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अनहदें…

सन्तोषी किमोठी वशिष्ठ
रूद्रप्रयाग (उत्तराखंड)
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अनहदों से होकर तुम्हें
महसूस किया है, मैंने
सरहदों के दायरों में रहकर
ये जीवन जिया है, मैंने
शिखरों की चाह नहीं थी,
सरहदों की परवाह थी हमें,
गुजर गयी वो हदें जिनकी
परवाह थी हमें,
वो अनहदों के दायरे
आज भी गूँज रहे हैं।
वो नयनों की रोशनी
कहीं खो गयी है,
पर तुम्हारी खुशबू
चंदन की तरह
महसूस हो रही है
वो शिरोमणि चमक रही है
कानों में तुम्हारी
आवाजें गूँज रही हैं।।

मैं शान्त और शालीनता से
तुम्हें महसूस कर रही हूँ,
अभी भी अनहदों से गुजर रही हूँ,
वो हल्की सी मुस्कराती हुई सुबह,
वो शीतल होती हुई शाम,
बन्द नयनों से महसूस
किये जा रही हूँ,।
बन्द कानों से तुम्हारी
आहटों का अहसास
जम़ी पे तुम्हारे कदमों को
इस मखमली दूब
के सहारे महसूस किये जा रही हूँ,।।

अनहदों से होकर तुम्हें
महसूस किया है मैंने,
सरहदों के दायरों में तुम्हारे
अहसास को जिया है मैंने,
कुछ अनहदें तुम भी
महसूस कर जाओ,
वो लडखडाते हुए पैरों को
सम्भाला है मैंने,।।

जम़ी पे खड़ा किया था,
खुद को, तुम्हारी राह देखते हुए,
बहुत वक्त गुजर गया था,,
हर वक्त महसूस किया था,
खुद को तुम में,मैंने।।
सरहदों ने बहुत रोका,
पर ये आँचल जो छुआ
था, तुमने! न रोक पाई
खुद को अपने में।।

ये लहरें कहीं सूनी थी,
दरियाओं में, एक पत्थर गिरा तो
निकल पड़ी जलधाराओं में,
जो देखा एक नज़र समां वादियों में।
एक नया सवेरा हुआ नयनों में,
वो रोशनी फिर नज़र आई अनहदों में।।

परिचय :-  सन्तोषी किमोठी वशिष्ठ
शिक्षा : स्नातकोत्तर- एच, एन, बी गढ़वाल यूनिवर्सिटी श्रीनगर
निवासी : रूद्रप्रयाग (उत्तराखंड)
सम्प्रति : शिक्षिका, लेखिका/कवयित्री
घोषणा पत्र : मेरे द्वारा यह प्रमाणित किया जाता है कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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