पांच भाई एक पुश्तैनी मकान में साथ रहते थे। जिसका पुनर्निर्माण १८००/ ठेके पर ठेकेदार ने किया था। एक बरामद, एक हाल, एक छोटा कमरा, एक दादी का कमरा, किचन, पानी की टँकी, एक शौचालय, एक बाथरूम, खुला बाड़ा, दक्षिण मुखी मकान के पूर्व में गलियारा था, ऊपर मंजिल कमरा एक था बस। पर पेड़-पौधे जगह अभाव में नही लग पाये।
इसके पहले जो पुराना घर जब था उसमें बरामदा, बड़ा हाल,खोली और बाड़ा, एक टॉयलेट। बाड़े में शहतूत, कडिंग (विलायती इमली) और मीठी बोर का झाड़ यानी पेड़ पौधे लगे हुए थे।
चार भाइयों की शादी हो गई थी, परिवार में माता-पिता, ४ जोड़े, दादी व एक छोटा पांचवे नम्बर का भाई, कुल जमा १२ सदस्यों का संयुक्त परिवार। संघर्षरत परिवार के पास एक सायकल के अलावा कोई वाहन नही। मांगलिक आयोजनों में बस से आना-जाना। एक रात रुकना ही, क्योंकि वाहन सुविधा नाममात्र की थी। पहले विवाह समारोह ८-८-९-९ दिन के होते थे। कुंआसी १५ दिन पहले विवाह वाले घर जाती थी। गेंहू बीनना, ओटला, बरामद लीपना-छाबना, गोदड़े-गोदड़ी, तकिए बनाना, सुधा रना आदि किया जाता था। इसके एवज में कुँवासी को भेंट दी जाती थी-बर्तन, साड़ी आदि। ऐसे में संयुक्त परिवार से कोई एक दो महिला-पुरुष बाहर जाते तो परिवार में कोई फर्क नही पड़ता, कोई समस्या नही होती थी।
गांव में ही हो रहे मांगलिक आयोजनों, शोक संतप्त परिवारों में घर से कोई भी महिला-पुरुष चले जाते थे तब भी घर मे कोई समस्या नही आती थी। एक साथ ३ जगह कार्यक्रम आ गए तो भी तीन जोड़े उन कार्यक्रमों को संभाल लेते थे, फिर भी घर मे निर्बाध गति से काम चलता था। कहि परिवार का कोई सदस्य अचानक बीमार हो गया तो परिवार के अन्य सदस्य तुरन्त अस्पताल या “निम-हकीम खतरा जान” के पास ले जाते थे। एक चूल्हे पर खाना बनता था। कडेले पर रोटी सिकती थी, काली हंडी में दाल बनाई जाकर छुई बघार लगाया जाता था। बघार की खुशबू पूरे मोहल्ले को महका देती थी। कभी-कभी चावल भी अपनी महक का जलवा बिखेर देते थे।
बिजली का उत्पादन बहुत कम होने के कारण चिमनी, कंदिल, दिए का उपयोग किया जाता था। पुराने मकानों में चिमनी आलियों में रखते थे या गेंहू के पेवले या बुखारी पर। पूरा परिवार रात्रि ७ से ८ के बीच भोजन करके विश्राम की तैयारी करता था। महिलाओं को भोजन के बाद बर्तन मांजना पड़ते थे। कोई बर्तन में लग जाती तो कोई बिस्तर करने में। इस प्रकार बाधा रहित गति विधियां परिवारों में चलती थी। सदस्य संख्या बढ़ने लगी। ५ साल में ४ भाइयों के यहां १२ बच्चे हो गए संख्या १२ की डबल यानी २४ हो गई। कुछ बच्चे बालवाड़ी, बाल मन्दिर में पढ़ने जाने लगे। परिवार के ५ भाइयों में से २ शासकीय नौकरी में व २ लघु व्यापार के साथ एक पढ़ाई कर रहा था। घर मे जगह तो पहले जितनी ही थी पर संख्या डबल हो गई थी। कुछ समय पश्चात संख्या २७ हुई। दादी से हमे दिलचस्प कहानियां रोज रात को सुनने को मिलती थी। जिसमे अनेक प्रकार की शिक्षा भी मिलती थी। भोजन करने के बाद हमे बिस्तर होने का इंतज़ार रहता था कि कब बिस्तर हो और कब दादी से कहानी सुने। भरापूरा परिवार दादी का आज्ञाकारी था। दादी से किसी भी काम को करने के पहले चर्चा करके फैसले पर आज्ञा ली जाती थी। फिर कोई काम किया जाता था। दादी जी की उम्र १०२ वर्ष हो चुकी थी। शरीर अब कंकाल जैसा हो चला था। खाने की मात्रा कम हो गई थी और दादी ने साथ छोड़ दिया। एक शौचालय एक स्नानागार होने के कारण बच्चे रोजाना विद्यालय देर से पहुंचते। विद्यालयों से कहा जाने लगा कि शिक्षकों के परिवार के बच्चे ही अगर विद्यालय में देर से आएंगे तो दूसरे परिवारों का क्या?
मंथन हुआ २ प्लॉट ९५००/ में खरीदे थे २०x५० साइज में। ऋण लेकर मकान बनाने का काम शुरू हुआ। निगरानी के लिए कोई न कोई भाई व बच्चे मौजूद रहते। मकान पर तरी भी करते और सबका कामकाज भी अनवरत चलता रहता। दादी के जाने के पश्चात परिवार में पिता के साथ मां की भी जिम्मेदारी बढ़ गई। मकान बनता रहा। सभी भाई, पिताजी अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभाते रहे, वहीं महिलाएं भी एक सूत्र में पिरोई हुई नजर आती रही। सुख-शांति के दौर में मां बीमार रहने लगी। काफी इलाज के बाद भी बच नही सकी। एक साल के बाद नए मकान में प्रवेश किया। परिवार में आयोजनों में कोई कहि जाता तो कोई परेशानी नही रहती। कन्यादान में एक लिफाफा या वस्तु लगती थी। सबको जाना भी जरूरी नही रहता।
जहां सबको जाना हो वहां एक चार पहिया से चले जाते और वापस घर आ जाते। परिवार में कोई भी आयोजन होता तो वह सामूहिक ……
जैसे-मुंडन, कर्णबेध संस्कार हो, सगाई-ब्याह आदि कुछ भी होता तो सभी के बेटों के मुंडन एक साथ, बच्चों की शादी एक साथ २,३,४ जो भी हो। होते थे तो धन और समय की बचत होती थी। अलग-अलग कार्यक्रम की परेशानी भी नही रहती। और हां बड़े परिवारों का गांव में गली-मोहल्ले में रुतबा भी होता है। मान-सम्मान में बढ़ोत्तरी भी होती है। कहि किसी बाहरी से कोई विवाद होने पर सारे पुरुष मेम्बर को देखकर ही विरोधी पक्ष की घिग्घी बंध जाती है। राजनीतिक क्षेत्र में भी राजनीतिज्ञों का बड़े परिवारों से मेलजोल बढ़ जाता है। यानी हम कहें तो सांटीयों (तुवर की छड़ियाँ) का एक गुच्छा (बंडल) मजबूत होता है वैसा ही बड़ा परिवार भी शक्तिशाली हो जाता है।
एक पत्रिक सपरिवार आती तो निमन्त्रक को भी एक पत्रिका से काम चल जाता, नही तो जितने भाई उतनी पत्रिका…..और उतने ही अलग-अलग लिफाफे।
धीमे-धीमे परिवार की संख्या और बढ़ गई । छोटे और अंतिम भाई की भी शादी हो गई। अब परिवार में कुल मिलाकर २६+२ (एक भांजा-भांजी)= २८ सदस्य हो गए कुछ बच्चों की भी शादियां कर दी गई, पुनः घर छोटा पड़ने लगा -२०x५० के दो मंजिला मकान में एक हाल, एक चौक, ९ कमरे ४ शौचालय, स्नानागार भी कम पड़ने लगे। इसी दौरान एक भाई पुश्तैनी मकान में चला गया। थोड़ी राहत, लेकिन निमंत्रण का सिलसिला पुराना ही एक ही नाम पर। व्यवहार के रूप में लिफाफा भी एक ही। पर उसको दिक्कत आने लगी प्रति माह के कुछ दिनों भोजन बनाने की। ससुराल में जाना हो तो दुकानदारी बन्द करके जाना पड़ता। संयुक्त परिवार में खर्च कम लगता था, अलग बसने पर खर्च ३ गुना आने लगा। पर यहां समस्या खर्च की नही जगह की हो रही थी।
फिर एक भाई ने और मकान बनाया इससे बड़ा! वहां दो भाई रहने लगे, व्यवहार। अभी भी एक, पत्रिका या निमंत्रण भी एक। फिर एक भाई ने मकान बना लिया वह भी वहां स्थानांतरित। फिर एक भाई का बंगला तैयार कुल मिलाकर सब अलग-अलग। घर का खर्च संयुक्त रूप से ३० हजार प्रति माह होता था। अब अलग-अलग रहने पर वही खर्च लगभग ७५ हजार प्रति माह हो रहा है। निमंत्रण अलग-अलग आ रहे है तो व्यवहार भी अलग -अलग ही करना पड़ रहा है। पहले परिवार से कोई भी चला जाता था, अब सबको अलग-अलग जाना पड़ता है। पहले किसी भी रिश्तेदार के यहां कोई भी चला जाता था, अब जिसका रिश्तेदार है, वहां वो ही जायेगा। इस प्रकार ये व्यवस्थाएं बदल गई। अब कहीं कोई बाहर जा रहा है तो परिवार का सदस्य उस घर पर जाकर रात्रि में सोएगा चोरी हो जाने का डर सताता है। भोजन के लिए बड़े घर पर ही जाना है। या बड़े घर से बाहर गए है तो शेष का खाना दूसरे नम्बर वाले के यहां या कोई आकर कह जाता है कि घर पर भोजन कर लेना, या कभी-कभी बोला जाता है कि हम बाहर जाएंगे तो शेष का खाना बना देना। व्यवस्थाओं में इस प्रकार बदलाव आ जाते है संयुक्त परिवार बिखरने के बाद। यहां बिखराव को हम गलत न लें, वह तो होना ही होता है। पर संयुक्त और बिखरे परिवार में कितना परिवर्तन हो जाता है।
कुल मिलाकर हम सोचे तो संयुक्त परिवार आज की महती आवश्यकता है। पर आज की व्यवस्था और टेलीविजन प्रधान देश मे एकता कपूर जैसी सीरियल निर्मात्री के साथ अन्य निर्माताओं की चालबाजियों वाले सीरियल निर्माण और कुछ फिल्मों ने इस व्यवस्था को आम बनाने का कतिपय प्रयास किया है जो निश्चित ही अनु चित की श्रेणी में आता है। मेरा तो स्वप्न था आजीवन संयुक्त परिवार! पर सारे बेटे तो एक पिता की संतान पर बहुएँ अलग-अलग खान-दान की। इसलिए मेरी समूह परिवार की भावना खण्डित हो गई। पर मन आज भी करता है संयुक्त परिवार हो, क्योंकि वहां महिलाओं का चलन नही एक पिता और एक मां का चलन होता है जो जमीनी उतार-चढ़ाव को भलीभांति समझ लेते है व परिवार को एक बनाये रखते है।
ये किसी एक कि नही घर-घर की कहानी है। और ये कहानी बनाई है किसी एक पात्र के “मन” की व्यथा पर आधारित ………