राकेश कुमार तगाला
पानीपत (हरियाणा)
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साधु राम नहीं रहे। सोनू का फोन सुबह ही आया था। मैं हैरान रह गया था। क्या बीमार थे, साधु राम जी? मैंने सोनू से पूछा। नहीं ऐसी कोई खास बात तो नहीं थी। आप तो जानते ही हो, सत्तर की उम्र में भी कितने फिट रहते थे? सुबह चार बजे ही सैर के लिए निकल जाते थे। पूरे दो घंटे बाद लौटते थे। इतनी लंबी सैर वही कर सकते थे। तभी तो उनकी रंगत गुलाब सी खिली रहती थी। एक दिन मुझें भी ले गए थे अपने साथ।
मैंने तो कान पकड़ लिए थे। इतनी लंबी सैर भी कोई करता है। कहीं रुकने का नाम ही नहीं लेते थे। रुकते भी थे तो नीम की दातुन तोड़ने के लिए। नीम के पत्ते तो ऐसे चबाते थे जैसे बेर खा रहे हो। खूब चबा-चबा कर खाते थे। कड़वाहट का तो नामो निशान भी नहीं था, उनके गुलाबी चेहरे पर। मुझें भी दो-चार पत्ते पकड़ा दिए करते थे चबाने के लिए। ना चाहते हुए भी चबाने पड़ते थे। मेरा मुँह इतना कड़वा हो जाता था। मैं तो थूकना चाहता था, पर चाचा जी के डर से चबा जाता था। या यूं कहूं निगल जाता था। अगर उनके सामने थूकता तो अच्छा खासा भाषण सुनने को मिल जाता। सुबह-सुबह नीम खाने से खून साफ होता है। रोज नीम खाया करो रंगत निखर जाएगी। और पता नहीं क्या-क्या सुनाने लग जाते थे? मैंने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी था। हाँ, सोनू तुम ठीक ही कह रहे हो। भले-चंगे थे। एकदम तंदुरुस्त।
इस खबर का मेरे तन-मन पर गहरा असर हुआ था। हम, उम्र में उनसे काफी छोटे थे। पर उनका व्यवहार हमारे साथ काफी दोस्ताना था। हमें कभी अहसास ही नहीं हुआ था कि वह हमसे इतने बड़े हैं। बस पढ़ाई-लिखाई को छोड़कर वह हर काम में हमसे बेहतर ही थे। सामाजिक व्यवहार तो उनका कमाल का था। सभी से मेलजोल कोई थोड़ा सा परेशान हो जाए तो दौड़ पड़ते थे सारे कामकाज छोड़कर। मैं तो उनका दीवाना था, उनकी समाज-सेवा का। गजब की फुर्ती थी उनमें।
कभी कहीं घूमने का विचार आता तो पैदल ही चलने का आग्रह करते थे। मोटरसाइकिल पर दो-चार किलोमीटर चलना तो उन्हें पसन्द ही नहीं था। हम भी उनके इस आग्रह को कभी दरकिनार नहीं कर पाते थे।
उस दिन का किस्सा तो मैं कभी नहीं भूल सकता। खेतों-खेतों चार किलोमीटर निकल गए थे हम दोनों। मैं थोड़ा-थोड़ा थकने भी लगा था। पर वो कमाल थे चलते ही जा रहे थे। रास्ते में हमें कई जानने वाले मिले थे। सभी ने उनका अभिवादन किया था। आदमी तो आदमी, औरतों भी उनकी दीवानी थी। वे हंसी-मजाक की सारी सीमा पार कर जाते थे। उस दिन उन्होंने मिसेज वर्मा को ही छेड़ दिया था। क्या बात है मिसेज वर्मा आज तो खूब चमक रही हो? लग रहा है वर्मा जी आज कल खूब ख्याल रख रहे हैं। मिसेज वर्मा, भी खिलखिलाकर हँस पड़ी थी। वह थोड़ी तुनक कर बोली थी। आप सुनाओ आपका ख्याल कौन रख रहा है आजकल? अरे मिसेज वर्मा, हमें कौन अवसर देता है सेवा का। वरना हम भी कोई कम नहीं है, मिस्टर वर्मा से। मिसेज वर्मा शर्म से लाल हो गई थी। अच्छा जी, इस उम्र में भी। क्यों मेरी उम्र ही क्या है? अभी तो मैं जवान हूँ? बाल ही तो सफेद हुए हैं। शरीर में बहुत लावा बचा है। मिसेज वर्मा, स्थिति को भाँपती हुई, थोड़ा हिचकती हुई, कहने को विवश हो गई अब छोड़ो भी साधु राम जी। आपसे जीत पाना तो बहुत कठिन। अच्छा चलती हूँ। आप तो खाली हैं मुझें तो बहुत काम है घर पर। तो क्या हुआ? मिसेज वर्मा मैं मदद कर दूँ आपके घर के कामकाज में। वैसे भी आपका शरीर काफी भारी हो गया है। घर का सारा माल आप ही खा रही हैं। हमारे वर्मा जी तो सूखकर काँटा हो गए हैं।
वाह जी वाह बड़ी चिंता हो रही है वर्मा जी की। अरे नहीं मुझें तो सिर्फ आपकी चिंता रहती है। आपका ही ख्याल रहता है। अच्छा जी कल आपको मिसेज शर्मा की भी इसी तरह चिंता हो रही थी। उन्होंने मुझें बताया था। आपकी हरक़तों के बारे में। ओह, मिसेज शर्मा के पेट में तो कोई बात पचती ही नहीं हैं। जब देखो मेरी ही चर्चा करती रहती हैं। साधु राम जी आपकी चर्चा तो हमेशा ही होती रहती है। आप तो कमाल के इंसान हो। अच्छा-अच्छा चलती हूँ। आप अपने सैर-सपाटे को पूरा कर ले। वह मुस्कुराती हुई चली गई थी।
मैं तो साधु राम जी वाक-पटुता का कायल था। मैंने झुक कर उन्हें शत-शत नमन कर दिया था। उन्होंने भी मजाक-मजाक में सिर पर हाथ रख दिया था। उन्होंने यह भी कहा, सीख लो औरतों को कैसे पटाना चाहिए? और हम दोनों एक-दूसरे की तरफ देख कर हँस पड़े थे।
मैं कितना मजबूर हूँ जो उनकी अंतिम यात्रा में, उनका कंधा भी नहीं दे सकता था। चाह कर भी नहीं, मुझें बड़ा शौक था, विदेश यात्रा का। बड़ी मुश्किल से वीजा मिला था। भला हो कंपनी वालो का जो सारा प्रबंध उन्होंने ही कर दिया था। किराया-भाड़ा, रहना, खाना सब कंपनी की तरफ से ही था। वरना हम मध्यम-वर्गीय लोग तो सिर्फ विदेश जाने के सपने ही देखते रह जाते हैं। या विदेशों के किस्से-कहानियों से ही संतुष्टि प्राप्त कर लेते हैं। पर विदेशों में अपनापन कहाँ? यहाँ हिंदुस्तानी एक क्लब में इकट्ठे होते हैं। कभी-कभी अपने देश को खूब याद करते हैं। अपना संगीत सुनते हैं। अपने देश का संगीत सभी को आत्म-विभोर कर देता है। कुछ तो उठ कर नाचने लग जाते हैं। कुछ इतने डूब जाते हैं। जैसे अभी पंख लगाकर घर पहुंच जाएंगे। मैं भी उन्हें देखकर भावुक हुए बिना नहीं रहता।
अब तक तो उनका अंतिम संस्कार भी हो चुका होगा। वैसे भी हमारे देश में तो अंतिम संस्कार साँझ होने से पहले ही कर देते हैं। लोग कहते हैं कि मुर्दों को रात को नहीं रखना चाहिए। कितनी अजीब बात है जीते जी इंसान, मरते ही मुर्दा। बड़ी अजीब रीत हैं।
मैं एक बार फिर अतीत में खो गया। इस पर भी एक दिन चर्चा हुई थी साधु राम जी से। अनपढ़ होते हुए भी उन्हें कितना ज्ञान था? वह सारी बातें अपने अनुभव के आधार पर ही करते थे। उस रात जब हम चार-पांच दोस्त पार्टी से लौट रहे थे, पार्टी क्या थी? कुँवारो की पार्टी तो सभी जानते हैं। सिगरेट, बीयर, चिकन और बैठने का ठिकाना मिल जाए। ठिकाना मिलते ही पार्टी का प्रोग्राम अपने आप ही बन जाता है। उस दिन खूब पी थी अपने घर जाना मुश्किल जान पड़ता था। साधु राम जी ने ही कहा था मेरे साथ चलो, मेरे घर पर सभी आराम करना छत पर।
गर्मियों के दिन थे। ठंडी- ठंडी हवा चल रही थी। सभी पूरी मस्ती में थे। मस्ती का आलम इस कद्र छाया था सभी पर। सभी ने एक साथ कहा था। ठीक हैं चलो फिर ऊपर। अरे ऊपर जाए तुम्हारे दुश्मन। अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है? अभी तो बड़े काम करने है तुम्हें। चाचा जी, आप शुरू हो जाते हो तो फिर चुप होने का नाम ही नहीं लेते। हम तो ऊपर छत पर जाने की बात कर रहे थे। ठीक है अब चलो बाहर से ही रास्ता है छत का। चाबी मेरी जेब में है। गेट की ओर चलो। सभी एक साथ चिल्लाए।
सभी पर मस्ती का खुमार छाया हुआ था। पर मेरे मन में एक ही उधेड़बुन चल रही थी। हमें भी एक ना एक दिन जाना है। साधु राम जी, चुपचाप देख रहे थे। बोले क्या सोच रहे हो मेरे शेर? वह मुझें प्यार से हमेशा शेर ही कहते थे। सभी छत पर निढाल पड़े थे। पर मेरी आँखों में नींद नहीं थी।
साधु राम जी मृत्यु क्या होती है? यह बड़ी दुःखद क्यों होती है? मृत्यु तो सभी की होती है? यह दुःखद तो संसारी लोग के लिए है। जो मोह-माया लिप्त रहते हैं। मोह दुखों का कारण हैं। पर मोह से दूर भी नहीं रह सकते। अपनों को खोने का दुख सभी को होता है। पर मृत्यु तो बुरे आदमी की भी होती है। जो जीवन में किसी का बुरा करते नही डरते। जो दूसरों का अपमान करते हैं। उनकी मृत्यु होती हैं। लेकिन जो लोग प्रेम-पूर्वक बिना स्वार्थ के, निस्वार्थ भावना के जीवन व्यतीत करते हैं। उनकी मृत्यु नहीं होती। वह तो हमेशा जीवित रहते हैं। सदा-सदा के लिए किसी ना किसी रूप में। वह अजर-अमर हो जाते हैं।
ठीक ही तो कहते थे साधु राम जी। उनकी मृत्यु कहाँ हुई है? वह तो अजर-अमर हो गए हैं। वह तो आज भी जीवित हैं, हमारे दिलों में। पता नहीं कितनो के दिलों में? किसी ना किसी रूप में। आप की मृत्यु नहीं हुई है। आप तो अजर-अमर हो गए।
परिचय : राकेश तगाला
निवासी : पानीपत (हरियाणा)
शिक्षा : बी ए ऑनर्स, एम ए (हिंदी, इतिहास)
साहित्यक उपलब्धि : कविता, लघुकथा, लेख, कहानी, क्षणिकाएँ, २०० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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