विजय गुप्ता
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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कमाल की तरक्की होती जा रही अब जमाने में,
आज तक स्नेह परखने का यंत्र तो बन नहीं सका।सुनते रहे थे सदा हम, छिपाने से छिपता नहीं,
स्नेह कोई वस्तु जैसी नहीं प्रदर्शन बन नहीं सका।दिल की तिजोरी का हर कोना स्नेह से लिप्त हो
जरूरत में कैद स्नेह कभी, आजाद बन नहीं सका।सात दिन चौबीस घंटे दिल कारखाने में ये बने,
स्नेह गजब का डॉन, सूरत ए हाल बन नहीं सका।चार बातें चार लोग के सामने होती महफिल में,
खुद के बनाए घेरे में झांकता, शख्स बन नहीं सका।सही गलत सब गेंद खेलने, माहिर हुए अब लोग,
सही जगह सच रखने, फिक्रमंद भी बन नहीं सका।स्नेह सात तालों की सुरक्षा, बहुत खास है प्रसंग
बहुत स्नेह रखते मात्र कहने, साहस बन नहीं सका।दूसरों की नजर में पूछ परख सम्मान मिलता रहे,
सबके सामने सच रखने का, योग भी बन नहीं सका।स्नेह के ऐसे कारखाने में तालाबंदी होना चाहिए,
जो स्नेह वरदान का कभी, कदरदान बन नहीं सका।जब स्नेह भी बनाया है जली भुनी रोटी के जैसा,
बेकाम पाली चीज है, गाय कुत्ता ग्रास बन नहीं सका।स्नेह पैमाना कोई दीवार टंगी घड़ी तो नहीं होता,
वक्त के साथ साथ स्नेह देनेवाला तो बन नहीं सका।गीत लिखे हमने भी, ता उम्र जरूरी स्नेह भाव,
रिश्तों का स्नेह भंडार, कभी खाली बन नहीं सका।चैत्र प्रतिपदा नव वर्ष पे, स्नेह उबाल भरके बोला,
मातारानी सी स्नेह प्रदायिनी कोई भी बन नहीं सका।
परिचय :- विजय कुमार गुप्ता
जन्म : १२ मई १९५६
निवासी : दुर्ग छत्तीसगढ़
उद्योगपति : १९७८ से विजय इंडस्ट्रीज दुर्ग
साहित्य रुचि : १९९७ से काव्य लेखन, तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल जी द्वारा प्रशंसा पत्र
काव्य संग्रह प्रकाशन : १ करवट लेता समय २०१६ में, २ वक़्त दरकता है २०१८
राष्ट्रीय प्रशिक्षक : (व्यक्तित्व विकास) अंतराष्ट्रीय जेसीस १९९६ से
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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