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मन मेरा डर जाता

शरद सिंह “शरद”
लखनऊ

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मै सोई थी, जगा गया वह हौले से,
देखो अब मै आ गया बोला कानो में हौले से,
क्यों उदास होती है अब तू, मै तेरा तू मेरी है
क्यों भरती नयनो मे आँसू,
क्यों चौक-चौंक उठ जाती है।
मै बोली तेरे बिन कान्हा,
नही चैन मुझे आता है,
न भाते यह रास रंग,
न सोना ही अब भाता है।
जब तू छुप जाता है कान्हा,
मन मेरा डर जाता है,
न जाने किस डर से कान्हा,
हिलक हिलक दिल रोता है,
तू कहता है तू मेरा है,
फिर क्यो तू तड़पाता है,
देख के मेरे ब्यथित ह्रदय को,
क्या चैन बहुत तू पाता है,
एक यही ख्वाहिश है मेरी,
मै तेरे संग रहूँ सदा,
जब चाहूँ मै तुझे निहारूँ,
कभी न हो तू मुझसे जुदा,
वादे बहुत किये है मुझसे,
अब यह भी वादा कर दे,
हाथ पकड़ लेगा तू मेरा,
अन्त समय मे आकर के
अन्त समय में आकर के।।

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लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने “मेरी स्मृतियां” नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है।


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