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प्रकृति की गोद

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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फिर से उठ कर धारा को
हरियाली से सराबोर करते हैं,
आओ चलो प्रकृति की
गोद में लौट चलते हैं ।
इन्हीं से सीखा है
जीवन का सार मानव ने
पर्वत से ऊंचाई,
सागर से गहराई,
चांद से शीतलता,
सूरज से चमक
वायु है प्राण, अग्नि
तपाकर सोना बनाती है
अग्नि धारा, जल, वायु,
जीवन का रहस्य समझते हैं
पेड़ों पौधों में भरी हैं
खुशगवार जिंदगी
को हवा से मिलकर मधुर
संगीत सुनाती हैं
झरनों नदियों की
कल-कल से
सुहाने स्वर उभरते हैं,
आओ फिर से समंदर की
मस्ती भरी लहरों पर चलते हैं
बारिश की बूंदों से भी,
ऊंचे उठकर धारा पर वापस
आना भी सीखते हैं।
कैसे कैद कर सकता है कोई
प्रकृति की इन
मजबूत दीवारों को !!
हे मनुष्य मत करो
प्रकृति पर प्रहार,
मत ध्वस्त करो,
ये पर्वत, ये धारा,
ये जीव, इनका जीवन
मत क्रूर बनो इतना कि
हर जीवन समाप्त हो जाए
हो रहा है विश्व
दिशा विहीन, अंत हीन
सब जीव में है
आत्मा का निवास,
समझो जानो आत्मा में ही
परमात्मा का निवास
क्या भूल गया मानव
उस शक्ति को, जो
संचालित करता विश्व को।
नादान मत बन,
उठो संवारो फिर से सृष्टि को
कर्म करो, मेहनत करो
यही है प्रकृति का आदेश
फिर से इस धरा को
रंगों से भरते हैं,
“आओ चलो
प्रकृति की गोद में
लौट चलते हैं।

परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी
जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी
शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र, पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार)
निवासी : लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
विशेष : साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने के शौक ने लेखन की प्रेरणा दी और विगत ६-७ वर्षों से अपनी रचनाधर्मिता में संलग्न हैं।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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