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माँ की पीड़ा

सुधीर श्रीवास्तव
बड़गाँव, गोण्डा, (उत्तर प्रदेश)
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 पिछले दिनों अपने एक साहित्यिक मित्र की बीमार माँ को देखने जाना पड़ा। विगत हफ्ते से उनकी सेहत में सुधार नहीं हो रहा था। लिहाजा जाने का फैसला कर लिया। एक दिन पूर्व ही अपने एक अन्य कवि मित्र को अपने आने की सूचना दी और उसी शहर में अपनी मुँह बोली बहन को भी अपने आने के बारे में अवगत कराया, तो उसने भी मेरे साथ चलने की बात कही। स्वीकृत देने के अलावा कोई और और रास्ता न था।
निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार अगले दिन कवि मित्र सूचनानुसार निर्धारित स्थान पर मिले। हम दोनों लोग पास में ही बहन के घर गए। हालचाल का आदान प्रदान हुआ। बहन के आग्रह का सम्मान करना ही था। अतः चाय पीकर हम सब अस्पताल जा पहुंचे। हमारे साथ बहन का बेटा भी था।
हम चारों को मित्र महोदय बाहर आकर मिले और हम सब उनके आई सी यू में माँ के पास जा पहुंचे।
वहां मित्र महोदय ने मुझसे पूछा कि हम किसी आयोजन में आये हैं?
मैंने न में जवाब दिया तो वे भावुक होकर रो पड़े।
हमनें उन्हें ढांढस बंधाया। बहन माँ के पास बड़े प्यार से उन्हें सहलाते हुए बातें कर रही थी। ताज्जुब तब हुआ कि वे उसे अपनी बेटी समझ उसकी हर बात का जवाब भी बड़े प्यार से दे रही थीं। अर्ध मूर्छा में भी वे श्लोक, भजन और गीत बड़े सधे अंदाज में सुना रही थी और उनका स्वर भी अपेक्षाकृत साफ था। जबकि मित्र महोदय ने हमें बताया था कि मां की आवाज बहुत कम समझ में आ रही है।
बहन भावुक हो रही थी, फिर भी हौसला बनाए थी। उसने मां के बाल सँवारे, सिंदूर लगाया। अपने हाथों से दो तीन चम्मच खाना खिलाया, पानी पिलाया उनका मुंह साफ किया। इस बीच मां को कई बार उठाना बैठाना भी पड़ा।
माँ की स्थिति को देखते हुए हम सब दुखी थे। पर ईश्वर की इच्छा के आगे बेबस थे। माँ अब देख भी नहीं पा रही थीं। लेकिन उस हालत में भी जब मित्र ने उन्हें बताया कि हम सब आपसे मिलने और आशीर्वाद लेने आये हैं, तब वे बहुत खुश दिखीं और बोली मेरा आशीर्वाद है तुम सबको। बहुत खुश रहो।
अब बहन को अपने आँसू सँभालना कठिन हो रहा था, वो माँ के पास से मेरे पास आकर खड़ी हो गई। मैंने उसे हिम्मत दी।
उसकी इस पीड़ा को मैं समझ रहा था, क्योंकि बहुत छोटी उम्र में ही उसने अपनी माँ को खो दिया था। शायद ऐसे हालातों में बेटियां माँ के सबसे करीब होती हैं। या यूं कहें कि माँ की पीड़ा भला बेटी से बेहतर और कौन समझ सकता है।
लगभग दो घंटे हम सब वहां थे, सबके चेहरे पर एक अजीब सा सन्नाटा था। वहां से निकलने के बाद हमें सामान्य होने में भी समय लगा।
मगर उतनी ही देर में बहन के संवेदनशील भावों ने माँ की पीड़ा की जैसे विस्तृत व्याख्या समझा दी हो। मैं आंतरिक रुप से बहन की संवेदना के प्रति नतमस्तक होकर रह गया। जिसने चंद समय में ही हमारी नज़रों में अपने बड़प्पन का उदाहरण पेश कर जैसे हमें गौरवान्वित कर दिया।
आज भी उसकी आंखों में उस समय भरे आँसू जब भी याद आते हैं, तो झकझोर झकझोर देते हैं।

परिचय :- सुधीर श्रीवास्तव
जन्मतिथि : ०१/०७/१९६९
शिक्षा : स्नातक, आई.टी.आई., पत्रकारिता प्रशिक्षण (पत्राचार)
पिता : स्व.श्री ज्ञानप्रकाश श्रीवास्तव
माता : स्व.विमला देवी
धर्मपत्नी : अंजू श्रीवास्तव
पुत्री : संस्कृति, गरिमा
संप्रति : निजी कार्य
विशेष : अधीक्षक (दैनिक कार्यक्रम) साहित्य संगम संस्थान असम इकाई।
रा.उपाध्यक्ष : साहित्यिक आस्था मंच्, रा.मीडिया प्रभारी-हिंददेश परिवार
सलाहकार : हिंंददेश पत्रिका (पा.)
संयोजक : हिंददेश परिवार(एनजीओ) -हिंददेश लाइव -हिंददेश रक्तमंडली
संरक्षक : लफ्जों का कमाल (व्हाट्सएप पटल)
निवास : गोण्डा (उ.प्र.)
साहित्यिक गतिविधियाँ : १९८५ से विभिन्न विधाओं की रचनाएं कहानियां, लघुकथाएं, हाइकू, कविताएं, लेख, परिचर्चा, पुस्तक समीक्षा आदि १५० से अधिक स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर की पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित। दो दर्जन से अधिक कहानी, कविता, लघुकथा संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन, कुछेक प्रकाश्य। अनेक पत्र पत्रिकाओं, काव्य संकलनों, ई-बुक काव्य संकलनों व पत्र पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल्स, ब्लॉगस, बेवसाइटस में रचनाओं का प्रकाशन जारी।अब तक ७५० से अधिक रचनाओं का प्रकाशन, सतत जारी। अनेक पटलों पर काव्य पाठ अनवरत जारी।
सम्मान : विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा ४५० से अधिक सम्मान पत्र। विभिन्न पटलों की काव्य गोष्ठियों में अध्यक्षता करने का अवसर भी मिला। साहित्य संगम संस्थान द्वारा ‘संगम शिरोमणि’सम्मान, जैन (संभाव्य) विश्वविद्यालय बेंगलुरु द्वारा बेवनार हेतु सम्मान पत्र।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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