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जेठ मास

मंजिरी “निधि”
बडौदा (गुजरात)
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चलो एक काम तो हुआ l कहते उसने अपने पल्लू से पसीना पोंछते मटके का ढक्क्न खोला तो उसमें पानी तला छु रहा था। दूसरा तो पहले से ही खाली था। उसने मटके उठाते झुंझलाते हुए कहा कितनी बार मुन्ना के दद्दा से कहा कि सवेरे ही पानी भर लाने दिया करो पर कहाँ सुनते हैं अब कैसे समझाऊँ कि…… छोडो। दोनों पेड़ों के बीच टांगे झूले को धक्का दे, अड़ोस-पड़ोस के दरवाजे बंद देख खुद से बुद्बुदाई न मुनिया न चुनिया और ना ही बाईसा?? के होवे? जंगल से लकड़ी ले ना लौटे??
दिल पर पत्थर रख वह घर से वावड़ी की तरफ हो ली। चाह कर भी अपने पैर जल्दी ना चला पा रही थी। धरती मानों तवा हो रही थी। जेठ की चिलमिलाती धूप। लू की लपटें और मरुस्थल से उड़ती तपती रेत शरीर पर चटके लगा रही थी। पसीना थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। रास्ते में एक पेड भी न था जिसके नीचे वह थोड़ा सुस्ता सके। पर उसे सुस्ताना भी कहाँ था? बावड़ी की तरफ बढ़ते उसने ठाकुरजी से प्रार्थना की हे म्हारे ठाकुरजी….। जो डर था वहीं हुआ। पिछले साल बारिश भी तो न के बराबर ही थी। वह बड़ी असमंजस में थी। इधर मुन्ना और दूसरी बावड़ी बारह किलोमीटर दूर। बावड़ी की तरफ दो कदम चली थी कि उसे ट्रेक्टर कि आवाज सुनाई दी। अब वह हसकर चिंता मुक्त हो आवाज की दिशा में चल दी।

परिचय :- मंजिरी पुणताम्बेकर “निधि”
निवासी : बडौदा (गुजरात)
घोषणा पत्र : मेरे द्वारा यह प्रमाणित किया जाता है कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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