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मां

मित्रा शर्मा
महू – इंदौर

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जन्नत की खुशियों की चाहत रखते रखते,
भूल गए कि हमारी जन्नत हमारी मां थी।

जीवन के आपा धापी में दौड़ते दौड़ते,
यह नहीं समझ पाए कि आखिर मां क्या थी।

तुम रखती थी कलेजे से लगाकर मुझे,
बिना सौदा किए प्यार बरसाती थी तुम मुझे।

बहुत रुला लिया ए जिंदगी तूने,
मां की आंखों से ओझल क्या हुए थे।

परवाह करने वाले की कमी नहीं थी राहों में,
मतलब के फ़रिश्ते थे जैसे नाग लिपटते बाहों में।

तेरे हर दुआ कबूल हो जाती शायद,
मेरे तकदीर को चुनौती देती हो तुम शायद।

क्यों भुल जाते है तेरे अहसानों को,
जिंदगी के सफलता के पीछे के तेरे अफसानों को।

शर्म क्यों आती यह कहने में,
हम मां के साथ रहते है यह जताने में।

तेरे आंचल की छांव पर पल बढ़कर खड़ा हुं,
खड़ा हूं मां, बस तेरे बिना लड़खड़ा जाता हूं।

खुद गीले में सो कर तूने गरमाहट दी थी,
मेरी हर मुश्किल तूने आसान की थी।

रह रह कर आती है याद वह बचपन,
घर घर न था स्वर्ग था था आंगन, उपवन।

जब जिक्र तेरा सुनता हुं गला रूंध जाता है,
सिसकती हुई सांसों को रोक नहीं पाता हूं,

घुटन सी होती है रो नहीं पाता हूं।
भीड़ में भी तेरे बिन अकेला पाता हुं।

तेरी झुर्रियों वाला चेहरा बहुत याद आता है,
कुछ कर नहीं पाने का मलाल खाता है।

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परिचय : मित्रा शर्मा – महू (मूल निवासी नेपाल)


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