अनुपमा ठाकुर
सेलू (महाराष्ट्र)
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एक दिन संध्या समय जब मैं और मेरी बेटियाँ पाठशाला से लौटी तो देखा घर के आँगन में दरवाजे के पास एक बिल्ली विश्राम कर रही थी। उसे देखते ही मेरी छोटी बेटी खुशी के मारे उछल पड़ी। गेट खोलने पर वह हमसे डरकर पीछे-पीछे सरकने लगी। मेरी बेटी उसे हाथ लगाने का प्रयास करती पर वह डरकर पीछे सरकती। उतने में मेरी बड़ी बेटी तुरंत भीतर से दूध ले आई और उसके सामने रख दिया। दूध को देखते ही वह म्याऊं-म्याऊं करते हुए समीप आकर दूध पीने लगी। उसका डर अब पूरी तरह से समाप्त हो चुका था। वह अब खुशी-खुशी मेरी बेटियों को हाथ लगाने दे रही थी।
रात होने तक वह वहीं बैठे रही, किसी काम से मैं बाहर आती तो वह मेरी ओर मुँह किए माँऊ-माँऊ कर चिल्लाती और अपने शरीर को मेरे पैरों से रगड़ने लगती। अब यह उसका नित्य का क्रम बन चुका था। रात में पता नहीं वह कहां निवास करती परंतु जैसे ही हम स्कूल से लौटते वह हमारी प्रतीक्षा में व्याकुल हमारे स्वागत के लिए तैयार रहती। जब तक दूध ना मिले कोलाहल मचा देती। कभी दरवाजा खोलने में देरी हो तो वह जोर-जोर से आकात कर मेरी परिक्रमा करने लगती और धीरे से मेरे पैर के अंगूठे को अपने मुंह में लेकर काटने लगती तथा अपना क्रोध प्रकट करती। उसकी काली एवं गहरी आंखों को देख कर मैंने उसका नाम काजोल रखा। काजोल का शरीर दिन-ब-दिन मुझे भारी प्रतीत होने लगा था। मैंने अनुमान लगाया कि कहीं इसके पेट में बच्चे तो नहीं है। शायद मेरा अनुमान सही था, वह दूध पीकर थके हुए स्त्री के समान सीधे ठंडे फर्श पर लेट जाती ।
कुछ दिनों बाद ग्रीष्मावकाश प्रारंभ हो गया और काजोल आना अचानक बंद हो गया। एक- दो बार मुझे उसकी याद अवश्य आई पर धीरे-धीरे मैं भी उसे भूल गई। पाठशाला की छुट्टियां चल रही थी मेरी ननंद भी छुट्टियां मनाने मायके आई हुई थी। बच्चे खूब उधम मचा रहे थे। उनको काम में व्यस्त करने के लिए मैंने अपनी बड़ी बेटी से छत पर जाकर कपड़े सुखाने के लिए कहा। पहले तो उसने मना कर दिया पर जोर से आवाज निकालने पर पूरी पलटन को साथ में लेकर वह छत पर चली गई। घर में थोड़ी शांति हुई। मैंने और मेरी ननंद ने थोड़ा आराम करने का सोचा ही था कि छत से बच्चे जोर-जोर से चिल्लाने लगे, “मम्मी जल्दी ऊपर आओ, जल्दी ऊपर आओ।” हम दोनों घबरा गए और तुरंत सीढियों की ओर दौड़ पड़े। छत पर पहुंचे तो देखा कि दो छोटे- छोटे बिल्ली के खूबसूरत बच्चे मेरी बड़ी बेटी के गोद में थे। हमें देखती ही वे खुशी से बताने लगे, “देखो ना माँ कितने सुंदर बच्चे हैं।” मैंने कहा, “इन्हें इस तरह गोद में मत लो, उनके बाल कपड़े पर लग जाते हैं।” पर किसी ने भी मेरी एक न सुनी और सभी बच्चे उन्हें गोद में लेने के लिए उतावले हो रहे थे, यहाँ तक कि मेरी ननद ने भी वही किया। सचमुच बच्चे थे भी बड़े खूबसूरत। छोटा सा मुंह और बड़ी-बड़ी पानीदार आंखें, रोए दार सुनहरे बाल तथा झब्बेदार पूंछ। उनका लघू गात देख कर लग रहा था जैसे दो-तीन दिन पहले ही उनका जन्म हुआ हो। बला की चंचलता थी उनके शरीर में। एक क्षण भी वे बच्चों के हाथ में टिक नही रहे थे
इधर से उधर दौड़ रहे थे। काजोल वहीं चुपचाप बैठकर सब कुछ देख रही थी। जैसे बच्चों के परवरिश की सारी जिम्मेदारी हम पर छोड़ दी हो। बच्चों के मन में बार-बार यह प्रश्न उठ रहा था कि यह छत पर कैसे रहेंगे? वे दौड़कर एक टोकरा ले आए। टोकरी में कपड़ा बिछाया और दोनों शावकों को उस में बिठाया और साथ ही हिदायत भी दी कि यहां से कहीं ना जाना परंतु दूसरे क्षण में वे टोकरी से बाहर निकलकर इधर-उधर दौड़ने लगे। मैंने बच्चों को समझाया, “क्या तुम एक जगह बैठे रह सकते हो, जो इन्हें एक जगह बैठने के लिए कह रहे हो। जैसे-तैसे मैं अपने बच्चों को नीचे लेकर आई। बच्चे नीचे आकर अपने खेल में मग्न हो गए। कब संध्या हुई और फिर रात, इसका पता ही नहीं चला। आधी रात में अचानक तेज वर्षा प्रारंभ होगई और बिजली भी चली गई। बाहर साँय -साँय कर तेज हवाएं चलने की आवाज सुनाई दे रही थी। मुझे काजोल का स्मरण ही आया। मैने अपने पति से कहा, “छत पर बिल्ली के बहुत छोटे बच्चे हैं, वे बारिश में मर जाएंगे।” पति हंसने लगे और कहा, “पागल हो क्या? पशुओं को खराब मौसम का पता चल जाता है। उनकी माँ पहले ही उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले गई होगी। वह डाटेंगे इसलिए मैं चुप रही। जैसी ही भोर हो गई, मैं और बच्चे भी कौतूहलवश छत पर पहुंच गए। वहां न काजोल थी न काजोल के बच्चे। टोकरी और उसमें रखा हुआ कपड़ा गिला हो चुका था। मैंने बच्चों से कहा, “शायद, वह बच्चों को कहीं और ले गई है।” हम सब थोड़े से चिंतित एवं मायूस होकर नीचे आ गए। दोपहर का भोजन करने के बाद बच्चे ऊपर के कमरे में खेलने चले गए और मैं अपने ननंद के साथ आराम करने लगी। तभी मेरी बड़ी बेटी जोर से दौड़ते हुए नीचे आई और कहा, “मां अपने रेन हार्वेस्टिंग पाइप में से बिल्ली के बच्चों की आवाज आ रही है।” मुझे धक सा हुआ। मैं दौड़कर दीवार से सटे पाईप के पास जाकर नीचे की और कान लगाकर सुनने लगी। सचमुच अंदर से बिल्ली के बच्चों की आवाज आ रही थी। मैंने सोचा अब ये बच्चे नहीं बचेंगे।
वर्षा जल संचयन का पाईप छत से प्रारंभ होकर सीधा जमीन तक पहुंचा हुआ है और ओवरफ्लो ना हो इसलिए बीच में से ज्वाइंट देकर कुछ हिस्सा बाहर रास्ते पर निकाला हुआ है। मन में विचार आया कि अगर ये बच्चे हारवेस्टिंग वाले गड्ढे में चले गए तो? इस बुरे विचार को मैने मन से बलपूर्वक निकाल दिया । हम सब परेशान थे। समझ में नहीं आ रहा था उन्हें कैसे निकाले? मैं, मेरी ननंद और बच्चे हम सब परेशानी में नए-नए उपाय सोच रहे थे कि उतने में काजोल भी वहां आ कर जोर से चिल्लाने लगी। वह बार-बार मेरा पैर काटने लगती और इधर-उधर पूँछ फुला कर घूमती, जोर-जोर से आवाज करने लगती। उसकी आंखों मे चिंता एवं निराशा, करुणा स्पष्ट झलक रही थी। वह चिल्ला-चिल्ला कर मेरी परिक्रमा करने लगी। मैने उसके सिर पर हाथ फेरकर उसे शान्त करने का प्रयास किया।
पाईप कई जगह से जुड़ा हुआ था मैंने मन बना लिया था कि प्लंबर को बुलाकर पाइप काटेंगे। नुकसान हुआ तो चलेगा। पर बच्चे बचने चाहिए। मैंनें बाहर जाकर रास्ते पर निकले पाईप में झाँका पर कुछ दिखाई ना दिया। केवल आवाज़ सुनाई दे रही थी। हमारा शोर सुनकर पड़ोसी भी वहां आगए। पड़ोसी के घर आए हुए दो लड़कों ने मुझसे कहा, “आंटी इस जॉइंट को खोल कर देखते हैं। मुझे तो घबराहट के मारे कुछ सूझ नहीं रहा था। मैंने उन्हें पूरी स्वतंत्रता दी। उसने जोर लगाकर जॉइंट खोलने का प्रयास किया पर जॉइंट इतना मजबूत था कि खुल ही नहीं रहा था। उस लडके ने कहा, “आंटी पाइप तोड़ना होगा। मैंने कहा, “ठीक है। तोड़ दो।” मैंने उसे हथौड़ा लाकर दिया। उसने धीरे से ज्वाइंट पर मारा और फिर हाथ से खींचने लगा अचानक जॉइंट में से पाईप अलग हो गया। मैंने राहत की सांस ली। पाइप दो हिस्सों में बंट चुका था। मैने पाईप के पहले हिस्से में झांक कर देखा तो पूँछ नजर आई। मैंने थोड़ा सा हाथ अंदर डालने पर पूँछ हाथ में आ गई। मैंने जोर से पकड़ कर खींचा। काजोल का बच्चा जोर से चिल्ला रहा था। मैंने उसकी परवाह नहीं की। जैसी ही बच्चा बाहर आया, सभी बच्चे खुश हो गए और उसे लेने दौड़े। अभी भी दूसरा बच्चा अंदर ही था। हमने दूसरे सिरे में झांक कर देखा तो वह वहां नहीं था। मेरी बेटी ने कहा, माँ आप इस तरफ से लकड़ी डालकर उसे डराओ ताकि वह बाहर रास्ते के सिरे से निकले और पाईप के मुहाने आ जाए। मैंने ऐसे ही किया बच्चा डर के आगे जाने लगा और रोड की तरफ निकले पाइप के मुहाने आ गया। मेरी बेटी ने अंदर हाथ डालकर उसे खींच लिया। दोनों बच्चे बहुत ही सहमे और डरे हुए नजर आ रहे थे। अब उन्हें देखकर उनकी मां का चिल्लाना भी बंद हो गया था। उसके समीप छोडने पर वह उनके शरीर को वत्सल्य से चाटने लगी। दोनों पैर पसारे आँगन में वह शान्त बैठे गई। लग रहा था अब उसे कोई चिंता नहीं है। मेरी बड़ी बेटी बच्चों को छत पर लेकर गई, क्यो कि आँगन में छोड़ने पर बच्चे बाहर रास्ते पर आ जाते और हमारे गेट के बाहर हमेशा दो-तीन कुत्ते बैठे रहते हैं। छत पर छोड़कर उसने सबसे पहले पाइप के मुँह पर कपड़ा ठूँस दिया ताकि बच्चे फिर से पाइप में न जाए।
परिचय :- महाराष्ट्र के छोटे से गांव सेलू में, ८ अगस्त १९७४ में जन्मी अनुपमा ठाकुर हिन्दी की प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं। उन्होंने अध्यापन से अपने कार्यजीवन की शुरूआत की है। अनुपमा ठाकुर के व्यक्तित्व में संवेदना दृढ़ता और आक्रोश का अद्भुत संतुलन मिलता है। वे अध्यापक, कवि, गद्यकार, कलाकार, समाजसेवी और विदुषी के बहुरंगे मिलन का जीता जागता उदाहरण है। वे इन सबके साथ-साथ एक प्रभावशाली व्याख्याता भी है।
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