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आईना

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रचयिता : श्रीमती पिंकी तिवारी

“भैया प्लीज़ रुक जा ना| मैं अकेला मम्मी-पापा को कैसे सम्हालूँगा? मेरी इंजीनियरिंग का भी आखिरी साल है| प्लीज भैया| “बेरंग चेहरा, आंसुओं को बहने से रोकती हुई ऑंखें, और सूखा कंठ – ऐसी ही स्थिति हो गई थी अखिल की| बहुत डरता था अपने बड़े भाई निखिल से, पर आज जैसे-तैसे हिम्मत करके भैया और भाभी को रोकने की नाकाम कोशिश कर रहा था| पर निखिल और नमिता अपना मन बना चुके थे| उन्हें तो केवल अपने होने वाले बच्चे का भविष्य दिख रहा था| इसीलिये सीधे ना कहते हुए, गलतफहमियों की इमारतें खड़ी करके अलग होने का रास्ता चुन लिया था दोनो ने| निखिल बहुत सुविधाओं में पला था वहीं अखिल जन्म से ही अभावों का चेहरा देख चुका था| इसीलिए अंतर था दोनों की सोच और नीयत में|
‘अब तक मैंने सम्हाला, अब तू देख अक्खी ‘ कहते हुई निखिल ने अपने कदम बढ़ा लिए|
‘पर पापा नहीं रह पाएंगे भैया, ऐसे मत……’ अखिल अपनी बात भी पूरी नहीं कर पाया और निखिल और नमिता चल दिए|
देहरादून पँहुचे ही थे कि घर शिफ्टिंग के दौरान नमिता का पैर फिसल गया| निखिल तुरंत उसे अस्पताल ले गया, पर वो अपना बच्चा खो चुके थे| नमिता ने तो फिर भी खुद को सम्हाल लिया पर निखिल खुद को नहीं सम्हाल पा रहा था| तभी महिला चिकित्सक निखिल को अधीर देख कर बोली ‘मैं आपका दुःख समझ सकती हूँ, पर जो इस दुनिया में आया ही नहीं, जो जन्मा ही नहीं, उसके लिए इतना दुःख !!!! ज़िन्दगी किसी के लिए ठहरती नहीं| हाँ, कोई जन्मा बच्चा छोड़कर जाए, उसके आगे तो ये दुःख कुछ भी नहीं |’
निखिल को जैसे काटो तो खून नहीं| उसका “अजन्मा दुःख” उसे आईना आईना दिखाकर चला गया|
लेखिका परिचय – श्रीमती पिंकी तिवारी
शिक्षा :- एम् ए (अंग्रेजी साहित्य), मेडिकल ट्रांसक्रिप्शन एडिटर
सदस्य :- इंदौर लेखिका संघ
मौलिक रचनाकार

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