विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.
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“बना-बना के दुनिया फिर से मिटाई जाती है जरुर हम में ही कोई कमी पाई जाती है!”
नैतिकता क्या होती हैं और अनैतिकता क्या होती हैं? यह प्रश्न अक्सर अनेकों को संभ्रमित करता रहता हैं। नैतिकता के मापदंड क्या होते हैं? रोजमर्रा के व्यवहार में उसका क्या महत्व होता हैं? व्यवहार में कहाँ तक हम इन बातों का विचार कर सकते हैं? या इन बातों का कितना महत्व होना चाहियें या नैतिकता को हम कितना सहन कर सकते हैं? या अनैतिकता हमें कितना प्रभावित या परेशान कर सकती हैं? समाज में व्यक्ति की एक दूसरे से नैतिकता की कितनी और क्या अपेक्षाएं रहती हैं? या नैतिकता और अनैतिकता की ओर देखने का हर एक का द्रष्टिकोण कैसा होना चाहियें? धर्म, संस्कार, प्रथा और परम्पराएं इनका नैतिकता से क्या सम्बन्ध हैं? नैतिकता सिर्फ धर्म पालन के लिए ही होती हैं क्या? नैतिकता का मूल्यमापन कैसे हो? और जो नैतिक नहीं वें वास्तव में अनैतिक होते हैं क्या?
शब्दार्थ से देखा जाय तो नैतिक का अर्थ निति विषयक, अर्थात अपने कर्तव्यों का पालन करना और अपने उत्तरदायित्व का वहन करना। और जो भी नैतिक नहीं हैं वह सभी अनैतिक ही हैंIअर्थात निति के अनुसार क्या योग्य हैं और क्या अयोग्य? इससे अलग आम लोगों में जो नैतिक शब्द का उपयोग बारबार किया जाता हैं और नैतिकता का अर्थ समझा जाता हैं वह अलग ही होता हैI समाज में नैतिकता आचरण और व्यवहार में परखा जाता हैं और धर्म के साथ, संस्कार और प्रचलित परम्पराओं के साथ जोड़ कर देखा जाता हैं। परन्तु शब्दकोष के अनुसार नैतिकता इस शब्द को जब हम नीति विषयक इस अर्थ के रूप में लेते हैं तब यह स्वभाविक ही हैं कि हमारे मन में यह आता हैं कि नीति पहले होना चाहिए। निति के पश्चात ही नैतिकता का प्रश्न पैदा होता हैं। अब प्रश्न यह हैं कि निति का अर्थ क्या? कोई धर्म, समाज, समुदाय या राज्य अनेक वर्षों के संचित ज्ञान और अनुभव से सभी के कल्याण हेतु जो लोक कल्याणकारी सिद्धांत या सत्य सभी के समक्ष प्रदर्शित करते हैं और उन सिद्धांत और सत्य के लिए निष्ठावान रहने के लिए सभी को प्रेरित करते हैं और उस हेतु व्यवस्था निर्मित करने के लिए नियम बनाकर उनका पालन करने के लिए कुछ परमपराएं स्थापित करते हैं तो वह नीति तत्वों में शामिल होता हैं।
इन नीतियों का, परम्पराओं का और संस्कार द्वारा स्थापित मूल्यों का सभी लोग अनुकरण करें यह सभी की सामुहिक इच्छा होती हैं, जिससे कि एक स्थापित स्वचलित व्यवस्था में व्यक्तियों के कल्याण के साथ समाज का भी हित हो, और किसी का अहित ना हो। परन्तु नैतिकता के पालन हेतु यह आवश्यक हैं कि हर एक व्यक्ति को धैर्यशील भी होना चाहिए। हमारे मन के विरुद्ध हमें विवशता में कोई गलत कार्य करने हेतु बाध्य ना कर सके और उसका हम विरोध कर सके, इतना धैर्य हमारे अन्दर होना ही चाहिए। पर इंसान हैं तो इंसानी कमजोरियां भी होती ही हैं, इसलिए खुद का स्वार्थ और अपनों की भलाई का विचार मन में हमेशा आता ही हैं। अत: स्वयं के स्वार्थ में कई बार मनुष्य अंधा होकर दूसरों का विचार नहीं करता और कई बार अपने स्वार्थ के लिए दूसरों का या अनेकों का अहित कर बैठता हैं। इसीलिए उसके गलत और उत्तरदायित्व रहित कर्म और विचारों पर अंकुश रखने के लिए सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय को ध्यान में रख, नैतिकता का उद्देश्य सामने रखा जाता हैं और यहीं पर नैतिकता और अनैतिकता के प्रश्न पैदा होते हैं।
लोक कल्याण के उद्देश्य से व्यक्तियों की वैचारिक पद्धति और उसके अनुसार उनका स्वभाव एवं आचरण जब व्यवहार में दिखाई देता हैं तो उसी तरह से उनकी मानसिकता भी निर्मित होती रहती हैं। इन सब के प्रदर्शन को या दिखाई देने वाले व्यवहार से नैतिकता का प्रमाण पता पड़ता हैं। उत्तम और श्रेष्ठ विचार करने की पद्धति से अच्छे स्वभाव की निर्मिती होती हैं। समय समय पर स्थापित संस्कार और परमपराएं तथा आदर्श एवं उनके मूल्यों का लोक कल्याण के लिए तय मापदंडों के साथ निर्वहन किया जाना ही नैतिकता कहलाती हैं। इन सब में आमजन का कल्याण ही निहित होता हैI व्यक्ति की अच्छी मानसकिता तभी निर्मित हो सकती हैं जब वह हमेशा ही सर्वसाधारण के कल्याणकारी उपायों के लिए चिंतन मनन करता रहें। इससे बढ़कर यह कि इसका भी ध्यान रखे कि वह स्वयं इन सब मापदंडों पर कितना खरा उतरता हैं? और उसमें कितने गुण, अच्छाईयां, और भलमनसाहत हैं जिससे कि श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ मानव बनने की प्रक्रिया निरंतर जारी रहे? इसको भी हम नैतिकता कह सकते हैं। अच्छे से भी अच्छा मानव बनना एक अविरत कभी न ख़त्म होने वाली प्रक्रिया हैं। नैतिकता एक श्रेष्ठ गुण हैं। ईश्वर ने नैतिकता की मानसिकता मनुष्य सहित सभी प्राणियों को प्रदान की हुई हैं। यह प्रत्यक्ष रूप से भी अनुभव की जा सकती हैं। हिंसक पशु भी जब तक उन्हें भूख ना लगे या उनके ऊपर कोई आक्रमण ना करे तब तक वें हिंसक नहीं होते। पेट भरा रहने के बाद वें शिकार नहीं करते। कुत्ते की स्वामिभक्ति आश्चर्यजनक रूप से नैतिकता का श्रेष्ठ उदाहरण हैं तों चींटियों का अनुशासन तो नैतिकता की द्रष्टि से मनुष्य को भी लज्जित करता हैं। अनुशासन या आत्मानुशासन नैतिकता की पहली सीढी होती हैं। चींटियों के अनुशासनबद्द्ता का विस्तृत अध्ययन किया गया हैं और उसके पाठ सेना सहित अन्यत्र भी पढ़ाएं जाते हैं।
नैतिक रहे या ना रहे, इसके लिए हर एक की अपनी अलग-अलग समझ होती हैं। समयानुसार और परिस्थिती अनुसार समझ और मानसिकता बदलती रहती हैं। नैतिकता के मापदंड हरेक के अपने अलग अलग होते हैं। जैसे मांसाहारी व्यक्ति के लिए मांस खाना अनैतिक नहीं समझा जाता परन्तु शाकाहारी समुदाय के लोगों के लिए मांसाहार वर्जित होने से अनैतिक माना जाता हैं। अब समय बदल गया हैं, खानपान की द्रष्टि से समाज में अब उतनी कट्टरता नहीं रही, एवं मांसाहारी और शाकाहारियों का अंतर भी बहुत कम हो गया हैं, अत: इस परिप्रेक्ष्य में नैतिकता के मापदंड भी स्वाभाविक रूप से बदल गए हैं। आज यह स्थिति हैं कि शाकाहारी भी मांसाहारी को अनैतिक नहीं समझता। एक और उदहारण, पहले समुन्दर पार करने से व्यक्ति अपवित्र माना जाता था और इसे उसकी अनैतिकता समझी जाती थी, परन्तु अब विदेश यात्रा का नैतिकता या अनैतिकता से कोई सम्बन्ध ही नही रहा हैं। इसका अर्थ यह हैं कि ज्ञान के जरियें विकास की राह पर बढ़ते हुए नैतिकता-अनैतिकता के मापदंड बदलते रहते हैं। इससे बढ़ कर यह कि योग्य दिशा में विचार, चिन्तन मनन ही नैतिकता का मार्ग दिखाती हैं।
नैतिकता के लिए जितने भी अच्छे गुण माने जाते हैं वह नैतिकता की द्रष्टि से व्यक्ति में होना चाहिएंI उदाहरणार्थ ईमानदारी, राष्ट्रभक्ति, निडरता, वीरता, धैर्य, परोपकार, निस्वार्थ, दयालू, घमंड ना हो, बड़ों का आदर करने वाला, इत्यादि इत्यादि। वैसे तो सारे ही अच्छे गुणों का समावेश होता हैं लेकिन मेरी द्रष्टि से एक और महत्वपूर्ण गुण नैतिकता हेतु आवश्यक हैं और वह हैं व्यक्ति का निरोगी और स्वस्थ होना। दुर्बल व्यक्ति को तो पल पल पर समझौते ही करने पड़ते हैं। किसी की भी भलाई हेतु कमजोर व्यक्ति इच्छा होते हुए भी कुछ भी नहीं कर पाता। स्वस्थ व्यक्ति में स्वस्थ मन रहता हैं और वहीँ अच्छी मानसिकता के साथ अन्याय का विरोध कर उसके साथ संघर्ष कर सकता हैं।नैतिकता और अनैतिकता को जानने हेतु अनेक माध्यमों के द्वारा व्यक्ति से संपर्क में आने की आवश्यकता होती हैं जिससे कि व्यक्ति का स्वभाव, गुणवत्ता और व्यवहार का पता पड सके।
नैतिकता हेतु हम जिन स्थापित मूल्य और परम्पराओं की चर्चा करते हैं वें सब सतत प्राप्त हुए अनुभव से और नियमित ज्ञानप्राप्ति के बाद किये गए चिंतन, मनन के बाद ही हमारे जीवन में प्रस्थापित किये गए हैं। पोषक और पूरक परिस्थितयों के कारण भी अच्छे मूल्य स्थापित होते हैं। अच्छे मूल्य सह्जेने से और उत्तम परम्पराओं के कारण श्रेष्ठ संस्कार स्थापित होते हैं, और इस तरह नैतिकता का उदय होकर उसकी भावना भी सुद्रढ़ होती हैं। नैतिकता यह बहुत अंशों तक भावनात्मक ही होती हैं, और यह नैतिकता हम भावनाओं के द्वारा ही बनायें रख सकते हैं। जैसे कि हम कहते हैं, ‘हमेशा सच बोलना चाहिएं।’ अब यह सर्वविदित हैं कि तात्कालिक रूप से भले ही सच बोलने से कोई परेशान हो सकता हैं, परन्तु सच बोलने की संतुष्टि तो सदैव रहती ही हैं और यहीं सबसे बड़ी मानसिक शांति भी हैं।
सच बोलने से आनेवाले संकट और भय बहुत अंशों में कम हो जाता हैं। इसके विपरीत एक बार अगर झूठ बोला गया हैं तो उसको सही साबित करने हेतु अनेक बार झूठ बोलना पड़ता हैं, जो मन के विरुद्ध होने से मानसिक अशांति भी पैदा करता हैं। अनेक बार झूठ बोलने से व्यक्ति नए नए संकटों में उलझता जाता हैं, और उसकी प्रतिष्ठा भी धूमिल हो जाती हैं, क्योंकि वास्तविकता ज्यादा देर तक छुपती नहीं हैं। इसीलिए हजारों वर्षों के अनुभव के बाद और सत्य को परखने के बाद सिद्ध हुए सत्य के गुण को नैतिकता का सर्वमान्य सर्वश्रेष्ठ गुण माना गया हैं।सत्यनिष्ठ होने से जीवन की राह आसान-सरल हो जाती हैं। सत्यनिष्ठता समयानुसार बदलनेवाला सिद्धांत नहीं हैं।
नैतिकता के लिए लगने वाला एक और प्रमुख कारक (गुण) हैं ’बल’ यें सब शरीर के अंदर होते हैं जिनका वर्गीकरण हम निम्न तरह से कर सकते हैं। यें हैं बाहुबल (शौर्य), मनोबल (मानसिक द्रढ़ता), बुद्धिबल (विचार करने की शक्ति) एवं आध्यात्मबल (सर्वशक्तिमान पर विश्वास)। ईश्वर पर विश्वास और प्रकृति पर विश्वास होने का अर्थ हैं स्वयं पर विश्वास करना और इन सब गुणों के माध्यम से हरेक अच्छाई पर, अच्छे व्यक्तियों पर विश्वास रखनाI विश्वास के पश्चात श्रद्धा (अंधविश्वास नहीं) होना चाहियें। हमारी आस्था आत्मिक और बौद्धिक बल को बढाने के साथ ही बुद्धि हेतु जीवनदायनी पोषक तत्व के रूप में कार्य करती हैं। जिसके मन में आत्मविश्वास (श्रद्धा) होता हैं वह व्यक्ति हर प्रकार की बनावट और हीन भावना से दूर रहता हैं। उसमें परिस्थितयों के अनुसार सोचने समझने की भरपूर सामर्थ्य रहती हैं और उसमें प्रचुर मात्रा में नैतिक बल भी रहता हैं।
नैतिकता के पालन हेतु अनेक बार धर्म का, ईश्वर का, समाज का और नियमों का डर भी दिखाया जाता हैं, जो गैरजरूरी हैं। नरक की कल्पना दिखाना भी डर का ही उदहारण हैंI छोटे बच्चों को जब हम कहते हैं कि ‘ईश्वर दंड देगा‘ यह भी बुरे काम करने से परावृत्त करने हेतु दिखाया गया डर ही होता है। ऐसे अनेक उदहारण दिए जा सकते हैं। समाज की ओर से दिखाएँ जाने वाले डर में सामाजिक बहिष्कार, असहयोग, प्रताड़ना, अघोषित घृणा एवं उपेक्षा आदि भी देखी जा सकती हैं। पिछले दिनों राजस्थान और हरियाणा राज्य में कुछ समुदाय पंचायतों द्वारा कुछ युगल प्रेमियों के लिए किया गया बहिष्कार इसका उदहारण हैं।
सुचारू और सुव्यवस्थित व्यवस्था हेतु राष्ट्र में नियम और कानून बनाना आवश्यक होता हैं, परन्तु असल में जमीनी वास्तविकताएँ अलग ही होती हैं। व्यवस्था का दुरुपयोग हमें ज्यादा दिखाई देता हैं और पुलिस तथा व्यवस्था का डर आवश्यकता से अधिक दिखाया जाता हैं। नैतिकता के लिए इस प्रकार के डर का नकारात्मक प्रभाव ही होता हैं। नैतिकता यह जबरन अंगीकृत किये जाने वाली धारणा नहीं हैं। नैतिकता यह आत्मप्रवर्त और स्वस्फूर्त होना चाहिए। अत: नैतिकता पालन के लिए किसी तरह का डर दिखाने की जगह आचरण के बारे में उसके अच्छे-बुरे और गुण-दोषों को योग्य पद्धति से वस्तुस्थिति सहित अवगत कराए जाने की आवश्यकता होती हैं। संभावित परिणाम का आकलन कर उसके लाभ और हानि के बारे में भी बताएं जाने की आवश्यकता होती हैं। तभी नैतिकता अंतरमन में स्थिर होकर सदाचार में परिवर्तित होती हैं।
राष्ट्र, समाज और धर्म में किसी भी तरह का नीतिगत मतभेद नैतिकता के लिए समस्या और संकट का कारण होता हैं। सच पूछा जाय तो सर्वजनहिताय सर्वजन सुखाय यह राष्ट्र के साथ समाज और धर्म की भी निति होनी चाहिए। और इस हेतु अधिकांशत: इन तीनों में आम सहमती भी होनी चाहिएI राष्ट्रनिति यह सर्वोपरि होनी चाहिए परन्तु अनेक बार राजनैतिक दल और नेता जिनके ऊपर राष्ट्र की या समाज और धर्म की बागडौर हम सोपते हैं वें अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए धर्म और समाज को विभक्त करने में लिप्त पाए जाते हैं। ये घटक अपने स्वार्थी कदाचार के कारण अयोग्य हो बैठते हैं और यहीं लोग अनैतिकता का सबसे बड़ा बाजार सजाकर बैठ जाते हैं। इन अक्षम और अयोग्य, भ्रष्टाचारी नेतृत्व के कारण राष्ट्र के साथ सभी का अहित ही होता हैं। आज धर्म का सबसे बड़ा व्यावसायीकरण हुआ हैं। राष्ट्र और समाज का एक महत्वपूर्ण घटक वर्तमान में धर्म के ठेकेदारों के हाथ में कठपुतली होकर समाज और लोगों को योग्य मार्गदर्शन देने में अयोग्य साबित हुआ हैं। अनास्था का सबसे बड़ा यहीं एकमेव कारण होने से नैतिकता-अनैतिकता को हम भुला बैठते हैं, परिणामत: अच्छा बुरा सोचने की हमारी क्षमता भी कम हो जाती है। वर्चस्व की लड़ाई में नेतृत्व सामान्य प्रजा को नैतिकता और अनुशासन का पाठ पढ़ाना ही भुला बैठते हैं।
अभी तक के इतिहास में छत्रपति शिवाजी महाराज का समय नैतिकता की धारणाओं का स्वर्णिम काल था जहाँ राष्ट्र, समाज, और धर्म में नीतिगत मतभेद या कोई विशेष विरोधाभास नहीं था। विशेष यह कि इतिहास में इसका स्पष्टरूप से उल्लेख भी किया गया हैं कि नैतिकता की द्रष्टि से शिवाजी का कालखंड (शिवाजी के राज्य में) अप्रतिम और सर्वश्रेष्ठ रहा। हरेक धर्म में नैतिकता के विषय में या निति विषयक संतों ने, धर्मगुरुओं ने या दार्शनिकों के द्वारा बहुत कुछ लिखा गया हैं। आमजनों के कल्याणार्थ वर्णित ये तत्व ज्ञान हरेक के लिए बहुत उपयोगी होते हैं। कृष्ण द्वारा भगवतगीता में वर्णित तत्व ज्ञान निति विषयक सर्वश्रेष्ठ मार्गदर्शन हैं। इसी भगवतगीता पर अनेकों विद्वानों द्वारा लिखे गये सैकड़ों टिकात्मक ग्रंथ उपलब्ध हैं। उसी तरह से बायबल और कुरआन में भी नैतिकता के बारे में श्रेष्ठ मार्गदर्शन हैं। यह आश्चर्यजनक ही हैं कि सभी धर्मों में सर्वसामान्य लोगों के कल्याणार्थ स्थापित आदर्शों के होते हुए भी इस धारणा हेतु नैतिकता के लिए उपेक्षा और विरोधाभास पाया जाता हैं। वर्तमान में आधुनिक समाज को इस पर चिंतन करना चाहिए। सच तो यह हैं कि हमारा ही धर्म श्रेष्ठ हैं का आग्रह करना और यह करते हुए ठीक अपने ही धर्म के विपरीत आचरण करना, समाज में व्याप्त अनैतिकता का उदहारण हैं। हम दूसरों से अच्छे व्यवहार, आचरण और सदाचार की अपेक्षा करते हैं परन्तु हम स्वयं इसको आचरण में लाना भूल जाते हैं। हम यह भी बड़ी आसानी से भूल जाते हैं कि दूसरे हमसे क्या क्या अपेक्षाएं रखते हैं। जिस तरह नैतिक अधिकार होते है, उसी तरह नैतिक कर्तव्य और दायित्व भी होते हैं। गांधीजी का स्पष्ट मत था कि दूसरों को सुख देकर ही हम सुखी हो सकते हैंI ‘सर्वजन हिताय, सर्व जन सुखाय’ के मंत्र का जाप हमें निरंतर करते रहना होगा, तभी नैतिकता के मूल्य सहेजे जा सकते हैं। यह याद रखा जाना चाहिए कि नैतिकता का यह जाप हमारे और आपके कल्याण के लिए ही हैं।
परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता।
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