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माँ

काकोली बिश्वास
सिमुलतला (बिहार)

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मन का इक कोना है सूना
आखिर अब काहे को रोना
चित्कार में दफन उस मासूम को
किया था मैंने ही अनसुना

सिसकियाँ भर जब उसने कहा था
न कर मुझको खुद से दूर
पत्थर सा मन ना पिघला था
न बहा था नेत्र से नीर निठुर

खाली गोद अब बिलख रही है
मन विसादित है गम से चूर
क्यूं आयी कुछ पल के खातिर
और आकर अब क्यूं गयी वो दूर?

जब हम थे एक ही जाति के
फिर क्यूं ये क्रूरतम भेदभाव?
सुलगन मन के बुझे न बुझती
तन से गहरा मन का घाव

तीन महीने का ही रिश्ता वो
थी बड़ी निश्चल बड़ा अटूट
जाने किसकी थी लगी नज़र
क्षण में छन्न से गया वो टूट

मन से निकली आह निकली थी पर
जुबां तक सिमटकर रह सी गयी
तन जख़्मों से तिलमिला उठा
आंखों से लहू बह सी गयी

रिश्ता था एक माँ बेटी का
जो थी मेरे खुन से पली
समाज की कुत्सित रूढ़ियों की चढ़ गयी
मेरी नवजात शिशु बली

मूढ समाज की बेहयाई का
इससे बुरा और क्या प्रमाण
जो पुरुषत्व को महत्व देता
और हर लेता नवजात जननी के प्राण

उस अबूझ नादान की हत्या ने
घोंट दिया ममता का गला
कलेजे से एक हूक निकली
ए मानवता तुने इक माँ को छला

परिचय :- काकोली बिश्वास
बिहार के जमुई जिला अन्तर्गत सिमुलतला की निवासी काकोली बिश्वास की कला हमेशा से रुचि रही है और जवाहर नवोदय विद्यालय के उत्कृष्ट वातावरण ने इनके रचनात्मकता को एक नया आयाम दिया। कविता लेखन के अलावा पैंटींग, फोटोग्राफी, गाना, घुमना आदि में भी आपकी रूचि हैं। वर्तमान में आप एक कंपनी में कार्यरत टेक उद्यमी हैं।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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