बाबुलाल सोलंकी
रूपावटी खुर्द जालोर (राजस्थान)
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गांव से अहमदबाद जा रहा हूं। मेहसाणा बस डिपो पर दस मिनिट के लिए बस रुकी है। थोड़ी आरामदेही के लिए डिपो के चौड़े आंगन से टहलता हुआ हाइवे तक पहुँचा। कोई १०-१२ साल का एक लड़का और फटे-पुराने कपड़ो से लदी उसकी माँ तिरंगी टोपी व तिरंगा झंडा लिए जोर जोर से चिल्ला रहे थे …..तिरंगा लेलो …….झंडा लेलो…….! देश प्रेम नी एकज ओळखान…….(आगे की पंक्तिया समझ नही आई)……! हाइवे पर सरपट दौड़ती मारुति आल्टो ८०० से बी एम् डब्लू जैसी कारो वाले देश भक्त लोग भी है तो साइकिल से लेकर रॉयलफील्ड व महंगी स्पोर्ट्स बाइको पर सवार लोग भी है। कोई ईधर नजर घूमाता कोई न भी। कोई महँगी कारो की ए.सी. से हल्का सा ग्लास नीचे कर पूछता – अल्या केटला पइसा ?
सेठ…ए….क….ना दस रुपिया, बीस रुपया ! देशप्रेम महंगा हो गया, ग्लास ऊंचा हो जाता और गाड़ी रवाना ! लड़का गाड़ी के पीछे भागता ……सेठ…केटला…आलछो….!…बिना सुने…. बिना……. चांज दिए गाड़ी सेकंडों में ६०-८० की स्पीड हो लेती है ओर गाड़ियों के झुंड में ओझल हो जाती। रईसों की दुनिया मे कोई चांज नही ! यँहा कतई अपेक्षा न रखे कि आपका हाथ थाम कर उनकी दौड़ में कोई सामिल करेगा सब अपनी गति से भागते जा रहे है वन्ही माँ बेटे अगले ग्राहक का इंतजार करते। मैं जल्दी में था। मेरा ध्यान बस की ओर था इतने में मिया बीबी बच्चे सहित कार रुकी। अधखुले ग्लास से आवाज आई- भई एक आली दे न……! छोकरो राड पाड़े छे …! दस या बीस वाला ! ओठो मे सिगरट को दबाए-पांच रुपया आली दू…..! सेठ नथी आवे ! अल्या एक कागलिया ना छू दस बीस करे …! सेठ कागल नथी झंडो छे ……कागल ना कोई पइसा आलता हसे।
सेठ नाराज हो गए बच्चा जिद किये था। पांच आली दू। नही आवे सेठ ! पर अटलां बधा !
गला तब भर आया जब सिगरेट के धुंए से बने छल्ले हवा में लहरा रहे थे कुछ पैसे वाले तिरंगे के भाव मोल कर रहे थे। उस समय मासूम बच्चे ने अपने पापा से कहा-आली दो न ! पापा ! तमे कहता हता न कि तिरंगा नू मोल तो शहीद नी माँ या विधवा पत्नी समझी सके। जान ती मुंगो छे आ। आज केम पांच रुपिया मा लेवा माँगो छो।
मैं निःशब्द हो गया! बच्चा उसके मम्मी-पापा ओर उस गरीब लड़के और उसकी माँ को देख रहा था उधर भोपू बजा मैं भागकर बस में बैठ गया। पर बस की सरसराहट में ये सोच रहा था। भाई ! अपना-अपना देश प्रेम है। एक पेट के लिए तिरंगा बेच रहा था। दूसरा शान दिखाने के लिए तिरंगे का भाव मोल कर खरीद रहा था। एक के लिए देशप्रेम रोजी रोटी और जीवनाधार था तो दूसरे के लिए मात्र दिखावा, शौक था। एक ने तिरंगा इसलिए पकड़ रखा था कि उसे अपनी माँ और परिवार को सहारा मिले तो दूसरे के लिए बेटे के मनोरंजन की जिद्द थी। एक लिए तिरंगा गाड़ी/कार बंगला रोजी रोटी दुकान ओर जीवन आश थी तो दूसरे के लिए तिरंगा अपनी गाड़ी/कार, बंगला की मात्र शोभा बढ़ाने वाला साधन। मित्रो ! देश प्रेम सभी को है ! अपना अपना देशप्रेम है ! देशप्रेम के अपने मायने व हिसाब है ! अब निस्वार्थ देशप्रेम कँहा रहा है ! गर रोजी रोटी गांव देहात या शहर में आसानी से मिल जाती तो बहुत कम लोग सीमाओं पर नजर आते। देशप्रेम महंगी कार में भागते सेठ साहूकारों को भी है। और तेज धूप में धरती का सीना फाड़ फसल उगाते किसानों मे भी है। झुग्गी झोपड़ी के भूखे प्यासे लोगो को भी है और कई हजारो स्क्यार फिट के गगनचुम्बी इमारतों में रहने वाले लोगो मे भी है। किंतु उनका अपना अलग देशप्रेम है। किसी को दस रुपये में तिरंगा बेच देशप्रेम जताना है तो किसी को आधे दामो में खरीद कर बताना है। धर्म और धन के नायको में भी देशप्रेम खूब है पर लाखो करोड़ो रूपये जुटाने के फेर में समय नही मिल पाता है अतः पेंडिंग रखा गया है। सड़क पर तिरंगा झंडा बेचता लड़का ओर उसकी मां चाहती है कि देश मे हर दिन झंडा मनाया (१५ अगस्त, २६ जनवरी) जाए। जिनकी वजह से उनकी रोटी जुगाड़ हो सके जबकि देशप्रेम पर बोलने और लिखने वाले चाहते है कि झंडा चुनावो में, सत्ता छीन होने पर, सीमा पर सैनिको के शहीद होने पर नजर आए जिससे उनकी दुकाने चले ! सजे ! ओर उनका ताज तैयार किया जा सके। मित्रो! ये अपना-अपना देशप्रेम है।
कुछ अति देशप्रेमी लोगो से एक सवाल है। आप किसका देशप्रेम शाश्वत मानते है। आप किस तरह के देशप्रेमी है। अपनी भी कोई पंक्ति तय करे। देशप्रेम के नाम किसी को डराए नही।
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परिचय :
बाबुलाल सोलंकी
रूपावटीखुर्द जालोर (राजस्थान)
जन्मतिथि – २० जून १९७६
स्नातक – हिंदी साहित्य
स्नातकोत्तर – राजनीतिविज्ञान महर्षि दयानंद सरस्वती विश्विद्यालय अजमेर
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