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माँ की पिटारी

माँ की पिटारी

रचयिता : अर्चना मंडलोई

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याद बहुत आती है,
माँ की वो पिटारी
कहने को माँ का
घर पूरा अपना था
पर माँ का पूरा संसार
उस पिटारी में बसता था
जाने कहाँ से, कैसे
कभी रूमाल में लिपटे
कभी कुचले,मुडे नोट,
पिटारी की तह में पडे सिक्के
कभी चुडियाँ बिंदी
तो कभी दवाईयों की पन्नी
और न जाने क्या-क्या
मेरे पहूँचते ही
वो आतुर हो उठती
स्हेह और ममता का
वो पिटारा खुल जाता
और फिर तह में छुपे नोट
तो कभी सुन्दर चुडियाँ
मीठी नमकीन मठरी
लगता है, जैसे
अक्षय पात्र मे हाथ डालती माँ
बिना तोल मोल के
ना किसी जोड घटाव के
सारा हिसाब अपनी ममता से लगा लेती
और डाल देती मेरी झोली में
माँ तुम दुर्गा और लक्ष्मी ही नहीं
अन्नपूर्णा भी थी।
माँ तुम बाँटने दुलार फिर आ जाती
माँ याद बहुत आती है।

लेखिका परिचय : इंदौर निवासी अर्चना मंडलोई शिक्षिका हैं आप एम.ए. हिन्दी साहित्य एवं आप एम.फिल. पी.एच.डी रजीस्टर्ड हैं, आपने विभिन्न विधाओं में लेखन, सामाजिक पत्रिका का संपादन व मालवी नाट्य मंचन किया है, आप अनेक सामाजिक व साहित्यिक संस्थाओं में सदस्य हैं व सामाजिक गतिविधियों मे संलग्न।

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