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खौफ साए में

विजय गुप्ता
दुर्ग (छत्तीसगढ़)

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खौफ साए में जिंदगी पल रही
लक्ष्य विहीन मंजिल चल रही।

श्रम योग ने कभी रखी शिलाएं
अब घेर रही हैं विभिन्न बलाएं
टीस देने लगी जो शेष आशाएं
खीझ जन्य चाल तो खल रही
भीत से सभी दिशाएं हिल रही
खौफ साए में जिंदगी पल रही।
लक्ष्य विहीन मंजिल चल रही।।

याद आते मेहनतों के वो मंजर
हल चलाए जहां भूमि थी बंजर
सफल पीढ़ी कमान थामे सुंदर
दीन बन कृतत्व कला गुम रही
सीख समय की साहस भर रही
खौफ साए में जिंदगी पल रही
लक्ष्य विहीन मंजिल चल रही।।

कार्यशाला पाठशाला संस्कार
हर सूरत प्रावधानों का विचार
सामर्थ्य अनुसार होता विस्तार
हीन सा जीवन चाह भटक रही
बीन बजाती जिंदगी सटक रही
खौफ साए में जिंदगी पल रही
लक्ष्य विहीन मंजिल चल रही।।

कर्मक्रान्ति ने कई रंग दिखाए
दिनचर्या सीमित परिधि आए
निराश मन को अब मौन भाए
सीप मोती से शिकायतें कर रही
रीझकर कलम इबारतें रच रही
खौफ साए में जिंदगी पल रही
लक्ष्य विहीन मंजिल चल रही।।

कहते हैं दिन लौटते नहीं पुराने
मन उद्यान में अब छाए वीराने
संस्मरण आते हैं केवल सताने
चीज विचित्र मन में फंस रही
मीत आशा दूर खड़ी हँस रही
खौफ साए में जिंदगी पल रही
लक्ष्य विहीन मंजिल चल रही।।

आज नया वो कल होता पुराना
सटीक था जो अब नहीं सुहाना
सीखा नहीं जिसने बातें बनाना
सींग बन अकेले लोहा लेती रही
डींग जहां कई कदम पीछे रही
खौफ साए में जिंदगी पल रही।
लक्ष्य विहीन मंजिल चल रही।।

मित्र शराब पुस्तकें अच्छी पुरानी
कृतत्व कला संग संग हुई सयानी
रिश्ते बस नाम की एक निशानी
तीर तरकस के नए ताने बुन रही
पीर अब तो पीर को ही सुन रही
खौफ साए में जिंदगी पल रही।
लक्ष्य विहीन मंजिल चल रही।।

परिचय :- विजय कुमार गुप्ता
जन्म : १२ मई १९५६
निवासी : दुर्ग छत्तीसगढ़

उद्योगपति :१९७८ से विजय इंडस्ट्रीज दुर्ग
साहित्य रुचि : १९९७ से काव्य लेखन, तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल जी द्वारा प्रशंसा पत्र
काव्य संग्रह प्रकाशन : १ करवट लेता समय २०१६ में, २ वक़्त दरकता है २०१८
राष्ट्रीय प्रशिक्षक : (व्यक्तित्व विकास) अंतराष्ट्रीय जेसीस १९९६ से
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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