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सार्थक उपासना

डॉ. भोला दत्त जोशी
पुणे (महाराष्ट्र)
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सार्थक उपासना वही है जिसके साथ अच्छे कर्म भी जुड़े हों। पूजा-उपचार बाह्य क्रियाएँ हैं | श्रेष्ठ कर्म को उपासना मान लिया जाय तो वह उपासना सार्थक हो जाती है | एक समय की बात है जब दो लोग साथ-साथ रहते थे | एक दिन गाँव की पाठशाला में अध्यापन करने वाले शिक्षक ने उनके सामने दो समान पत्थर रखे गए | उनके द्वारा की जाने वाली प्रतिक्रिया का इंतजार था | पहले आदमी ने अपने सामने रखे पत्थर को देखा और हाथ जोड़कर खड़ा रहा | कुछ क्षण मन को रोककर आँखें बंद कीं और ध्यान करने लगा | पत्थर अपनी प्रकृति के अनुसार अचेत पड़ा रहा | दूसरे आदमी ने ध्यान से पत्थर को निहारा और चंद क्षण सोचकर फिर अपनी आँखें खोलीं, मन को उत्साहित किया और फिर छेनी, हथौड़ी लेकर पत्थर को तराशने लगा | वह अपने काम में मगन हो गया, उसे इतनी लगन लग गयी कि समय कैसे गुजर रहा था उसे कुछ पता नहीं चला | उसके अथक श्रम से कुछ दिन में मूर्ति बनकर तैयार हो गई | देवप्रतिमा को देखकर लोगों के मन में कलाकार के प्रति सम्मान बढ़ गया था | मूर्ति के दर्शन के लिए जनता इकट्ठी हो गई | दर्शक जनता ने मूर्तिकार की कला को उन्मुक्त कंठ से सराहा | यह सब देखकर अध्यापक जी फूले न समा रहे थे | उन्होंने नवोदित मूर्तिकार के नेक काम की तारीफ की |

जनता के बीच एक श्रद्धालु धनपति मौजूद थे जिन्होंने मूर्ति को दाम देकर खरीद लिया और अपने इलाके में मन्दिर बनवाकर उसकी स्थापना की | इस तरह सड़क पर पड़ा पत्थर कलाकार के हाथ लगने से मूर्ति बनकर मन्दिर में सम्मानित स्थान पर स्थापित हो गया | पहले आदमी को दिया हुआ पत्थर वहीं का वहीं पड़ा रहा | वह पत्थर के सामने हाथ जोड़ने और ध्यान लगाने के काम में अनवरत व्यस्त था |

एक दिन अकस्मात ही दोनों आदमी रास्ते में मिले और अपने-अपने आराध्य की चर्चाएँ करने लगे | पहले आदमी ने अपने आराध्य की जड़ता की चर्चा की | जड़ता के कारण उसकी बातों में कोई खास उत्साह नहीं दिखाई दे रहा था जबकि दूसरा आदमी अद्भुत उमंग का प्रदर्शन करते हुए अपनी कला से उत्पन्न प्रभाव का जिक्र कर रहा था जो उसने लोगों की आँखों में देखा था | उसी रात वे दोनों पत्थर भी परस्पर सांकेतिक संवाद करने लगे | एक पत्थर ने अपने भक्त की जड़ता पर नाराजगी दिखाई और दूसरे ने सकारात्मक, रचनात्मक और क्रियाशील श्रद्धा को खुले मन से सराहा |
शिक्षा- इस लघु प्रसंग से यह ज्ञात होता है कि अंध श्रद्धा से क्रियाशील श्रद्धा अधिक प्रभावोत्पादक और अधिक फलकारक होती है |

निष्कर्ष- पूजा, श्रद्धा, उपासना आदि के साथ यदि कलात्मक क्रियाशीलता को जोड़कर देखा जाय तो ढोंग, ढकोसला, अंधश्रद्धा जैसे शब्द प्रयोग करने वालों की संख्या में भारी कमी आ जाएगी | यह सच है कि भगवान सर्वत्र विराजमान हैं पर मंत्र उच्चारण के साथ जिस पत्थर पर श्रद्धा अर्पित की जाती है वह पत्थर ईश्वरीय शक्ति की आभा फैलाने लगता है और पत्थर को सुंदर व आकर्षक आकार दे दिया जाय तो मूर्ति के प्रति आम लोगों की श्रद्धा अधिक गहरी हो जाती है | इसलिए साहित्य और संगीत के बाद कला को इतना महत्त्व दिया गया है |

परिचय :-  डॉ. भोला दत्त जोशी
निवासी : पुणे (महाराष्ट्र)
शिक्षा : डी. लिट. (केंद्रीय मध्य अमेरिकी विश्वविद्यालय, बोलिविया)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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