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सूक्ष्म लचीली ज्ञान की खिड़की

विवेक रंजन ‘विवेक’
रीवा (म.प्र.)

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बहुत ही आतुरता से पाने की अभिलाषा,
जब संगणक द्वार पर आकर मचलती।

सूक्ष्म लचीली ज्ञान की प्रतिमान खिड़की,
बस उंगली की एक ही थपकी से खुलती।

इस खिड़की संगणक स्फूर्त – सक्रियता से,
सब कुछ कितना साफ नज़र आने लगता।

जाने कितने मिथक बिखरते टूट टूटकर,
हर कोंपल को आकाश नज़र आने लगता।

कर तरंगों की सवारी हाथ में दुनिया थमा दी,
अंतरिक्ष भी अब अपनी ही मुट्टी में समाता।

कितनी ही गणनायें कर देता है पल में,
सबके ही तो काम संगणक सरल बनाता।

दुनिया कितनी खोज परख करती रहती है
और अनवरत होता है विस्तार बोध का।

यहाँ प्रतिपल मेधा कितनी और निखरती,
सहज सुलभ उपलब्ध मार्ग है नये शोध का।

इस खिड़की के साथ साथ ही खुल जाते हैं
कुछ बौने से भरमाने वाले नये झरोंखे।

दबे पांव चुपके से आकर दांव लगाते,
रिझा रिझाकर बहुत दिया करते हैं धोखे।

नये नये ये सब्ज़बाग सबको दिखलाते ,
कल्पित यौवन की मादकता ही छलकाते।

ललचाते हैं फुसलाते हैं देकर नये प्रलोभन,
कितने ही भोले भालों को ये छल जाते।

कितना भी जगमग हों झरोंखे नयी छटा से,
इनका काला घुप्प अंधेरा नहीं हटेगा।

जिज्ञासा की घोर पिपासा से आतुर मन,
सूक्ष्म लचीली ज्ञान की खिड़की ही तकेगा।

भरमाये भटकाये कोई ये हमको मंज़ूर नहीं,
सभी झरोंखे अब से केवल बंद रखूंगा।

सूक्ष्म लचीली ज्ञान की जो खुली है खिड़की,
वह खिड़की मैं अब तो कभी ना बंद करूंगा।

इस खिड़की से पार बहुत जाने की ज़िद है,
चलें क्षितिज के पार जहाँ धरती की हद है।

अपरिमित विस्तार ज्ञान का ,ध्यान रहे
नहीं कहीं भी अनुसंधानों की सरहद है।

कैसे कर दूं बंद भला मैं ऐसी खिड़की?
सूक्ष्म लचीली ज्ञान की प्रतिमान खिड़की!

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परिचय : विवेक रंजन “विवेक”
जन्म –१६ मई १९६३ जबलपुर
शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र
लेखन – १९७९ से अनवरत…. दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास “गुलमोहर की छाँव” प्रकाशित हुआ है।
सम्प्रति – सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न सीमेंट संस्थानों से समबद्ध हैं।


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