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डॉ.आभा माथुर
उन्नाव (कानपुर)
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मैंने जिस शहर में बचपन व्यतीत किया वहाँ पर उन दिनों इण्टरमीडिएट तक ही विद्यालय थे। आगे की शिक्षा के लिये या तो
प्राइवेट विद्यार्थी के तौर पर परीक्षा उत्तीर्ण करनी होती थी या छात्रावास में रह कर अध्ययन करना होता था। मेरी बड़ी बहनों ने प्राइवेट बी.ए. किया था, शायद मैं भी वही करती परन्तु हाई स्कूल और इण्टरमीडियेट में मेरे अंक बहुत अच्छे होने के कारण यह निश्चय किया गया कि मुझे किसी संस्था से बी.ए. करवाया जाये। लखनऊ में मेरी एक बहन रहती थीं अत: लखनऊ में मेरी शिक्षा जारी रखने का निश्चय हुआ।
लखनऊ जा कर वि.वि. में प्रवेश तो ले लिया पर बहन के घर से वि.वि. बहुत दूर था। पहले दो किलोमीटर तक रिक्शा से दूरी तय करने के बाद दो बसें बदलनी पड़ती थीं तब जा कर वि.वि. पहुँचा जा सकता था। इस सब में बहुत समय नष्ट होता था अतः साइकिल लेने का निश्चय किया गया। साइकिल चलाना मुझे आता नहीं था, अत: साइकिल चलाना सीखने को रात का खाना खाने के बाद घर से थोड़ी दूर स्थित एक मंदिर के सामने की सड़क पर मैं, मेरी बहन और उनके देवर (जो मेरे साइकिल-गुरु बने) जाते थे। दिन में वहाँ भीड़ होने के कारण साइकिल सीखना संभव नहीं था। थोड़े प्रयास से वह लोहे का घोड़ा भी वश में आ गया और नई साइकिल भी ख़रीद ली गई। शायद सीखने के लिये किराये पर साइकिल लाई जाती थी क्यों कि घर में साइकिलें तो दो तीन थीं पर सभी मर्दानी साइकिलें थीं। वह साइकिल मेरे पास अनेक वर्ष तक रही बी.ए. के बाद बी.एड. मैंने छात्रावास में रह कर किया क्योंकि जीजा जी का स्थानान्तरण हो चुका था और वे अपने परिवार यानि मेरी बहन सहित दूसरे नगर जा चुके थे, पर साइकिल मेरे पास ही रही और मैं छात्रावास से ही वि.वि. जाती थी, भले ही दूरी पैदल चलने योग्य थी। बी. एड. के बाद जब मैं अपने घर वापस आने वाली थी तब सीधे साइकिल ले कर स्टेशन पहुँच गई। मुझे इतना तो पता था कि साइकिल बुक करवानी पड़ती है परंतु यह नहीं पता था कि उसका टोकन बना कर ले जाना चाहिये। रेलवे के कर्मचारियों ने ही टोकन बना कर लगाया। साइकिल बुक करवा कर और टिकट ले कर मैं गाड़ी में बैठ कर अपने नगर आ गई। दूसरे दिन अपने घर से स्टेशन गई ,साइकिल छुड़वाई और साइकिल चला कर अपने घर वापस आ गई।
मैं समझती हूँ कि वि.वि.में प्रवेश लेना मेरे लिये बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ क्योंकि वहीं से मेरा दृष्टिकोण विस्तृत हुआ और भविष्य में उच्च शिक्षा के बाद उच्च कैरियर की चाह उत्पन्न हुई। यह सब किसके सहारे हुआ ? साइकिल के सहारे। साइकिल न होती तो मैं लखनऊ पहुँच कर भी वि.वि. में प्रवेश नहीं ले सकती थी, अधिक से अधिक घर से दो किलोमीटर स्थित गर्ल्स डिग्री कॉलेज में प्रवेश ले कर बी. ए. या शायद बी.एड. भी कर लेती और सन्तुष्ट हो जाती। वि.वि. में प्रवेश ले कर मैंने ऊँचे सपने देखना सीखा।
एक बात आजकल के बच्चों को नहीं मालूम होगी कि उन दिनों साइकिल का भी लाइसेंस बनवाना पड़ता था। कुछ वर्ष बाद सेवाकाल में ट्रान्ज़िस्टर ख़रीदा तो उसका भी लाइसेंस बनवाना पड़ा।
साइकिल चलाते समय सामने से आने वाले को ध्यान से देखती थी। क्यों ? यह जानने के लिये कि यह किधर से टकरायेगा।
शायद ही कोई लड़का या पुरुष हो जो साइकिल लड़ाने की कोशिश न करता हो। उनका काम था कोशिश करना पर मैं कभी उन्हे सफल नहीं होने देती थी। सामने वाला जिस साइड से टकराने की कोशिश करता था, मैं उसके विपरीत दिशा में साइकिल ले जाती थी।
कई वर्षों तक मेरे पास रहने के बाद वह साइकिल परिवार की ही एक लड़की को दे दी गई।
अथ श्री साइकिल पुराणम् समाप्तम् ….
परिचय :- उन्नाव (कानपुर) निवासी आभा माथुर ज़िला शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थान के प्राचार्य (डिप्टी डायरेक्टर के समकक्ष) पद से सेवा निवृत्त हैं आपने प्रधानाचार्या, डी.आई.ओ.एस., डायट प्राचार्य आदि पदों पर रहकर उत्तर प्रदेश के विभिन्न ज़िलों में सेवा की।
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