महिमा शुक्ल
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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चौंच में तिनका दबाए नन्हीं गौरैय्या मुनिया ऐसे आशियाने की तलाश में थीए जहाँ वहाँ अपनी आने वाली सन्तति के लिए घोंसला बना सके तेज गर्मी में मुनिया का जी हलकान हो रहा था। पखेरू तक ना कोई हरा पेड़ दिख रहा था ना कोई पानी को जगह घने धुएँ व प्रदूषित हवा उसकी चेतना को क्षिण करने लगे, अर्ध मूर्च्छा में मुनिया अपनी माँ की नसीहत याद करने लगीए रे मुनिया जंगल और एसी शुद्ध हवा छोड़ के यहाँ वहाँ मत जाया कर। तू जी न सकेगी।
पर कहा मुनिया ये सब मानती, नयी उम्र की तरंग और मन की उड़ान उसे दूर इस शहर में ले आए थे। कुछ दिन इस घर से घर ऊँची इमारतों की छत पर इतराती मुनिया सीमेंट के जंगल में ही रह गयी।
सच में अब उसका जीवन दूभर हो गया। पूरी ताकत समेटती मुनिया पुनः माँ के पास लौटना चाह रही थी। तिल तिल छीजती मुनिया अर्द्ध मुर्छित होने लगी, प्रदूषित आबोहवा का जिम्मेदार कोई दूसरा है पर पखेरू तक उसका शिकार हो गए मुनिया को अंतिम साँस में भाव भी अपने और अपनी संतति के लिए आशा बची थी पर विश्वास नहीं।
परिचय :- महिमा शुक्ल हिंदी साहित्य के परिवार से पूर्व प्राध्यापक (लोक प्रशासन एवं पत्रकारिता) सामाजिक कार्यों और संस्थाओं से सम्बंधित लिखने पढ़ने की अभिरुचि
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