विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.
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मुग़ल बादशाह औरंगजेब को जिसने नाकों चने चबाएं, जिसने हिन्दवी स्वराज्य की नीव रखी, ऐसे राष्ट्रभूषण और महाराष्ट्र में घर घर पूजे जाने वाले, छत्रपति श्री शिवाजी महाराज का यहाँ इस शहर में इस चौराहे पर काले घोड़े पर विराजमान सुन्दर ऐसा मनमोहक बड़ा सा पुतला गर्व के साथ आने जाने वालों का बरबस ही अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर लेता हैं। घोडा भी दो पावों को ऊपर कर, गर्दन ऊंची कर, मानों युद्ध में जाने के लिए तैयार हो इसी अंदाज में अकड के साथ खडा है। चौराहे के बायीं ओर थोडा ऊपर की ओर चढ़ने के बाद हनुमानजी का मंदिर हैं, और थोडा आगे जाने के बाद मेरा ऑफिस था। एकदम बायीं ओर मुड़ते ही कुछ झोपड़ियाँ थी। अब मेरा ऑफिस में जाने का रोज का यहीं रस्ता था। मैं भी क्या कर सकता था? रोज मुझे छत्रपति श्री शिवाजी महाराज और बजरंगबली के दर्शन अनायास हो ही जाते थे। हाल ही में मेरा तबादला इस शहर में हुआ था और पहले दिन से ही मैं श्री छत्रपति शिवाजी महाराज के पुतले को रोज सुबह शाम देखता आ रहा था, और तभी से मुझे गहरे काले रंग के आकर्षक इस पुतले का ख़ास आकर्षण होने लगा था। बिलकुल जीता जागता और अभी-अभी कुछ बोल पड़ेगा ऐसी सजीव अनुभूति कराता पुतला बहुत कम जगह देखने में आता हैं। महान राजा की बनायी, श्रेष्ठ कलाकार की श्रेष्ठ कृति और श्रेष्ठ कृति की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के समग्र व्यक्तित्व का अहसास कराता ये पुतला आते-जाते राहगीरों को मानों संवाद की दावत ही दे रहा हो।
वैसे अभी तक मैंने बहुत सारे पुतले देखे थे पर ना जाने क्यों, पहले दिन से ही मैं छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के इस पुतले से बहुत प्रभावित हुआ था। पुतला देख कर भी किसी की सजीवता की अनुभूति हो सकती हैं यह थोडा विचित्र सा ही तो था। पहले दिन से ही मैं ऑफिस आते जाते स्कूटर पर बैठे-बैठे ही गर्दन थोड़ी ऊंची कर गर्व के साथ श्री छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के रोज दर्शन कर लेता था। समर्थ रामदास महाराज के शब्द याद आते “मराठा एकत्र करें महाराष्ट्र धर्म बढाएं“ और मुझे अपने महाराष्ट्रीयन होने का भी अभिमान कुछ ज्यादा ही होता और सीना फूल जाता। रोज आते-जाते ये भी इच्छा बलवती होती कि आनेजाने वालों को भी ऐसा ही गर्व छत्रपति श्री शिवाजी महाराज पर होना चाहिए बल्कि जाने अनजाने मैं ऐसा मान बैठा कि आते-जाते राहगीरों की भी छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के बारे में ऐसी ही कुछ भावनाएं होंगी I
अब मेरी तो ऑफिस आने-जाने की रोज की यहीं राह थी। छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के आते-जाते अनायास ही दर्शन हो जाते थे, फिर क्या इस निर्जीव पुतले से भावनात्मक लगाव होने लगा और नजदीकियां बढ़ने लगी। अपनापन महसूस होने लगा और मन ही मन छत्रपति श्री शिवाजी महाराज से संवाद स्थापित होने लगे। जितना भी मुझे इतिहास का ज्ञान था और मैंने छत्रपति शिवाजी महराज के बारे में पढ़ा था उसके आधार पर उनके समय की और वर्तमान समय की तुलना होने लगी। वर्तमान समय में छत्रपति श्री शिवाजी महा राज की कमी खलने लगी, पर क्या किया जा सकता था।
मेरे रोज के रास्ते, इस शिवाजी चौराहे पर पुतले के चारों ओर गोल रोटरी बनी हुई उसके बाद चबूतरा और फिर चार चार सीमेंट की सीढियाँ, फिर कुछ हरी घास और उसके चारों ओर लोहे की जालीदार रेलिंग का घेरा, कुछ फूलदार पेड़ पौधे, पुतले के ठीक निचे काले रंग के शिलालेख पर सफ़ेद अक्षरों से कोरी गयी सम्पूर्ण जानकारी। पुतले के निर्माण की दिनांक, उसके अनावरण की तारीख, और हाँ अनावरण करने वाले नेताजी का नाम बहुत बड़े अक्षरों में लिखा हुआ… यह सब कुछ उस शिलालेख पर था। दुसरे दिन ही मैंने ध्यान से देखा कि पुतले सहित नाम का पत्थर, चबूतरा, सीढियाँ, रेलिंग वगैरे पर बहुत धूल जमी हुई हैं। छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के पुतले की भी यहीं स्थिति थी। पुतले के ऊपर बहुत धूल तो थी ही पर पक्षियों ने भी उसे बहुत गंदा कर दिया था, जगह-जगह पुतले पर पक्षियों के पंख भी चिपके हुए थे। यह सब देख कर मेरा मराठी माणूस का अभिमान, सीना फूलना, इत्यादि एक क्षण में ही काफूर हो गया। कुछ पल मैं स्कूटर रोक कर एक ओर कुछ सोचता खडा भी रहा पर तुरंत ख़याल आया कि, “ऑफिस में देर नहीं होना चाहिए, छत्रपति श्री शिवाजी महाराज का क्या उनको तो यहीं खड़े रहना हैं अब। जीते जी साम्राज्य और मरने के बाद सिर्फ भीड़ भरा चौराहा? बस अब इतना ही बचाखुचा साम्राज्य। क्या कर सकते हैं? “फिर कुछ पल खामोश खड़ा हो मैं अपनी राह आगे बढ़ जाता, सुबह शाम मेरा इस शहर में अब यही रोज का क्रम था। छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के पुतले का दर्शन और उसकी बेबस हालत पर मन में उपजती रोज वेदना यह भी तो इस नए शहर में मेरा रोज का क्रम ही हो गया था। आपको बताता हूँ इस शहर एवं इस छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के पुतले से अब तो मेरा एक नया आत्मीय रिश्ता भी हो गया था।
आगे एक सप्ताह बाद ही शाम के समय ऑफिस से घर जाते वक्त अनायास मेरा ध्यान गया तो देखा छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के पुतले के निचे सीढियों पर कुछ बदमाश आवारा किस्म के लड़के बैठे शराब पी रहे थे, सिगरेट के कश ले रहे थे, और इतना ही नहीं वे जुआ भी खेल रहे थे। आने-जानेवालों का ध्यान उनकी ओर भले ही ना हो पर वें लड़के आने-जानेवालों को ही विचित्र नजरों से देख रहे थे। यह सब नजारा देख कर मैं व्यथित हो गया। लड़कों का आचरण मुझे कतई अच्छा नहीं लगा। मैंने सोचा घर पहुंचने में थोड़ी देर हो गई तो भी कुछ हरकत नहीं पर यहाँ कुछ देर जरुर रुकना चाहिएं। इन लड़कों को छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के बारे में, उनके शौर्य और आदर्शों के बारे में भी कुछ बताना चाहिएं। उनके पराक्रम की कहानियां इन बिगड़े बच्चों को सुनानी चाहिएं। उनका त्याग, स्वतंत्रता के लिए उनकी बेचैनी, हिंदवी स्वराज्य के साथ ही सुराज्य के लिए उनकी चिंता, प्रजाजनों के कल्याण के लिए उनके द्वारा किये गए कार्य, उनकी राजनीति, चातुर्य, राष्ट्रभक्ति की उद्दात भावनाएं, मुस्लिम शासन के विरूद उनका विद्रोह, और इसके लिए उन्होंने रची हुई प्रसिद “गनिमी कावा“ रणनीति के बारे में यहीं थोड़ी देर ठहर कर इन लड़कों को सब कुछ विस्तार से बताना चाहिएं। पर मेरे अन्दर से ही अचानक आवाज आई ‘नहीं… यहाँ एक पल भी ठहरना ठीक नहीं।‘ तत्काल मैंने अपने आप को सम्हाला, क्या जाने मैं समझाने जाऊँ और वें लड़के मेरे साथ ही कुछ अभद्रता करें, पलट कर जवाब दें। मेरे साथ कुछ अनहोनी भी हो सकती हैं यह आशंका तो थी ही। एक पल में ही मैंने वहां से निकलना ही ठीक समझा और मन ही मन मैंने छत्रपति श्री शिवाजी महाराज से क्षमा मांगी, “क्षमा करे महाराज।“ और अपनी राह पकड कर घर पहुंचा। पर उस रात बड़ी देर तक मुझे नींद नहीं आई और बहुत देर तक मैं करवट ही बदलता रहा था। अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार करने की राह में मेरा डर और स्वार्थ आडा आ गया और मेरा मन आत्मग्लानी से भर गया।
अब तो मेरी रोज की यही राह थी। आते-जाते छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के पुतले को मैं बड़ी आस्था के साथ मन ही मन नमन और स्मरण कर आगे बढ़ता था। हमेशा ही भीड़-भाड़ न होने वाला यह चौराहे पर उस दिन ऑफिस जाते समय बहुत ही भीड थी। चारों ओर सुरक्षा व्यवस्था थी पुलिस कर्मियों की भी भीड़ थी। पुलिस की बहुत सारी गाड़ियाँ भी खड़ी थी। बजरंगबली के मंदिर के पास स्कूटर रोक कर एक से पूछने पर पता पडा कि किसी राजनैतिक दल का यहाँ मोर्चा आने वाला था। शायद युवा मोर्चे का प्रदर्शन था। आजकल हर एक दल को युवामोर्चा बनाने की आवश्यकता महसूस होती ही हैं सरकार को और आम जनता को डराने धमकाने के लिए। वैसे आजकल सभी दल भी एक से ही लगते हैं और आप सिर्फ उनके अलग-अलग रंगों और डिजायन के झंडे देखकर ही उनमे अंतर कर सकते हैं। याद आया सुबह अखबार में पढ़ा था कि कुछ मांगो को मनवाने के लिए यह मोर्चा इस पुतले तक आकर ही पूर्ण होना था। यह शहर भी अजीब हैं, सभी धरनों और मोर्चों के लिए इस पुतले की प्रदक्षिणा ही अंतिम लक्ष माना जाता हैं। यही इस पुतले का उपयोग था इस शहर के लिए। ऑफिस के लिए थोडा समय था इसलिए मैं वहीँ ठहर गया कि देखे छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के सामने क्या क्या होता हैं?
नारेबाजी, चिल्लाचोट, हंगामा, पुलिस के सामने होता रहा और आश्चर्य यह कि वे सब आवारा लड़के भी इस भीड़ में शामिल हो गए थे। मोर्चे में शामिल सभी ने नारेबाजी के साथ छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के पुतले की परिक्रमा पूर्ण की और जैसे आए थे वैसे पुलिस की सुरक्षा में वापस चले गए। हो गया मोर्चा और प्रदर्शन। पता नहीं क्या हासिल हुआ लोकतंत्र को? आम जनता को यह पूछने का हक़ किसी ने नहीं दिया। उसे सिर्फ पाच साल में एक दिन ही यह पूछने का हक़ हैं वह भी तब, जब वह मतदाता हो। खैर अब सब शांत था। मुझे समझ में ही नहीं आया कि युवा मोर्चे का छत्रपति श्री शिवाजी महराज से क्या संबंध था? वैसे मोर्चे की मांगों से भी महाराज का कुछ भी संबंध नहीं था। परिक्रमा पूर्ण हुई पर छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के पुतले में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा था। वहीँ बिखरी हुई धूल, वहीँ गंदगी, पुतले पर वैसे ही बिना रोक-टोक गंदगी फैलाते बैठे हुए पक्षी, वही सीढियों पर आवारगर्दी करते बैठे हुए मवाली लड़के। ना जाने मुझे ऐसा क्यों लगा कि थोडा ठहरकर छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के पुतले को स्वच्छ करना चाहिएं, पर फिर सोचा ऑफिस में देर होगी। “महाराज, आप को तो यहीं रहना हैं, ऑफिस मुझे ही जाना हैं“ मन ही मन महाराज से माफ़ी मांगकर मैं आगे बढ़ गया।
ऐसे ही एक दिन मैंने बहुत प्रसन्नता अनुभव की। उस दिन सुबह से ही बहुत भारी बारिश हो रही थी। मैंने बरसाती पहन रखी थी और जब मैं चौराहे पर पुतले के पास से गुजर रहा था उस वक्त मैंने पुतले पर नजर डाली और देखता क्या हूँ कि छत्रपति शिवाजी महाराज का पुतला पानी की तेज बौछारों के कारण साफ़ हो रहा था। ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई पुतले को रगड़ रगड़ कर साफ़ धो रहा हो। घोड़े और तलवार सहित छत्रपति श्री शिवाजी महाराज का पुतला साफ़ धोये जाने के कारण गहरे काले रंग में चमक भी रहा था। पुतले का चमकना महाराज के पराक्रम को सार्थक कर रहा था, उनकी कीर्ति जैसा चमक रहा था पुतला। इससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक यह था कि उस समय पुतला देख कर मैंने महसूस किया कि महाराज के चेहरे पर अलग ही तरह की तरह की प्रसन्नता थी, चमक थी और चेहरा भी संतुष्ट दिखाई दे रहा था। सच बताऊँ उस रोज दिनभर मेरे चेहरे पर भी कोई तनाव नहीं था और नाही मुझ पर किसी तरह का बोझ था।
अगला दिन बिलकुल ही अलग था। कल के मौसम से बिलकुल अलग बहुत तेज धूप थी। उमस के कारण कल की संतुष्टि आज नहीं थी। छत्रपति श्री शिवाजी महाराज का पुतला भी तेज धूप के कारण कुछ परेशान सा नजर आ रहा था। मेरे मन में अचानक विचार आया कि ऑफिस जाने में भले ही देर हो जाए तो भी चिंता नहीं पर आज कुछ देर छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के पुतले पर छाता लेकर खड़े होना चाहिए, जिससे उन्हें कड़ी धूप से बचाया जा सके। परन्तु यह संभव नहीं था, मुझे अपने आप पर ही हंसी आगई। “क्षमा करे महाराज“ कहते हुए मैंने स्कूटर का एक्सीलेटर बढ़ा दिया।
अब हमेशा की तरह रोज के वही दृश्य थे। वही गंदगी ….. उसी तरह पुतले पर पक्षियों का बैठना और गंदगी करना, वैसे ही पुतले के निचे आवारा लड़कों का बेरोकटोक बैठना, जुआ खेलना, नशा करना और मवाली लड़कों के यहीं रोज के बुरे कर्म। एक दिन फिर से छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के पुतलेवाले चौराहे पर भीड़ देखने को मिली। याद आया सुबह ही अखबार में पढ़ा था कि किसी दल के तीन कार्यकर्ता उनकी कुछ मांगे पूरी ना होने के कारण पुतले के समक्ष आत्मदाह करने वाले थे। पुलिस की जबरदस्त सुरक्षा व्यवस्था थी। फायरब्रिगेड की गाड़ियाँ थी, एम्बुलेंस भी थी। अब किसी को मरने की इच्छा हो या ना हो पर आजकल आत्मदाह की धमकी देना राजनैतिक दलों का एक नए तरह का औजार बन गया हैं। प्रचार के लिए, अखबारों में और न्यूज चैनलों पर छाने के लिए, टीआरपी बढाने के लिए इन सब हथकंडो का बहुत उपयोग किया जाता हैं, और उससे इन्हें लाभ ही होता हैं। देखने वालों की सहानुभूति मिलती हैं वो अलग। आत्मदाह करने के पूर्व सभी मांगे मान ली जाएंगी ऐसी एक गलतफहमी होती हैं आत्मदाह की घोषणा करने वालों में, और उन्हें पूर्ण विश्वास भी होता हैं कि उन्हें घोषित आत्मदाह करने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी। वैसे आजकल सभी दलों की राजनीती कुछ ऐसी होती कि आत्मदाह की घोषणा करने वालो का आत्मविश्वास सही साबित होता ही हैं, इसलिए अपनी मांगों के लिए रोजरोज आत्मदाह की घोषणा करना बहुत आसान हो गया हैं। अनेक बार मांगे वास्तविक न होने के कारण ऐसे आंदोलनों का आसरा लेना पड़ता होगा, और फिर मरने के बाद दुनियाँ में ही ना होंगे तो ना जरुरत होगी, ना मांग होगी और ना ही उसे पूर्ण करने की कोई बाध्यता। यह भी तो एक सोच होता ही होगा राजनैतिक दलों का? क्या किया जा सकता हैं? पर एक बात समझ से परे हैं इन सब जरूरतों का, मांगों का, और मांगे पूर्ण करने ना करने का छत्रपति श्री शिवाजी महाराज से क्या संबंध? एक पहेली ही तो हैं। मेरे विचार में ऐसे लोगो को अपने आत्मदाह का आन्दोलन स्मशान में ही करना चाहिएं ताकि व्यवस्था करना थोड़ा आसान हो। सच तो यह हैं कि छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे शूरवीर, कर्तव्यदक्ष, कर्मठ राजा के पुतले के समक्ष ऐसी कायरता का प्रदर्शन मुझे अस्वस्थ कर रहा था। मैंने महाराज के पुतले की ओर देखा , आज उनके चेहरे पर से चमक गायब थी। मुझे भी मेरी असहायता के कारण बहुत मानसिक तकलीफ हो रही थीI
आत्मदाह के लिए सुबह ९ बजे का समय घोषित किया गया था। क्या होता हैं यह जानने की मुझे भी उत्सुकता थी, इसलिए मैं थोडा एक तरफ होकर ठहर गया। दस बज रहे थे फिर भी कही कोई हलचल नजर नहीं आ रही थी। आत्मदाह के लिए अभी तक कोई आगे नही आया था। भीड़ धीरे-धीरे कम होते जा रही थी। अचानक कही से तीन लोग महाराज के पुतले के निचे सीढियों पर प्रगट हुए। उनमें से एक ने अपनी जेब से रुमाल निकालकर निचे रखा, दूसरे ने जेब से एक छोटी शीशी निकाली और उसमें से दो बूंद केरोसिन रुमाल पर छिड़का और अत्तर छिडकते हैं वैसी कुछ बुँदे तीनों पर छिडक ली, तीसरे ने माचिस की तीली निकाली पर उसने सिर्फ रुमाल जलाया। रुमाल जलने लगा और आगे कुछ हो उसके पहले ही पुलिस ने दौड़ कर तीनों को पकड लिया। फोटोग्राफरों के फ्लेश चमकने लगे और तीनों विजयी मुस्कान से फोटो खिचाने लगे। अगले दिन की वर्तमानपत्रों के लिए प्रथमपृष्ठ के शीर्षक की तैयारी होने लगी। मानों यह सब पूर्व नियोजित हो। मेरे विचार में इसे प्रतीकात्मक आत्मदाह कहने में किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। मुझे हंसी आ गयी। इस दुनियाँ में कहीं भी कुछ भी हो सकता हैं। आत्मदाह बिलकुल सुरक्षित, सरल, और सुविधाजनक ऐसा प्रतीकात्मक भी किया जा सकता हैं। आश्चर्य हैं। परन्तु इतना जरुर निश्चित रूप से कहाँ जा सकता हैं कि इस शहर की अनेक गतिविधियों में छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के इस पुतले की सक्रियता, महत्व और उपयोग बढ़ता ही जा रहा था।
एक बार ऑफिस जाते समय मेरी स्कूटर ठीक छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के पुतले के पास ही बंद पड़ गयी। दांयी ओर पान की एक गुमटी के बगल में पंक्चर वाले की गुमटी थी। मैं वहीँ ठहर गया। पंक्चर ठीक होने तक वहां ठहरना मजबूरी ही था अत: मैं वहीँ खडा रहा।अचानक मुझे शोरगुल की आवाज सुनाई दी। मैंने देखा पुतले के निचे कुछ लोग जोर-जोर से झगड रहे थे। उतने में ही मेरी आँखों के सामने उनमें से एक व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति के पेट में छुरा भोंक दिया। पलभर में ही हाहाकार मच गया …. खून की धारा ….. चारों ओर भगदड …. एक आदमी जान से हाथ धो बैठा। थोड़ी ही देर में पुलिस आगयी। बदहवास लोगों का इधर से उधर आना-जाना ….. वों भीड़ ….. एम्बुलेंस …. सब कुछ मेरी आँखों के सामने कुछ ही क्षणों में घटित होने से मैं भी घबरा गया, बेचैन भी हो गया। छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के पुतले के समक्ष यह कायरता और क्रूरता मुझे आहत कर गयी थी और मेरा मन यह घटना स्वीकार करने को तैयार ही नहीं हो पा रहा था। मेरे सामने एक ह्त्या हो गयी और मैं कुछ भी नहीं कर पाया। कितना असहाय था मैं? उस दिन के द्रष्य को मैं कई दिनों तक भूला नहीं पा रहा था। उस रोज ना जाने क्यों अनेक बार मेरे मन में विचार आया कि इस तरह की गुंडागिर्दी रोकने के लिए छत्रपति श्री शिवाजी महाराज को एक बार फिर से जन्म लेना चाहियें… और उसी तरह महाराज की माँ जिजामाता और महाराज के आध्यात्मिक गुरु समर्थ रामदास को भी फिर से एक बार जन्म लेना चाहियें ताकि महाराज का काम आसान हो सके। परन्तु वैसा होना संभव ही नहीं था। मैं उस रोज बिना बात के ही दिन भर उदास रहा।
उस रोज छत्रपति शिवाजी महाराज की जयंती थी। महाराष्ट्र में सरकारी अवकाश था पर यहाँ इस प्रदेश में अवकाश ना होने से ऑफिस जाना तो जरुरी ही था सो ऑफिस के लिए निकल पडा। मन में विचार आया आज महाराष्ट्र में शिवाजी जयंती निमित्त अनेक कार्यक्रम होंगे पर यहाँ सिर्फ निर्जीव पुतला खड़ा होगा चौराहे पर? खैर ! रोज की तरह पुतले के पास से गुजरना ही था। छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के पास आया, मन में विचार आया कम से कम आज तो महाराज के पुतले के पास कुछ पल ठहर कर उन्हें विनम्रता से नमन करना चाहियें ! मनोभाव से शिवराया को झुक कर तीन बार मुजरा कर उनका स्मरण करना चाहियें। परन्तु ……अरे … अरे …. यह क्या देख रहा हूँ ….. मुझे मेरी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था ….कभी सपने में भी नहीं सोचा था जो यहाँ इस चौराहे पर हो रहा था। चौराहे पर बड़ी चहल-पहल थी। पानी के टेंकर थे। दो आदमी पुतले पर पानी डाल रहें थे। चार आदमी पुतले को चारों ओर से घिस-घिस कर साफ़ कर रहे थे कुछ लोग सीढियाँ और रेलिंग वगैरे साफ़ करने में जुटे थे। एक आदमी काले रंग के शिलालेख का पत्थर घिस-घिस कर साफ़ कर रहा था। यह सब देख कर मुझे बहुत अच्छा लगा। मन प्रसन्नता से भर गया। स्कूटर एक ओर रोक कर मैंने एक गुमटी वाले से पूछा तो उसने बताया कि ११ बजे के लगभग छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के पुतले पर माल्यार्पण का कार्यक्रम होने वाला हैं। मैंने सोचा कि ऑफिस में हाजरी लगाकर तुरंत थोड़ी देर यहाँ आना चाहियें ताकि पता पड़ सके कि यहाँ का कार्यक्रम हो रहा हैं। और यह सोच कर मैं थोड़ी ही देर में यहाँ वापस लौट कर आ गया।
थोड़ी ही देर बाद राज्य के महामहिम राज्यपाल महोदय पधारे। उनके साथ पूरा अमला और अनेक नेतागण थे। अब सभी यातायात रोक दिया गया था। किसी को भी छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के पुतले के पास आने नहीं दिया जा रहा था। मैं दूर से ही थोड़ी ऊंची सी जगह से सब देख रहा था। जगह मिलते ही धीरे-धीरे थोडा आगे बढ़ना चाहियें यह मैंने सोचा और मौका मिलते ही मैं थोडा और आगे बढ़ गया। अब यहाँ से मुझे सब स्पष्ट दिखाई दे रहा था। अगले ही कुछ क्षणों में महामहिम अपने सुरक्षा घेरे के साथ छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के पुतले के निचे आकर खड़े हो गए थे। पुतला कुछ अधिक उंचाई पर था, उस पर भी छत्रपति श्री शिवाजी महाराज घोड़े पर बैठे हुए थे इससे वह कुछ ज्यादा ही उंचाई पर था। यद्यपि ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ि की व्यवस्था थी पर महामहिम की उम्र ७५ पार होने से उनके लिए ऊपर चढ़ना संभव ही नहीं था। महामहिम कुछ सोचते हुए कुछ देर निचे वैसे ही खड़े रहे। आखिर कुछ सोच कर महामहिम ने बड़ा सा हार और पुष्प शिलालेख के पास चबूतरे पर रख दिए। सबने तालियाँ बजाई। एक सहायक ने महामहिम की ओर से वह हार सीढियों से ऊपर चढ़कर महाराज को माल्यार्पण किया। महामहिम के छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के शौर्य और उनके द्वारा किये महान कार्यों की संक्षिप्त जानकारी वहां खड़े लोगों के समक्ष दी गयी। फिर तालियाँ। इसके बाद कुछ फोटो और सभा विसर्जित हो गयी। सभी अपनी अपनी राह।
चौराहे पर अब फिर से आना जाना शुरू हो गया। वहीँ २४ घंटे चबूतरे पर खडा होने को अभिशप्त घोडा ….. और २४ घंटे घोड़े पर ही बैठे रहने के लिए अभिशप्त छत्रपति श्री शिवाजी महाराज ….. परन्तु शांत-गंभीर कुछ सोचता सा लगता महाराज का चेहरा ….. फिर वहीँ आवारा बदमाश लड़के …. वही खेल …. वहीँ नशा ….. महाराज के ही पुतले के निचे आते जाते राहगीरों की ग्वाही से …. कुछ भी नहीं बदला …. मैं भी कब तक खड़ा रहता? मुझे भी लौटना ही था। मैंने मन ही कहा … ”क्षमा करें महाराज … पर मेरे मुंह से अचानक जोर से निकल पड़े शब्द वहां सबने सुने … “छत्रपति श्री शिवाजी महराज की जय …”
परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता।
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