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अन्तर्मन

शरद सिंह “शरद”
लखनऊ

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अन्तर्मन
की सूनी बगिया में,
फूल खिले अरमानों के,
झूम उठा मन हुआ वावरा
फूटे स्त्रोत तरानों के।
भेदी चादर घोर तिमिर की,
चन्द्र किरण अब चमक उठी,
शुष्क वाटिका में अब फ़िर से
पुष्प वल्लरी बिहन्स उठी।
सुप्त रहें खोये खोये,
उन भंवरों की गुंजार उठी
मनुहारी तितली की आभा,
हर बगिया गुनगुना उठी।
बहे बासन्ती ‌व्यार सुहानी
मतवाली बन लहक-लहक,
नीलगगन में इतराते वो पंछी
प्यारे चहक-चहक,
पुरवैया के झोंकों से
उड़े चुनरिया गोरी की
करें सहेली हंसी ठिठोली,
नयी नवेली दुल्हन की !
प्रियतम संग गोरी मुस्काये,
पल पल जाये वहक-वहक,
झुक-झुक जाये लाज से नयना,
आंचल जाये ढलक-ढलक।

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परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने “मेरी स्मृतियां” नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है।


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