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इस संसार में

ओमप्रकाश सिंह
चंपारण (बिहार)

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यह सोचा मैंने इस संसार में
अकेला हूं मैं यूं कहने को यहां।
मेरे साथ प्रकृति की सन्नाटा
चिरपरिचित झींगुर की आवाज।
काली स्याह रात
कभी धवल धूसर चांदनी
जिसकी दूधिया प्रकाश।
फिर भी इस सब के बीच अपने आप को
अकेला और तन्हा पाता हूं अपने आप को।
सोचता हूं यहां कोई
अपना होता बोध करा पाता उसे
अपने अंतस की गहराइयों को
सृजनशील मानव अपनी राह खुद बनाते हैं।
उस पथ पर बढते चले जाते हैं।
उद्धत अविराम कर्म पथ पर
सृजनशीलता की परिचय देते हैं।
अपने एहसास के अनगढ पत्थरों को
अपनी कल्पनाओ की पैनी छैनी तथा
कर्मठता की हाथौड़ो से प्रहार कर
नई जीवंत मूर्ति तराश लेते
सृजनशीलता तो प्रकृति की अटूट नियम है।
प्रकृति की शक्ति को नियंत्रित करने की
व्यर्थ कोशिश की गई है।
उनकी भाव भंगिमा ओं के साथ छेड़छाड़.
करके मानव महा विनाश की ओर
निर्बाध अपनी गति को बढ़ाई।

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परिचय :-  ओमप्रकाश सिंह (शिक्षक मध्य विद्यालय रूपहारा)
ग्राम – गंगापीपर
जिला –पूर्वी चंपारण (बिहार)


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