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मजनूं

डॉ. चंद्रा सायता
इंदौर (मध्य प्रदेश)

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मैं तुम्हारी गली से गुजरा था कई बार यकीन मानो।
ना जाने क्या सोचकर रह गया। तुमसे मिल ना सका

मैंने तुम्हारे घर की खिड़की देखी
पैबंद लगा टाट का पर्दा नहीं था वहां।
लहराता रेशमी पर्दा मानो कह रहा था।
“वह अब यहां नहीं रहती” पर्दों के
इनकार को सही मान लिया।
तुमसे मिल ना सका।

तेरे दर की चौखट से आती रोशनी,
खूबसूरत रेशमी पर्दों की शान बढ़ा रही थी।
पंखे की तेज हवा उसके इतराने में मददगार थी।
तुम भला यहां कैसे रह सकती थी?
मैंने समझाया अपने मन को।
तुमसे मिल न सका।

बड़ी खाला के खखारने की
आवाज खामोश हो गई थी।
शायद बदले में रुक रुक कर
खिलखिला हट की गूंज रही थी।
बाहर रखी हसीन चप्पलें
मानो कह रही थी ।
“कौन चाहिए?” आंखों की कोरें
शरारती हंसी से भरी होती।
मैं दीवाना इतना भर कह
आगे बढ़ गया “कोई नहीं”
असल में तुम्हारी चप्पल देख रहा था
जैसे चोर पकड़ा गया हो।
खामोश रहा। तुमसे मिल ना सका।

मैं भी कितना पागल हूं।
बीसियों साल पहले मिला करते थे हम।
अब तुम कहां होगी?
तुम्हारे घर में अब कौन होंगे?
जेहन में बस एक तुम ही रही ।
वक्त के फा़सलों की खबर ही ना रही।
दीवानगी मेरी ही थी
शिकायत किससे? तुमसे मिल ना सका।

जब तुम यहां रहती ही नहीं,
तुम्हारी बदनामी का भी डर नहीं,
मैंने इधर उधर से पता किया।
जानते ही ख्वाब चूर चूर हो गए।
कांच की मानिंद जिगर में चुभते रहे।
यह वही घर है, जिसमें तुम रहती थी
आज भी तुम रहती हो,
पर अपने शौहर और बच्चों के साथ।
यह भी सुना कि अब तुम
मुफलिसी से नफरत करने लगी हो।
अब कहने कै कुछ भी बाकी न रहा।
अच्छा ही हुआ जो तुमसे मिल न सका।

परिचय :- डॉ. चंद्रा सायता
शिक्षा : एम.ए.(समाजशात्र, हिंदी सा. तथा अंग्रेजी सा.), एल-एल. बी. तथा पीएच. डी. (अनुवाद)।
निवासी : इंदौर मध्य प्रदेश
लेखन : १९७८ से लघुकथा सतत लेखन
प्रकाशित पुस्तकें : १- गिरहें २- गिरहें का सिंधी अनुवाद ३- माटी कहे कुम्हार से
सम्मान : गिरहें पर म.प्र. लेखिका संघ भोपाल से गिरहें के अनुवाद पर तथा गिरह़ें पर शब्द प्रवाह द्वारा तृतीय स्थान
संप्रति : सहायक निदेशक (रा.भा.) कर्मचारी भविष्य निधि संगठन,श्रम मंत्रालय, भारत सरकार।
घोषणा पत्र : यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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