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चलने दो लेखिनी

शरद सिंह “शरद”
लखनऊ

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एक पल ठहरो, रुको जरा
शब्द नही खामोश, दिल है भरा।
करो वीरानियों से खाली यह दिल,
मिलेगी एक बड़ी शब्दों की महफिल।
रहते निरन्तर शब्द ह्रदय पटल पर,
किसी वजह से आते नही जु़वां पर|
कुछ झिझक, कुछ डर, कुछ कटाक्ष,
से डरा रहता है हमारा अन्तर।
पर क्यों? लेखिनी को क्यों विराम दें?
क्यों न इन बन्धनों को तोड़ दे?
चलने दो निर्बाध यह लेखिनी,
दिल मे दबी व्यथा को निकाल दें।

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लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने “मेरी स्मृतियां” नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है।


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