अविराम चाहिए।

हृदय स्पंदन ही अपवाद रहे,
बाकी जगह विराम चाहिए।

संस्कार मिले सबको ऐसा
ना बने कभी मुखौटा जो

तन धन साथ रहे ना रहे,
वाणी का ना टोटा हो।

वक़्त रहते ना संभले तो,
क्या पूरा कोहराम चाहिए।

हृदय स्पंदन ही अपवाद रहे,
बाकी जगह विराम चाहिए।

पुतले भांति-भांति के जग में,
हमलों के कई आकार हैं

गमले अलौकिक बगिया के
ग़ज़लों के कितने प्रकार हैं

पुतले-हमले गमले-गज़लें
बस नितांत अभिराम चाहिए

हृदय स्पंदन ही अपवाद रहे,
बाकी जगह विराम चाहिए।

राम चलवाये बड़े जतन से,
कुछ पद-चिन्ह बनाने सोचा था

कर्म-भाग्य की सदा ठनी,
अवसर बना इक मोर्चा था

जीवन होड़ों में अनदेखी,
उन दौड़ों को पूर्ण विराम चाहिए।

हृदय स्पंदन ही अपवाद रहे,
बाकी जगह विराम चाहिए।

नेतृत्व शक्ति दिखलाने को
एक पूरा आवाम चाहिए

अपनी लकीर बढ़ाने वाला,
सुंदर सा पैगाम चाहिए

लोहा लेने वाली ताकत को,
मोदी जैसा अविराम चाहिए

घुड़दौड़ के शौकीनों सुन लो
कुतर्की बोली को लगाम चाहिए

धरातल से उठकर जो भी आया
उसको पूरा सलाम चाहिए,

विज्ञान संविधान की रक्षा को,
हे ईश्वर ‘अटल’ ‘कलाम’ चाहिए

अंतर्मन से सृजनशील रहें,
तन को कुछ विश्राम चाहिए

हृदय स्पंदन अपवाद रहे,
बाकी जगह विराम चाहिए।

परिचय :- विजय कुमार गुप्ता
जन्म : १२ मई १९५६
निवासी : दुर्ग छत्तीसगढ़

उद्योगपति : १९७८ से विजय इंडस्ट्रीज दुर्ग
साहित्य रुचि : १९९७ से काव्य लेखन, तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल जी द्वारा प्रशंसा पत्र
काव्य संग्रह प्रकाशन : १ करवट लेता समय २०१६ में, २ वक़्त दरकता है २०१८
राष्ट्रीय प्रशिक्षक : (व्यक्तित्व विकास) अंतराष्ट्रीय जेसीस १९९६ से
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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