विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.
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मराठी नाटकों की अपनी एक अहमियत होती हैं और उनमें व्यवसायिकता भी भरपूर पायी जाती हैं। मुझे भी मराठी नाटक देखने का बहुत शौक हैं और इसी कड़ी में कुछ दिनों पूर्व एक मराठी नाटक देखने का अवसर प्राप्त हुआ। नाटक का नाम था ‘झालं गेलं विसरुन जा’ अर्थात जो भी हुआ उसे भूल जाओं। वैसे हिंदी में कहावत भी हैं, ‘बीती ताही बिसार दे।’ नाटक की समीक्षा करने का कोई विचार मेरे मन में नहीं हैं, परंतु नाटक के विषय की ओर सबका ध्यान जरुर आकर्षित करना चाहूंगा। नाटक का विषय था स्त्री-पुरुषों के अनैतिक शारीरिक संबंध। इससे भी महत्त्वपूर्ण यह कि विवाह संस्था हेतु स्थापित सामाजिक नैतिक परम्पराओं और मूल्यों को ध्वस्त करते हुए पत्नी के मित्र के साथ स्थापित अनैतिक शारीरिक संबंधों को पति द्वारा बडी सहजता और सरलता से मान्यता देते हुए स्वीकार करना। यहाँ तक कि स्वयं की पत्नी द्वारा उसके ही मित्र से जन्में बालक को भी अपने पुत्र के रूप में मान्यता देना। पिता की जगह अपना स्वयं का नाम देना और इससे बढ़कर महत्वपूर्ण तीनों के द्वारा स्वाभाविक खुले दिमाग से आपस में सहजता से चर्चा कर आपसी सहमति से लिए गए सारे निर्णय हैं।
नाटक के सारे कलाकार, लेखक, दिग्दर्शक बड़ी आसानी से सुद्रढ़ पारिवारिक व्यवस्था हेतु समाज में स्थापित मूल्य एवं परम्पराओं को भूल सकते हैं परंतु नाट्य प्रेमी रसिक दर्शकों को यह सब भुलाना तो दूर हजम करना भी कठिन ही रहा होगा। नाटक के कथानक का आधार था, किसी एक समय सोवियत रूस में वामपंथियों में अग्रणी तरक्की पसंद विचारधारा कुछ यूँ थी कि, स्त्री-पुरुषों सहित सभी सम्पति राष्ट्र की ही होती हैं। सभी जीवित और निर्जीव सम्पति भी राष्ट्र की ही होने से सभी पर राष्ट्र का ही अधिकार हैं और इन सब सम्पतियों के बारे में निर्णय लेने का अधिकार भी राष्ट्र को ही हैं। अब चूँकि इनमें सभी स्त्री-पुरुष भी शामिल हैं इसलिए साथ रह रहें स्त्री-पुरुष को पति-पत्नी के रिश्ते का नाम या मान्यता देने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। इसी तरह छोटे बच्चे और भविष्य में पैदा होने वाले बच्चें भी राष्ट्र की ही संपत्ति होने से उन्हें भी माता-पिता का नाम देने की या माता-पिता के नाम से पहचान बनाने की भी कोई आवश्यकता नहीं हैं। परंतु इस अविवेकी और तुगलकी नियम को अमलीजामा पहनाने में आई ढेरों परेशानियों के कारण यह व्यवस्था ज्यादा देर नहीं टिक सकी और सोवियत रूस में परिवार व्यवस्था की आवश्यकता तीव्रता से महसूस होने लगी और इस तरह आई अनेक समस्याओं के कारण इस तुगलकी व्यवस्था का अल्पकाल में ही अंत हो गया।
हमारे देश में तो माँ की अपार महिमा होती हैं। हमारे राष्ट्र में, समाज में और धर्म में भी माँ पूजनीय होती हैं और उसे बालक का पहला गुरु होने का उच्च स्थान भी प्राप्त हैं। बालक को सर्वश्रेष्ठ संस्कार देने वाली भी माता ही होती हैं। अनेक वीर एवं विद्वानों को प्रोत्साहित करने वाली भी माता ही होती हैं। विश्व के अनेक राष्ट्रों में भी माँ की वंदना और गुणगान से इतिहास भरा पड़ा हैं। यह सब संदर्भ इसलिए कि सोवियत संघ में जिस समय तरक्की पसंद अग्रणी वामपंथी बच्चों को माता-पिता की एवं माता-पिता के भावनात्मक रिश्तों की आवश्यकता नहीं हैं के नियमों का पालन करवाने पर जोर दे रहें थे उन्हीं दिनों सोवियत संघ में ही माँ की ममता और माँ का महत्त्व विश्व को समझाते, विश्व प्रसिद्द लेखक मेक्सिम गोर्की ने अपना विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ” मदर ” लिखा था। यह एक विरोधाभास कह सकते हैं परंतु रिश्तों के महत्व को बताने के लिए यहाँ इसका उल्लेख किया हैं।
हम नाटक के मूल विषय की ओर बढ़ते हैं। इस दुनियां में बहुत सी अच्छी-बुरी घटनाएं रोज घटित होती रहती हैं। परिस्थितियों के अनुसार मनुष्य के व्यवहार का अच्छा-बुरा सबके सामने आता रहता हैं। जो मन को नहीं भाता और किसी का अहित करता हैं वह बुरा व्यवहार और इससे भी बढ़ कर यह कि भले ही कोई व्यवहार हमारे मन को भाता हो परंतु जिस व्यवहार या कर्म से भविष्य में हमें पश्चाताप करना पड़े ऐसा व्यवहार निश्चित ही बुरा व्यवहार हो सकता हैं। अब हमारे समाज में अविवाहित स्त्री-पुरुषों के अंतरंग शारीरिक संबंधों की ही बात ले, अब ऐसे संबंध समाज में मान्य हो या ना हो (अधिकांश ऐसे संबंध मान्य नहीं होते) परंतु खुद होकर आगे बढ़कर ऐसे संबंधों को कोई भी उजागर नहीं करता। परंतु आजकल अधिकांश साहित्य का, नाटकों का, फिल्मों का, धारावाहिक का, व अधिकांश प्रदर्शनों का विषय स्त्री-पुरुषों के अंतरंग वासनात्मक संबंध ही होते हैं। सारे विषयों में कामुकता इस विषय की प्रधानता होती हैं, मानों प्रदर्शन हेतु अब कोई विषय शेष ही ना हो, नाही कोई आर्थिक, सामजिक, या अन्य कोई समस्या विश्व में शेष बची हो। इस संबंध में उर्दू का एक शेर याद आता हैं, ‘जमीं वालों के सारे मसले हल हो गए शायद,जमीं के हुक्मरान अब आसमां की बात करते हैं।’
स्त्री-पुरुषों के अंतरंग संबंध सैकड़ों वर्षों से सभी का पसंदीदा विषय रहा हैं। वात्सायन के काम सूत्र वाले समय से आज तक के निर्मित होने वाले फिल्मों और सीरियल तक। मुद्रण का शोध और उसमें छपाई की उन्नत विकसित तकनीक, फोटोग्राफी और सिनेमेटोग्राफिक क्षेत्र में विकास होने के बाद, ख़ास कर बीते ५० वर्षों में घर घर में मोबाइल और टीवी के प्रचुर मात्रा में उपयोग के कारण और इसमें में भी इंटरनेट की विकसित बढ़ती सुविधा के कारण आज सोशल मिडिया का ही राज हैं। ध्यान देने योग्य यह बात हैं कि सोशल मिडिया के अनियंत्रित उपयोग के कारण स्त्री-पुरुषों के व्यक्तिगत अंतरंग संबंधी विषयों के सार्वजनिक होने को एक तेज गति प्राप्त हो गयी हैं। प्रसार माध्यमों की कमतरता के कारण पूर्व में ऐसे विषय आमजनों तक बहुत कम पहुंचते थे, परंतु विकसित तकनीक और मोबाइल एवं टीवी की घर घर तक आसान पहुंच के कारण अब यह विषय बच्चों तक भी पहुंच गएँ हैं।
महाराष्ट्र में कुछ वर्षों पूर्व जब से ‘लिविंग इन रिलेशनशिप’ हेतु अलग से कानून बनाया गया हैं तब से इस विषय को एक अलग ही नजरियां मिला हैं और अब यह आम चर्चा का विषय हो गया हैं। मुंबई-दिल्ली सहित देश के अन्य बड़े शहरों में नौकरी, व्यवसाय या पढ़ाई हेतु बड़ी संख्या में युवा अकेले ही रहते हैं। उनके रहने की कोई सुविधा युक्त स्थायी जगह मिलना बड़ा कठिन होता हैं और यहाँ तक कि कम अवधि हेतु भी उन्हें जगह नहीं मिल पाती हैं। इसके अलावा मुंबई दिल्ली जैसे बड़े शहरों में युवा बेरोजगारों को और कम तनखा पाने वालों के लिए किराये की रकम और उस हेतु जमा किया जाने वाला डिपॉज़िट देना भी संभव नहीं होता। वैसे इन सब कठिनाइयों को देखते हुए ही अनेक वर्षों पूर्व ‘पेईंगगेस्ट’ व्यवसाय और प्रथा शुरू हुई। यह व्यवस्था घर जैसा माहौल और घर जैसा भोजन उपलब्ध होने के कारण एक तरह से अच्छी व्यवस्था ही हैं। एक दूसरे की जरूरतों को पूर्ण करने हेतु परस्पर सहयोग और निर्भरता की दृष्टि से एक दूसरे के लिए बंधनकारी ऐसी यह आदर्श व्यवस्था कहलाती हैं। विशेष कर छात्राओं और नौकरी करती अकेली महिलाओं के लिये घरेलू वातावरण में एक सुरक्षित व्यवस्था के रूप में ‘ पेइंगगेस्ट ‘ व्यवस्था लोकप्रिय हुई। परंतु युवाओं में अनुशासन की कमी के कारण, बड़े शहरों की अत्यधिक व्यस्त जीवन शैली के कारण और जीने के लिए महत्वपूर्ण परस्पर निर्भरता के लिए आवश्यक व्यवहार को निजी स्वार्थ और सुविधा के लिए भूल जाने के कारण युवाओं को यह व्यवस्था ज्यादा रास नहीं आती। इसके अलावा ‘ पेइंगगेस्ट ‘ व्यवस्था की सिमित स्वतंत्रता भी युवाओं को रास नहीं आती। युवाओं को किसी भी तरह की टोकाटाकी और बंधन मान्य नहीं होते। इन सब के चलते बड़े शहरों में निवास ग्रह (होस्टल) की व्यवस्था का परिचालन शुरू हुआ, जहाँ व्यवस्थाएं भले ही कम हो पर युवाओं को आजादी भरपूर मिलने लगी। व्यवस्था एवं सुविधाओं का जहां तक प्रश्न हैं जितना ज्यादा पैसा उतनी ज्यादा व्यवस्था और सुविधा। ज्यादा स्वछंदता की चाह में, इसके आगे लड़के लड़कियाँ दो दो चार चार के समूहों में फ्लेट किराए पर लेकर स्वतंत्र रहने लगे। होस्टल और फ्लेट्स रहने की दृष्टि से सुविधा जनक ही होते हैं परंतु असल में समूहों में रहने के कारण युवाओं को स्वछंदता से और उन्मुकतता से रहने में कहीं तो भी रकवटें थी और दिक्कत होती थी। अत: लड़के लड़कियां अपनी पसंद के जोड़ीदार के साथ , जैसे भी हो अविवाहित ही सही किराए के मकान लेकर नि:संकोच एक साथ रहने लगे।अब साथ रहने से और शारीरिक आकर्षण से शारीरिक संबंध तो हो ही जाते हैं। इसके साथ ही आती हैं ढेर सारी चुनौतियां। युवाओं की उच्छृंखलता के कारण अनेक बार मकान मालिकों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, यहाँ तक कि उन्हें पुलिस थाने और अदालतों के चक्कर भी काटने पड़ते थे। यह स्थिति ‘ आ बैल मुझे मार ‘ जैसी ही होती थी, अत: ऐसे अविवाहित युगलों को मुंबई जैसे शहर में किराए का मकान देने से मकान मालिक मना करने लगे। वैसे भी अविवाहित साथ रहने के लिए सामाजिक मान्यता नहीं होती। युवाओं को किराए का मकान मिलने में पेश आ रही कठिनाईयों को देखते हुए महाराष्ट्र शासन ने ‘लिविंग इन रिलेशनशिप शिप ‘ कानून बनाया और यह विधानसभा द्वारा बहुमत से पारित भी हुआ। इस कानून को बनाकर महाराष्ट्र शासन ने एक सदभावना प्रदर्शित की जिससे कि हजारों नौकरीपेशा अविवाहितों को और छात्र-छात्राओं को किराए का मकान मिलने में आसानी हो, परंतु इस तरह अविवाहित रहने को समाज में मान्यता बड़ी देर के बाद और कठिनाई के साथ ही मिल पायी और कई स्थानों पर तो मकान देने में अभी भी हिचक दिखाई देती हैं। जो कुछ भी हो परंतु ऐसे अविवाहित युगल के साथ रहने के परिणाम या दुष्परिणाम तो होने ही हैं। और अविवाहित युवाओं के पालकों का चिंतित होना भी स्वाभाविक ही हैं। इस कानून के कारण हजारों वर्षों की धार्मिक आस्था एवं सामाजिक परंपराओं से निर्मित विवाह संस्था ख़त्म होने के कगार पर दस्तक दे रहीं हैं। ऐसे साथ रह रहे अविवाहित युगलों को समाज में आज भी प्रतिष्ठा एवं अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। इसे कदाचार समझा जाता हैं।
इस ‘लिव इन रिलेशनशिप‘ के कारण सामाजिक व्यवस्थाएं एवं मान्यताएं भी बदलने लगी हैं। इस परिवर्तित व्यवस्था के दुष्परिणाम और नयी समस्याएं भी सामने आने लगी हैं।अविवाहित स्त्री-पुरुषों के साथ रहने से शारीरिक आकर्षण स्वाभाविक ही हैं और ऐसे शीरीरिक संबंधो के कारण सबसे बड़ी समस्या यह कि पैदा हुए बच्चों के लालन-पालन का उत्तरदायित्व किसका हो? भले ही आज की लड़कियां गर्भ ना ठहरने की पर्याप्त सावधानी रखती हैं परंतु किसी भी समय मातृत्व की भावना उफान पर आना स्वाभाविक हैं और उससे इंकार भी नहीं किया जा सकता। कभी कभी शरीर से मातृत्व भारी पड़ता हैं। अविवाहित स्त्री द्वारा बच्चें को जन्म देने से परिवार असहजता में जीने लगता हैं और उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचती हैं। एक और समस्या यह कि पैदा हुए बच्चें के भविष्य का क्या? उसका लालन-पालन कौन करेगा ? वह अपने साथ किसका नाम लगाएगा?किसी संकट के समय विपरीत अवस्था में अविवाहित स्त्री के और उसके बच्चें को उसके साथ रहने वाले पुरुष की संपति में या उसके परिवार में क्या अधिकार रहेंगे ? अगर कोई अधिकार ना हो तो उनके गुजारे का क्या होगा? ऐसे अनेक सवालों से दो चार होना स्वाभाविक ही हैं।
असल में महाराष्ट्र सरकार के सामने मुंबई,पुणे,नासिक जैसे बड़े पैमाने पर नौकरी पेशा स्त्री-पुरुष और अध्ययनरत छात्र-छात्राओं के निवास की बहुत बड़ी और जटिल समस्या थी। ऐसे ही समय सर्वोच्च न्यायलय का एक निर्णय आया कि स्त्री-पुरुष के द्वारा आपसी सहमति से बनाएं गए शारीरिक सम्बन्ध अपराध की श्रेणी में नहीं हो सकते। सर्वोच्च अदालत का यहीं निर्णय ‘ लिव इन रिलेशनशिप ‘ कानून का आधार रहा। सिमित अवधि और सिमित उद्देश्यों के लिए रह रहें सभी के लिए निवास की व्यवस्था करना सरकार के लिए कैंसे संभव हो सकता हैं? स्थायी लोगों के लिए ही घरों के निर्माण की बनिस्पत मांग कई गुना ज्यादा होने से वैसे भी यह संभव नहीं था। इसके अलावा मकान खरीदना हरएक के लिए संभव भी नहीं होता। इन्हीं सब समस्याओं पर विचार कर ‘ लिविंग इन रिलेशनशिप ‘ कानून बनाने की योजना बनी होगी। अविवाहित युवाओं के बारे में आमजनों का और समाज का दृष्टिकोण बदले इस हेतु भी शायद यह कानून बनाया गया हो। यहाँ पर यह उल्लेख करना बेहतर होगा कि ‘दृष्टि आड़ सृष्टि’ अर्थात ऐसे साथ रहनेवाले युगल सब जगह हो सकते हैं परंतु सम्बंधित राज्यों द्वारा(महाराष्ट्र को छोड़ ) अभी तक ऐसा कोई कानून लाया नहीं गया हैं।
अब असल मुद्दा यह हैं कि इस ‘ लिव इन रिलेशन ‘ के बहाने कदाचार, स्वछंदता, उदंडता एवं समाज, परिवार या संस्कृति एवं परम्पराओं को कुचलने की बाढ़ सी आ गयी हैं उसका क्या ? किसी सुविधा का न्याय संगत उपयोग करना अलग हैं एवं स्वार्थ वश बिना किसी उत्तरदायित्व के सुविधा का गलत उपयोग करने से युवाओं में अनुशासनहीनता पनप रहीं हैं। कुछ ज्यादा ही संकीर्ण मानसिकता के लोग इसे व्यभिचार कहने में भी संकोच नहीं कर रहे हैं। परंतु मेरे विचार में आपसी सहमति होने के कारण इसे व्यभिचार कहना योग्य नहीं हैं।
लैंगिक समानता के पक्षधर, स्त्रियों के अधिकारों के लिए कार्यरत सामजिक स्त्री संगठन इसे अलग नजरियें से देखते हैं। उनके विचारों में अगर पुरुष अनैतिक सम्बन्ध रख सकते हैं, और फिर भी समाज में सम्मान के साथ रह सकते हैं ,और ऐसे पुरुषों को परिवार और समाज में न्याय भी मिल सकता हैं, तो फिर स्त्रियों के इस तरह के अनैतिक वर्तन के लिए उनके साथ दोगला व्यवहार क्यों हो? स्त्रियों के इस तरह के संबंधों के लिए समाज में मान्यता क्यों ना मिले? वैसे किसी तरह के अनैतिक संबंध दुर्भाग्यपूर्ण ही कहलायेंगें। स्त्री-पुरुष समानता यह बहुत पुराना मुद्दा हैं परंतु विचारणीय बात यह हैं कि स्त्रियों को लिव इन रिलेशन के बारे में ही पुरुषों से समानता क्यों चाहिए? जो गलत हैं वह गलत ही कहलायेगा। सच तो यह हैं कि श्रेष्ठ समाज की रचना हेतु स्वस्थ परिवार की महती आवश्यकता होती हैं और इसलिए पुरुषों की उश्रृंखलता पर भी नियंत्रण लगाने की आवश्यकता हैं। वर्तमान में संयुक्त परिवारों का विघटन हो गया हैं एवं एकल परिवारों का चलन बढ़ गया हैं। एकल परिवारों में आज बच्चों को अच्छा ज्ञान दे कर उन्हें संस्कारित करने वाले और उन्हें नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले दादा-दादी, नाना-नानी का कोई स्थान ही नहीं बचा। नौकरी एवं व्यवसाय के कारण ‘ हम दो हमारे दो ‘ वाली मानसिकता अब ‘हम दो हमारा एक ‘ से भी कम ‘ या ‘ हम दो हमारा कोई भी नहीं ‘ पर आ गयी हैं। ऐसे एकल परिवरों में किसी भी कारण वश अगर कोई नन्हा आ ही जाय तो उसे संस्कारित करने, भावनाओं से परिचित कराने, कहानियों द्वारा उसे ज्ञान देने के लिए घर में दादा-दादी, नाना-नानी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, दिखने के लिए भी नहीं होते। यहां तक कि मामा-मामी, बुआ-फूफा, और सभी तरह के रिश्तों के भाई-बहन तक दिखाई नहीं देते । ऐसे में उस बालक के लालन पालन में उसे भावनाओं से परिचित कराने वाला कोई होता ही नहीं हैं। प्रबल अच्छी भावनाएं और संवेदनाएं और इनकी मिठास ही मनुष्य को आत्मनियंत्रण हेतु शक्ति देती हैं और उसे गलत राह पर जाने नहीं देती और रिश्तों से बांधे रखती हैं। परिवार के महत्व को बनायें रखने में महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाती हैं। इसके अलावा पति-पत्नी द्वारा अलग अलग शहरों में नौकरी करने के कारण आपसी संबंधों में भी दरार आती जा रही हैं और फिर ऐसे में ‘ लिव इन रिलेशनशिप ‘ में रहने के लिए स्त्री-पुरुष पर्वृत्त होते जाते हैं।
अब तो लिव इन रिलेशनशिप जैसी सुविधा होने से परिवार की जिम्मेदारियों से बड़ी आसानी से युवा वर्ग दूर होता जा रहा हैं। परंतु ऐसे शारीरिक संबंधों से पैदा हुए बच्चें क्या करे? उनके लालनपालन और पढ़ाई लिखाई की जिम्मेदारी कौन लेगा ? रिश्तों से वे कैसे परिचित होंगे ? रिश्तों और भावनाओं की महक और उनके जीवन में बहार कहाँ से आएगी ? समाज का एक मजबूत आधार परिवार से उन्हें कौन परिचित कराएगा, उसका महत्व उन्हें कौन बताएगा? किसी समय संयुक्त सोवियत संघ में वामपंथियों के लागू कानून के अनुसार ऐसे बच्चों को राष्ट्रीय संपति मान भी ले तो भी बच्चों को सम्हालने का सवाल तो रहता ही है। इसका अर्थ यह तो कदापि नहीं हो सकता कि सरकार अगर कानून बनाएं तो बच्चें भी वहीं सम्हालें? प्रकृति ने बच्चें पैदा करने की जिम्मेदारी स्त्री को ही दी हैं इसलिए ऐसे प्रकरणों में भी भले ही युवा मुक्त, उन्मुक्त और स्वछंद जिंदगी मौज-मजे में गुजरना चाह रहें हो परंतु बच्चें को जन्म तो माता को ही देना होता हैं और नवजात को सम्हलना भी उसी को होता हैं। भले ही न्यायलय से ऐसे अविवाहित पुरुष को ऐसे अविवाहित माँ को हर्जाना या आर्थिक सहायता देने का आदेश दिया जाता रहा हो परंतु नौ माह गर्भ धारण तो ऐसी अविवाहित स्त्री को ही धारण करना होता हैं, एवं बच्चें को जन्म एवं उसका लालन-पालन प्राथमिक रूप से उसी की जिम्मेदारी होती हैं और पुरुष उससे साफ़ बच निकलता हैं। महिलाओं की समानता के अधिकारों के लिए संघर्षरत अनेक सामाजिक संगठनों को इस बारें में जरूर विचार कर सक्रियता दिखानी चाहिएं।
इस ‘लिव इन रिलेशन‘ में जोड़ीदार भी सहजता से बदला जा सकता हैं, और ऊपर से किसी विवाह प्रमाणपत्र या पंजीयन की आवश्यकता ही नहीं होती। इसका अर्थ यह हैं कि तलाक के लिए किसी भी अदालत में भी जाने की आवश्यकता नहीं हैं। आसानी से अलग हुआ जा सकता हैं। सात जन्मों का बंधन नहीं। करवा चौथ व्रत की जरुरत नहीं, चाँद के दर्शन का भी इन्तजार नहीं। आजादी का भरपूर फायदा ही फायदा। खाऊंगा तो घी से वर्ना भूखा ही रहूँगा। हर बात में सरकार की ऐसी ही नीतियां होती हैं। चार कदम आगे जायेंगे नहीं तो चार कदम पीछे दौड़ कर आएंगे। परंतु सर्वमान्य ऐसी योग्य सार्थक और स्थायी निति नहीं बनाएंगे। सच तो यह हैं कि ‘लिव इन रिलेशनशिप कानून‘ ने अनेक नई समस्याओं को जन्म दिया हैं। इस कानून के कारण समाज और परिवार का आधार विवाह संस्था भंग होने के कगार पर हैं। परिवार में परिवार का और इस कारण समाज का भी सदृढ़ आधार, एक दूसरे के प्रति आत्मीयता और परपर निर्भरता की भावनाओं का लोप होना निश्चित ही हैं। किसी भी आकस्मिक संकट में संकट का मिलजुल कर सामना करने से संकट का सामना करने का साहस पैदा होता हैं और निर्णय प्रक्रिया सही मार्ग पर होती हैं। परिवार का आधार रहने से व्यक्ति निराश और हताश नहीं होता। ‘लिव इन रिलेशनशिप’ के दुष्परिणाम का उदाहरण अभी हाल में फिल्म अभिनेता सुशांतसिंह राजपूत और रिया-दिया के प्रकरण से समझा जा सकता हैं। स्वछंदता, उन्मुकतता और उदण्डता का तो यहीं अंत हो सकता हैं। ‘लिव इन रिलेशनशिप’ से भविष्य की पीढ़ियों को संपति का हस्तांतरण, संस्कृति का हस्तांतरण, संस्कारों और परम्पराओं का हस्तांतरण, मानवता के लिए आवश्यक गुणों का हस्तांतरण यह सब बाधित होता जा रहा हैं। न्यायलयों में अधिकारों के मुकदमों की बाढ़ आ गयी हैं।
स्त्री-पुरुषों के विवाह योग्य कानून सम्मत आयु १८ वर्ष और २१ वर्ष हैं, परंतु कई वर्ष बीत जाने के बाद भी अविवाहित रहने की आजकाल फेशन होने से स्त्री-पुरुषों की आयु बढ़ती जा रहीं हैं और इस कारण भी ‘लिव इन रिलेशनशिप‘ सुविधा में रहकर शारीरिक संबंधों को बढ़ावा मिल रहा हैंI ‘ लिव इन रिलेशनशिप ‘ की सुविधा होने से और बिना विवाह के शारीरिक संबंध स्थापित होने से समाज का सदृढ़ आधार, विवाह संस्था का बड़ी तेजी से लोप होता जा रहा हैं जो भविष्य में एक विषम सामाजिक समस्या बनकर उभरेगीI सबसे महत्वपूर्ण तो यह हैं वर्तमान में विवाह हेतु अपेक्षाएं और महत्वकांक्षाएं अपने चरम पर होकर अवास्तविक स्तर पर पहुँच गयी हैं, इनमें संभावित वर-वधु किसी भी तरह से समझौता करना नहीं चाहते। आजाद विचारों की महिलाओं का यह सोच होता हैं कि हमारे शरीर पर हमारा ही अधिकार हो, और मनमाफिक स्वछंदता से उसका उपभोग भी हम कर सके। मेरे विचार में उनका यह सोच बिलकुल सही हैं, परंतु इसके लिए पुरुषों से तुलना करने की जरुरत नहीं हैं। शरीर पर हमारा अधिकार हो यह बहुत ठीक हैं परंतु इससे बेहतर यह हैं कि शरीर पर हमारा नियंत्रण हो साथ ही मन के ऊपर भी हमारा नियंत्रण हो तभी वें ‘लिव इन रिलेशन‘ में पुरुषों को चुनौती दे सकेंगी। अंत में यहीं कि उम्र के इस पड़ाव में युवाओं को उनके पालकों द्वारा बिना किसी संकोच के सही मार्गदर्शन देना चाहियें। ताकि भविष्य की पीढ़ियों का भविष्य भी उज्जवल हो सके।
परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता।
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