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ज़िंदगी की रफ्तार

कुमारी आरती
दरभंगा (बिहार)

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ज़िन्दगी की रफ्तार में,
हम निकल गए इतने आगे।
छूट सा गया हर मंज़र,
जो इतनी रफ्तार में हम भागे।

जहां कण-कण में
बस्ती थी खुशियां,
आज खेलते सब
खूनो की होलि‌‌या।

सुख- चैन का कहीं नाम नहीं है,
आस्तिक को नास्तिक बनते देखा है,
रामयुग से कलयुग को आते देखा है,
भाई-भाई में मतभेद होते देखा है,
दहेज के नाम पर आज भी
नारियों का सौदा करते देखा है।
हवस के शिकारी है जो,
उन्हें खुले आम घूमते देखा है।

अतिथि सत्कार खो गया है
अरे, आज मानवता को
हो क्या गया है?
मानव को हो क्या गया?

साथ मिलकर मानते है जहां खुशियां,
आज घर के हाथ हाथ में
मोबाइल का बोल-बाला है,
मोबाइल का बोल-बाला है
सभी धर्म ग्रंथ छूट गए पीछे,
जिसे कितनो ने मन से सीचे,
जिसे कितनो ने मन से सीचे।
माता पिता के जो होते थे
चरणों के धूल,
आज जगह-जगह वृद्धाश्रम
गया है खुल।
कर बैठे हम क्या ये भूल?
कर बैठे हम क्या ये भूल?

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परिचय :-  कुमारी आरती
निवासी : दरभंगा (बिहार)

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