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मुद्दे ! समस्यांएंऔर उनकी परिणति

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा कह सकते है। मुद्दों के बारे में यह कि तात्कालिक विषयों को हम जब अल्पावधि में विचार कर तर्क संगत परिणिति तक पहुचाते है तब उन्हें मुद्दे कहना न्याय संगत होता है। मुद्दों को जब हम समय के अभाव में या पसंद नापसंद के धरातल पर तोलकर या अहंकारवश या और किसी कारण से अतार्किक पद्धति से परिणिति तक पहुचाने का प्रयास करते है तब मुद्दा अपना मूल रूप और क्षमता खो देता है। फिर जो बचता है वह मुद्दे को तर्क वितर्क और कुतर्क के साथ एक मजबूत अहंकार में बदल देता है। इसके बाद जो परिणाम होते है वह स्वार्थो का टकराव और अहंकार का शिखर जो स्पष्ट रूप से आचार विचार और व्यवहार में परिलक्षित होता है। मेरा अपना स्पष्ट मानना है कि कितनी भी विपरीत परिस्थितियां हो इनसे अपने आप को बचाए रखना चाहिए। परिस्थितियों पर नियंत्रण नहीं हो सकने के कारण मुद्दों का रूपांतरण समस्या में हो जाता है। समस्याए एक चेतावनी का काम करती है। चेतावनी के परिणामो को समझना और गम्भीरता का अंदाज लगाना हर एक की मानसिकता पर निभर रहता है। जितनी जल्दी कोई इस चेतावनी को भलीभांति परख लेता है उतनी ही जल्दी वह अपने आपको समस्या के मकडजाल से बाहर कर पाता है।
समस्याए हमें किसी हथौडे के आघात से दबाती रहती है। हमारे व्यक्तित्व को कुंठित करती रहती है। जब तक यह हथौड़ा हमारे सर पर रहता है हमारा मानसिक संतुलन बिगाड देता है और स्वभाव को एकमुखी या चिडचिडा बना देता है। इसके बाद की स्थिति क्रोध और निराशा की रहती है। इसके बाद जो बचता है वह अहित ही होता है। इस समस्या के हथौड़े से हमें निश्चित ही दो दो हाथ करना चाहिए। अगर समस्याओं के साथ ही ता जिन्दगी रहना है तो हमें हथौडे को दबाना होगा उसके ऊपर ही बैठ जाना होगा ताकि समस्याएं कभी अपने विकृत स्वरुप में न दिखाई दे। आज की कठिन परिस्थितियों में समस्याओं का अम्बार हर एक के जीवन में दिखाई देता है। अर्थात मनमस्तिष्क में समस्या, हाथ में समस्या और जेब में भी समस्या। वैसे देखा जाय तो समस्याओं के साथ जीने की यह भी एक सुखद स्थिति है, बशर्ते हम अपने आप को इन स्थितियों के लिए मानसिक रूप से तैयार कर सके।
मुद्दे हो या समस्याएं इनका उद्गम व्यक्तिगत रूप से शुरू होता है। अगर समय रहते इनका निदान नहीं हुआ तो ये अपना स्वरुप ही बदल देते है। इस तरह व्यक्ति से चल कर परिवार फिर समाज होते हुए राष्ट्रव्यापी हो जाते है। इसके अनेक उदाहरण दिए जा सकते है। बुद्धि, ज्ञान, और विज्ञान अर्थात हर तरह के विकास की यात्रा व्यक्ति से ही शुरू हुई है। इसी तरह यह सर्वत्र व्याप्त हुए है और सर्व सामान्य इनसे प्रभावित हुए बगैर नहीं रहा है, या यह कहे कि प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकता। ठीक इसी तरह समस्याओं के बारे में भी कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, वर्णगत, राजनितिक आदि समस्याएं व्यक्तिगत टकराव के बाद आज राष्ट्रव्यापी हो चुकी है।थोडा और आगे बढे तो विकृत आधुनिक जीवन शैली के कारण उपजी अवास्तव व्यक्तिगत महत्वाकांक्षओं के कारण व्याप्त स्वार्थवश भ्रष्टाचार अब राष्ट्रव्यापी हो चुका है।
एक प्रमुख समस्या जो घर से शुरू होती है और सारी दुनियां को दहला देती है वह है स्त्रियों की समस्याए। परिवार, समाज और राष्ट्र के विकास में जिसका पुरुषों के बराबर योगदान है, उस स्त्री को पुरुष आज भी समानता का दर्जा देने की मानसिकता नहीं रखता। सर्व सम्पन्न उच्च शिक्षित परिवारों की कहानी भी निम्न वर्गीय और दलित परिवारों से अलग नहीं है। महत्वपूर्ण पारिवारिक और आर्थिक निर्णय पुरुषों ने अपने पास रख लिए, और दंभी हो गया पुरुष। अनेक नोकरीपेशा शिक्षित स्त्रियां घर, परिवार और नोकरी में संतुलन बनाये रखने के प्रयास में असहाय होकर एक अवसाद और तनाव की जिन्दगी जी रही है। यह स्थिति चिंतनीय है। एक तरह से यह उनके जीने के मौलिक अधिकारों पर कुठाराघात है।
वैश्विकरण और उदारीकरण के दौर में नए नए सजे बाजारों में व्यक्ति भी एक वस्तु हो गया है और बिकने के लिए तैयार है । स्वाभाविक रूप से अपेक्षाएं इतनी ज्यादा बढ़ गयी है कि जीवन के अर्थ और सन्दर्भ ही बदल गए है। बढ़ी हुई अपेक्षाएं और बढ़ी हुई जरूरते हमें व्यग्र और व्याकुल बना कर छोड़ती है। परन्तु यह स्थिति स्त्रियों के लिए ज्यादा खतरनाक साबित हो रही है। तनाव ग्रस्त जीवन जी रही है हमारे घर परिवार की स्त्रियां।
धर्म और धार्मिक कुरितियो ने जिस तरह दलितों का अहित किया है उससे कही बढ़ कर समाज में स्त्रियों का अहित किया है। स्त्रियां सभी धर्म और जाती में होती है। जिस ईश्वरीय देवी को किसीने कभी भी नहीं देखा उसकी घर में पूजा होती है, जिसके लिए कई तरह के कडक और निर्जल उपवास तक रखे जाते है। परंतु घर में जीवित देवी असहाय, अभिशप्त और उपेक्षित जीवन जी रही होती है। धर्म ने आदमी को दोगला बनाकर रख दिया है और फिर आदमी ने धर्म को अपनी सुविधा अनुसार अपना लिया है। परन्तु इस सब में घर घर में नवरात्र जैसे देवी के पर्व में स्त्रियों पर अत्याचार हो रहे है उसका क्या? घर घर में हर भारतीय स्त्री तनाव में जी रही है। अपने निर्णय लेने की क्षमता खोती जा रही है। इन सब कारणों से फिर पुरुषो का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। यह आधुनिक युग की नयी समस्या है।
हम भारतीय दुनियां में सर्वाधिक समस्याओ में रहने के आदि है। पर यह भी सच है कि हम भारतीयों की तनाव सहन करने की क्षमता दुनियां में सबसे कम और निकृष्ट है। तनाव प्रबंधन एक बहुत बड़ा विषय है। संयुक्त परिवारों की तनाव प्रबंधन में जो विशिष्टता थी वह एकल परिवारों में नहीं है। परन्तु कुछ तो किया ही जाना चाहिए। तनाव कम करने के लिए सोच बदलना होगा। जिन सिधांतो पर, वैचारिक स्तर पर, और भावनओं के साथ संयुक्त परिवार चलते थे उन सब का एकल परिवारों में समावेश करना होगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि संयुक्त परिवारों का आधार जरूरतों को कम से कम रख परिवार के हर सदस्य के लिए त्याग करने का था। कम से कम अपेक्षाओ के साथ जीने में विलक्षण सुख मिलता है।

लेखक परिचय :-  विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.

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